Updated on 21.07.2020 09:55
👉 विरार (मुम्बई) ~ तेयुप द्वारा ब्लड डोनेशन कैम्प का आयोजन👉 भीलवाड़ा ~ अणुव्रत प्रश्नमाला प्रतियागिता का आयोजन
👉 राजसमन्द ~ अणुव्रत समिति द्वारा वृक्षारोपण कार्यक्रम का आयोजन
👉 हावड़ा ~ अणुवत समिति द्वारा वृक्षारोपण कार्यक्रम का आयोजन
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प्रस्तुति ~ 🌻 *संघ संवाद*🌻
🏵️ *समाज का शैक्षणिक गौरव* 🏵️
1. *सुरत - शौली पोरवाल*
2. *रोहिणी दिल्ली- अर्चिता जैन*
3. *फरीदाबाद ~ हर्षित दुगड़*
नोट: समाज का शैक्षणिक गौरव की सभी पोस्ट संघ संवाद के फेसबुक पेज पर की हुई है फेसबुक का लिंक नीचे दिया जा रहा है
*संघ संवाद परिवार की और से सभी को हार्दिक बधाई एवं उज्ज्वल भविष्य की शुभकामनाएं....*
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जैन परंपरा में सृजित प्रभावक स्तोत्रों एवं स्तुति-काव्यों में से एक है *भगवान पार्श्वनाथ* की स्तुति में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित *कल्याण मंदिर स्तोत्र*। जो जैन धर्म की दोनों धाराओं— दिगंबर और श्वेतांबर में श्रद्धेय है। *कल्याण मंदिर स्तोत्र* पर प्रदत्त आचार्यश्री महाप्रज्ञ के प्रवचनों से प्रतिपादित अनुभूत तथ्यों व भक्त से भगवान बनने के रहस्य सूत्रों का दिशासूचक यंत्र है... आचार्यश्री महाप्रज्ञ की कृति...
🔱 *कल्याण मंदिर - अंतस्तल का स्पर्श* 🔱
🕉️ *श्रृंखला ~ 88* 🕉️
*34. महत्त्व है आंतरिक भक्ति का*
गतांक से आगे...
बहुत लोग ऐसे हैं जो अपने यथार्थ स्वरूप को देखना पसंद नहीं करते। किन्तु जो पहुंचे हुए लोग हैं वे यथार्थ को देखना पसन्द करते हैं। एक कुशल चित्रकार ने शासक का चित्र बनाया। बहुत सुन्दर चित्र था। चित्र को शासक के सामने रखा। राजा ने देखा, प्रसन्न हो गया, बोला— बहुत बढ़िया चित्र बनाया है। किन्तु चित्रकार के निवेदन के बाद भी उसे स्वीकार नहीं किया और न ही पुरस्कार दिया।
चित्रकार बोला— 'राजन्! एक ओर आप चित्र को देखकर प्रसन्नता व्यक्त कर रहे हैं, दूसरी ओर आप न तो स्वीकार कर रहे हैं और न ही पुरस्कार की बात सोच रहे हैं।'
राजा के मुंह पर बड़ा मस्सा था, उसने सौन्दर्य दिखाने के लिए मस्से को हटाकर चित्र बना दिया। राजा ने कहा— 'चित्र सुन्दर है किन्तु इसमें सचाई नहीं है। मैं असत्य को स्वीकार नहीं कर सकता। यथार्थ को स्वीकार करूंगा।'
जिस व्यक्ति में यथार्थ को स्वीकार करने की शक्ति जागती है, वह वैसा ही बन जाता है। जो कमियों को छुपाना चाहते हैं और विशेषताओं का प्रदर्शन करना चाहते हैं उनकी विशेषताओं का अधिक विकास नहीं होता। उससे विशेषताएं भी धूमिल बन जाती हैं। जो व्यक्ति अपनी कमियों को छिपाता नहीं है, सामने रखता है, उसमें परिवर्तन आता है। किसी से पूछा जाता है कि तुमने ऐसा व्यवहार किया या नहीं? उसका उत्तर होता है— मैं तो ऐसा व्यवहार बिलकुल नहीं करता। अमुक वैसा व्यवहार कर रहा है इसीलिए मुझे ऐसा करना पड़ा। किसी व्यक्ति से बात करके देखें कि तुमने यह काम अच्छा नहीं किया, भूल की, गलती की, आवेश किया। वह कहेगा— नहीं, पहले मैंने कुछ नहीं किया। उसने किया, तब मैंने किया।
मनुष्य अपनी कमी को सहजता से स्वीकार करना नहीं चाहता। वह अपने आपको सर्वांगसुन्दर और परिपूर्ण दिखाना चाहता है, किन्तु वह परिपूर्ण बनना नहीं चाहता। इससे कमियां दूर नहीं होती। जिन्हें अपनी कमियों को दूर कर विशेषताओं का विकास करना है उन्हें पहले अपनी कमियों को देखने की बात सामने रखनी होगी।
ध्यान पद्धति में इसी का नाम है— आत्म दर्शन। अपने आपको देखो। जब प्रेक्षाध्यान का प्रयोग करवाया जाता है तब सुझाव देते हैं कि आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो। प्रश्न होता है कि क्या दो आत्मा हैं?
