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❖ समय का संकेत --- क्षुल्लक श्री ध्यान सागर जी महाराज - आचार्य श्री विद्यासागर जी के शिष्य -food for thought! Osam words.. @ @
बीतने वाली घडी को कौन लोटा पायेगा?
यह सुअवसर खो दिया तो अंत में पछताएगा |
जिंदगी भर का कमाया साथ में क्या जायेगा?
इस धरा का इस धरा पर सब धरा रह जायेगा || १ ||
कौन जाने किस डगर पर धड़कने रुक जाएगी,
जिन्दगी का क्या भरोसा? एक दिन लूट जायेगी |
आज कल था, कल बनेगा, यूँ उमर ढल जायेगी,
जाग जा अब भी मुसाफिर! यह घडी कब आएगी? || २ ||
एक दिन जाना पड़ेगा मौत जिस दिन आएगी,
विश्व की सब शक्तिया भी तब बचा ना पायेगी |
कौन किसका है यहाँ पर? तब शमा बतलायेगी,
होश में आजा नहीं तो जिंदगी खो जायेगी || ३ ||
मौत आने पर ना कोई प्राण देने आयेगा,
धन-खजाना भी न कोई साथ में चल पायेगा!
ज्ञान और विराग से ही मोक्षपथ मिल पायेगा,
गर गँवाएगा समय तो फिर बहुत पछताएगा || ४ ||
शान्ति के पुरुषार्थ बिन हम शांति कैसे पायेगे?
देह की ही चाकरी में दिन निकल जायेगा |
ऊपरी उपचार भर से रोग कैसे जायेगे?
चर्म धोने से कभी भी कर्म ना धुल पायेगे || ५ ||
जो गये सो खो गये दिन हम स्वयं भी खो गये!
मोह-माया की वजह से जाग कर भी सो गये,
देख के दुनिया की रंगत हम इसी के हों गये,
अन्त में नर-जन्म से भी हाथ अपने धो गये || ६ ||
वर्ष गाँठो के बहाने जिन्दगी कटती