आचारांग सूत्र में बहुत सुन्दर निरूपण मिलता है— जब तक अहंकार को नहीं देखा जाता तब तक क्रोध नहीं मिट सकता। क्रोध आने का सबसे बड़ा कारण है अहंकार। व्यक्ति में जितना ज्यादा क्रोध होगा, उसमें उससे अधिक अहंकार होगा। मेरा बेटा और वह मेरी बात नहीं मानता— बस क्रोध आ गया। यह क्रोध क्यों आया? क्योंकि भीतर अहंकार है। क्रोध के पीछे अहंकार बोलता है।
सेठ ने प्रबंधक को बुलाया और कहा— देखो, अपनी स्कूल के उस अध्यापक को अवकाश दे दो।
प्रबंधक— साहब! वह तो अच्छा पढ़ाता है, उसको क्यों छोड़ते हैं?
सेठ— अच्छा पढ़ाता है या नहीं, इससे मुझे कोई मतलब नहीं है। मैं कक्षा में गया और वह खड़ा नहीं हुआ। इतना भी शिष्टाचार नहीं जानता इसलिए उसकी छुट्टी कर दो।
गुस्सा क्यों आया? छुट्टी क्यों की? भीतर अहंकार था। अनेक बार यह स्वर सुनते हैं कि इस व्यक्ति में इगो बहुत है। आज की सबसे बड़ी प्रॉब्लम है— इगो प्रॉब्लम।
*इगो प्रॉब्लम दूर हो सकती है... भक्ति से... कैसे...?* जानेंगे... समझेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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जैन परंपरा में सृजित प्रभावक स्तोत्रों एवं स्तुति-काव्यों में से एक है *भगवान पार्श्वनाथ* की स्तुति में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित *कल्याण मंदिर स्तोत्र*। जो जैन धर्म की दोनों धाराओं— दिगंबर और श्वेतांबर में श्रद्धेय है। *कल्याण मंदिर स्तोत्र* पर प्रदत्त आचार्यश्री महाप्रज्ञ के प्रवचनों से प्रतिपादित अनुभूत तथ्यों व भक्त से भगवान बनने के रहस्य सूत्रों का दिशासूचक यंत्र है... आचार्यश्री महाप्रज्ञ की कृति...
🔱 *कल्याण मंदिर - अंतस्तल का स्पर्श* 🔱
🕉️ *श्रृंखला ~ 88* 🕉️
*34. महत्त्व है आंतरिक भक्ति का*
गतांक से आगे...
बहुत लोग ऐसे हैं जो अपने यथार्थ स्वरूप को देखना पसंद नहीं करते। किन्तु जो पहुंचे हुए लोग हैं वे यथार्थ को देखना पसन्द करते हैं। एक कुशल चित्रकार ने शासक का चित्र बनाया। बहुत सुन्दर चित्र था। चित्र को शासक के सामने रखा। राजा ने देखा, प्रसन्न हो गया, बोला— बहुत बढ़िया चित्र बनाया है। किन्तु चित्रकार के निवेदन के बाद भी उसे स्वीकार नहीं किया और न ही पुरस्कार दिया।
चित्रकार बोला— 'राजन्! एक ओर आप चित्र को देखकर प्रसन्नता व्यक्त कर रहे हैं, दूसरी ओर आप न तो स्वीकार कर रहे हैं और न ही पुरस्कार की बात सोच रहे हैं।'
राजा के मुंह पर बड़ा मस्सा था, उसने सौन्दर्य दिखाने के लिए मस्से को हटाकर चित्र बना दिया। राजा ने कहा— 'चित्र सुन्दर है किन्तु इसमें सचाई नहीं है। मैं असत्य को स्वीकार नहीं कर सकता। यथार्थ को स्वीकार करूंगा।'
जिस व्यक्ति में यथार्थ को स्वीकार करने की शक्ति जागती है, वह वैसा ही बन जाता है। जो कमियों को छुपाना चाहते हैं और विशेषताओं का प्रदर्शन करना चाहते हैं उनकी विशेषताओं का अधिक विकास नहीं होता। उससे विशेषताएं भी धूमिल बन जाती हैं। जो व्यक्ति अपनी कमियों को छिपाता नहीं है, सामने रखता है, उसमें परिवर्तन आता है। किसी से पूछा जाता है कि तुमने ऐसा व्यवहार किया या नहीं? उसका उत्तर होता है— मैं तो ऐसा व्यवहार बिलकुल नहीं करता। अमुक वैसा व्यवहार कर रहा है इसीलिए मुझे ऐसा करना पड़ा। किसी व्यक्ति से बात करके देखें कि तुमने यह काम अच्छा नहीं किया, भूल की, गलती की, आवेश किया। वह कहेगा— नहीं, पहले मैंने कुछ नहीं किया। उसने किया, तब मैंने किया।
मनुष्य अपनी कमी को सहजता से स्वीकार करना नहीं चाहता। वह अपने आपको सर्वांगसुन्दर और परिपूर्ण दिखाना चाहता है, किन्तु वह परिपूर्ण बनना नहीं चाहता। इससे कमियां दूर नहीं होती। जिन्हें अपनी कमियों को दूर कर विशेषताओं का विकास करना है उन्हें पहले अपनी कमियों को देखने की बात सामने रखनी होगी।
ध्यान पद्धति में इसी का नाम है— आत्म दर्शन। अपने आपको देखो। जब प्रेक्षाध्यान का प्रयोग करवाया जाता है तब सुझाव देते हैं कि आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो। प्रश्न होता है कि क्या दो आत्मा हैं?
आचारांग सूत्र में बहुत सुन्दर निरूपण मिलता है— जब तक अहंकार को नहीं देखा जाता तब तक क्रोध नहीं मिट सकता। क्रोध आने का सबसे बड़ा कारण है अहंकार। व्यक्ति में जितना ज्यादा क्रोध होगा, उसमें उससे अधिक अहंकार होगा। मेरा बेटा और वह मेरी बात नहीं मानता— बस क्रोध आ गया। यह क्रोध क्यों आया? क्योंकि भीतर अहंकार है। क्रोध के पीछे अहंकार बोलता है।
सेठ ने प्रबंधक को बुलाया और कहा— देखो, अपनी स्कूल के उस अध्यापक को अवकाश दे दो।
प्रबंधक— साहब! वह तो अच्छा पढ़ाता है, उसको क्यों छोड़ते हैं?
सेठ— अच्छा पढ़ाता है या नहीं, इससे मुझे कोई मतलब नहीं है। मैं कक्षा में गया और वह खड़ा नहीं हुआ। इतना भी शिष्टाचार नहीं जानता इसलिए उसकी छुट्टी कर दो।
गुस्सा क्यों आया? छुट्टी क्यों की? भीतर अहंकार था। अनेक बार यह स्वर सुनते हैं कि इस व्यक्ति में इगो बहुत है। आज की सबसे बड़ी प्रॉब्लम है— इगो प्रॉब्लम।
*इगो प्रॉब्लम दूर हो सकती है... भक्ति से... कैसे...?* जानेंगे... समझेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 331* 📜
*श्रीमद् जयाचार्य*
*जीवन-प्रसंग, अनेक रंग*
*हीरों के समान*
जयाचार्य का जीवन बड़ा ही घटनाप्रधान रहा है। अनेक घटनाओं का उल्लेख पीछे विविध प्रसंगों में किया जा चुका है, फिर भी बहुत से ऐसे घटना-प्रसंग अवशिष्ट हैं जो पूर्वोल्लिखित किसी विषय-विशेष से सम्बन्धित न होने पर भी उनके जीवन के विविध पहलुओं पर प्रकाश डालने में बड़े महत्त्वपूर्ण हैं। प्रस्तुत अध्याय में उन स्फुट जीवन प्रसंगों का संकलन किया गया है। ये ताराशे हुए उन छोटे-बड़े हीरों के समान हैं, जो किसी आभूषण में न जड़े होने पर भी अपने-आप में पूर्ण हैं, तथा अपनी अनेक रंगों वाली चमक से सभी को प्रभावित करते हैं। बहुमूल्यता तो उनकी प्रत्येक परिस्थिति में होती ही है।
*गुरु-भक्ति*
विक्रम सम्वत् 1883 के शेषकाल की घटना है। ऋषिराय उस समय मालव-यात्रा कर रहे थे। मुनि जीत उनके साथ थे। उस यात्रा के अन्तर्गत ग्रीष्मकाल में ऋषिराय 'झाबुआ' की ओर पधारे। उस प्रदेश में बहुत गहन जंगल है। कहावतों में आज भी 'झाड़ीबंको झाबुओ' प्रसिद्ध है। एक दिन वहां के बीहड़ जंगल में से विहार करते समय ऋषिराय आगे-आगे चल रहे थे और उनके चरणों का अनुसरण करते हुए थोड़े-से पीछे मुनि जीत चल रहे थे। अचानक सामने की झाड़ियों में कुछ हलचल हुई और उधर सबका ध्यान जाए, इतने में तो एक भीमकाय भालू मार्ग पर आ खड़ा हुआ।
'आप ठहरिये, आगे मुझे आने दीजिए' मुनि जीत ने पीछे से कहा और उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना तत्काल लपक कर वे आगे आ गये। भालू ने मार्ग में खड़े होकर एक क्षण के लिए उघर देखा और संभवतः एक महान् पदयात्री के मार्ग में बाधक बनना अनुपयुक्त समझकर दूसरी ओर की झाड़ियों में घुसकर अदृश्य हो गया। उपसर्ग का भय टल जाने पर ऋषिराय अपने शिष्य-वर्ग के साथ गन्तव्य की ओर आगे बढ़ गये। युवक मुनि जीत का साहस और गुरु-भक्ति सबके लिए उदाहरण बन गई।
*ऋण-मुक्ति*
प्रत्येक सन्तान पर माता के उपकारों का इतना ऋण होता है कि आजीवन उनकी उत्कृष्ट कोटि की शारीरिक सेवाएं करके भी व्यक्ति ऋण-मुक्त नहीं हो सकता। उससे मुक्ति तभी मिलती है जब वह उनके आत्मोत्कर्ष में सहयोगी बनता है। मुनि जीत ने अपनी माता साध्वी कल्लूजी के आत्मोत्कर्ष में सहयोग दिया और मातृ-ऋण से मुक्त हुए।
साध्वी कल्लूजी एक तपस्विनी साध्वी थीं। अपने साधना-काल में उन्होंने अनेक लम्बी तपस्याएं की थीं। जीवन के सान्ध्य में उन्होंने ऋषिराय से संलेखना की स्वीकृति मांगी। आचार्यश्री ने कहा— 'अभी तुम्हारी शक्ति अच्छी है। संलेखना के लिए इतनी शीघ्रता क्या है ?' साध्वीश्री ने कहा— 'गुरुदेव! मेरे मन में सहज ही यह भावना उठी है कि अब मुझे संलेखनापूर्वक समाधि मरण की तैयारी करनी चाहिए, तपस्या से मेरा लगाव सदा रहा है। आप मुझे स्वीकृति प्रदान करने की कृपा करें।' अत्यन्त आग्रहपूर्वक उन्होंने स्वीकृति प्राप्त की और संलेखना प्रारम्भ कर दी। उन्होंने तपस्या को क्रमशः वृद्धिंगत करते हुए अपने शरीर को एकदम कृश कर लिया।
विक्रम सम्वत् 1886 का वर्षाकाल पाली में सम्पन्न कर ऋषिराय मिगसर मास में खेरवा पधारे। वहां साध्वी कल्लूजी को दर्शन दिये। मुनि जीत भी जोधपुर से वहां पहुंच गये। मुनि सरूपचन्दजी तथा मुनि भीमराजजी भी आ गये। गुरुदेव तथा तीनों पुत्रों को एक साथ अपने पास पाकर साध्वीश्री हर्ष से गद्गद हो गईं। ऋषिराय उन्हें प्रतिदिन दर्शन देते और अमृतमय शिक्षा प्रदान करते। मुनि जीत भी वैराग्य-रस भरी चर्चाओं द्वारा उनके परिणामों की श्रेणी को उच्चतर बनाते। आचार्यश्री ने पचीस दिन वहां ठहर कर थली की अपनी प्रथम यात्रा के लिए प्रस्थान कर दिया। मुनि सरूपचन्दजी और मुनि जीतमलजी भी उनके साथ ही विहार कर गये। मुनि भीमराजजी कुछ दिनों के लिए यहां ठहरे।
सबके विहार कर जाने के पश्चात् साध्वीश्री ने पौष मास से अपनी तपस्या को एक साथ ही उग्र बना दिया। पहले-पहल उन्होंने मासखमण किया, फिर ग्यारह दिनों की तपस्या, फिर अठाई और फिर लम्बे समय तक एकान्तर तप किया। फिर आजीवन अनशन ग्रहण कर विक्रम सम्वत् 1887 श्रावण शुक्ला 13 को देह-त्याग कर दिया।
*सलाह चाहे किसी के भी द्वारा दी जाए... श्रीमद् जयाचार्य उचित एवं सर्व हितकारी सलाह को मानने में नहीं हिचकते थे...* जानेंगे... और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति-- 🌻 संघ संवाद 🌻
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शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमल्लजी की कृति वैचारिक उदारता, समन्वयशीलता, आचार-निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा "तेरापंथ का इतिहास" जिसमें सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है।
🌞 *तेरापंथ का इतिहास* 🌞
📜 *श्रृंखला -- 331* 📜
*श्रीमद् जयाचार्य*
*जीवन-प्रसंग, अनेक रंग*
*हीरों के समान*
जयाचार्य का जीवन बड़ा ही घटनाप्रधान रहा है। अनेक घटनाओं का उल्लेख पीछे विविध प्रसंगों में किया जा चुका है, फिर भी बहुत से ऐसे घटना-प्रसंग अवशिष्ट हैं जो पूर्वोल्लिखित किसी विषय-विशेष से सम्बन्धित न होने पर भी उनके जीवन के विविध पहलुओं पर प्रकाश डालने में बड़े महत्त्वपूर्ण हैं। प्रस्तुत अध्याय में उन स्फुट जीवन प्रसंगों का संकलन किया गया है। ये ताराशे हुए उन छोटे-बड़े हीरों के समान हैं, जो किसी आभूषण में न जड़े होने पर भी अपने-आप में पूर्ण हैं, तथा अपनी अनेक रंगों वाली चमक से सभी को प्रभावित करते हैं। बहुमूल्यता तो उनकी प्रत्येक परिस्थिति में होती ही है।
*गुरु-भक्ति*
विक्रम सम्वत् 1883 के शेषकाल की घटना है। ऋषिराय उस समय मालव-यात्रा कर रहे थे। मुनि जीत उनके साथ थे। उस यात्रा के अन्तर्गत ग्रीष्मकाल में ऋषिराय 'झाबुआ' की ओर पधारे। उस प्रदेश में बहुत गहन जंगल है। कहावतों में आज भी 'झाड़ीबंको झाबुओ' प्रसिद्ध है। एक दिन वहां के बीहड़ जंगल में से विहार करते समय ऋषिराय आगे-आगे चल रहे थे और उनके चरणों का अनुसरण करते हुए थोड़े-से पीछे मुनि जीत चल रहे थे। अचानक सामने की झाड़ियों में कुछ हलचल हुई और उधर सबका ध्यान जाए, इतने में तो एक भीमकाय भालू मार्ग पर आ खड़ा हुआ।
'आप ठहरिये, आगे मुझे आने दीजिए' मुनि जीत ने पीछे से कहा और उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना तत्काल लपक कर वे आगे आ गये। भालू ने मार्ग में खड़े होकर एक क्षण के लिए उघर देखा और संभवतः एक महान् पदयात्री के मार्ग में बाधक बनना अनुपयुक्त समझकर दूसरी ओर की झाड़ियों में घुसकर अदृश्य हो गया। उपसर्ग का भय टल जाने पर ऋषिराय अपने शिष्य-वर्ग के साथ गन्तव्य की ओर आगे बढ़ गये। युवक मुनि जीत का साहस और गुरु-भक्ति सबके लिए उदाहरण बन गई।
*ऋण-मुक्ति*
प्रत्येक सन्तान पर माता के उपकारों का इतना ऋण होता है कि आजीवन उनकी उत्कृष्ट कोटि की शारीरिक सेवाएं करके भी व्यक्ति ऋण-मुक्त नहीं हो सकता। उससे मुक्ति तभी मिलती है जब वह उनके आत्मोत्कर्ष में सहयोगी बनता है। मुनि जीत ने अपनी माता साध्वी कल्लूजी के आत्मोत्कर्ष में सहयोग दिया और मातृ-ऋण से मुक्त हुए।
साध्वी कल्लूजी एक तपस्विनी साध्वी थीं। अपने साधना-काल में उन्होंने अनेक लम्बी तपस्याएं की थीं। जीवन के सान्ध्य में उन्होंने ऋषिराय से संलेखना की स्वीकृति मांगी। आचार्यश्री ने कहा— 'अभी तुम्हारी शक्ति अच्छी है। संलेखना के लिए इतनी शीघ्रता क्या है ?' साध्वीश्री ने कहा— 'गुरुदेव! मेरे मन में सहज ही यह भावना उठी है कि अब मुझे संलेखनापूर्वक समाधि मरण की तैयारी करनी चाहिए, तपस्या से मेरा लगाव सदा रहा है। आप मुझे स्वीकृति प्रदान करने की कृपा करें।' अत्यन्त आग्रहपूर्वक उन्होंने स्वीकृति प्राप्त की और संलेखना प्रारम्भ कर दी। उन्होंने तपस्या को क्रमशः वृद्धिंगत करते हुए अपने शरीर को एकदम कृश कर लिया।
विक्रम सम्वत् 1886 का वर्षाकाल पाली में सम्पन्न कर ऋषिराय मिगसर मास में खेरवा पधारे। वहां साध्वी कल्लूजी को दर्शन दिये। मुनि जीत भी जोधपुर से वहां पहुंच गये। मुनि सरूपचन्दजी तथा मुनि भीमराजजी भी आ गये। गुरुदेव तथा तीनों पुत्रों को एक साथ अपने पास पाकर साध्वीश्री हर्ष से गद्गद हो गईं। ऋषिराय उन्हें प्रतिदिन दर्शन देते और अमृतमय शिक्षा प्रदान करते। मुनि जीत भी वैराग्य-रस भरी चर्चाओं द्वारा उनके परिणामों की श्रेणी को उच्चतर बनाते। आचार्यश्री ने पचीस दिन वहां ठहर कर थली की अपनी प्रथम यात्रा के लिए प्रस्थान कर दिया। मुनि सरूपचन्दजी और मुनि जीतमलजी भी उनके साथ ही विहार कर गये। मुनि भीमराजजी कुछ दिनों के लिए यहां ठहरे।
सबके विहार कर जाने के पश्चात् साध्वीश्री ने पौष मास से अपनी तपस्या को एक साथ ही उग्र बना दिया। पहले-पहल उन्होंने मासखमण किया, फिर ग्यारह दिनों की तपस्या, फिर अठाई और फिर लम्बे समय तक एकान्तर तप किया। फिर आजीवन अनशन ग्रहण कर विक्रम सम्वत् 1887 श्रावण शुक्ला 13 को देह-त्याग कर दिया।
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🧘♂ *प्रेक्षा ध्यान के रहस्य* 🧘♂
🙏 #आचार्य श्री #महाप्रज्ञ जी द्वारा प्रदत मौलिक #प्रवचन
👉 *#प्रेक्षावाणी : श्रंखला - ४८०* ~
*भावनात्मक #स्वास्थ्य और #प्रेक्षाध्यान - ६*
एक #प्रेक्षाध्यान शिविर में भाग लें।
देखें, जीवन बदल जायेगा, जीने का दृष्टिकोण बदल जायेगा।
प्रकाशक
#Preksha #Foundation
Helpline No. 8233344482
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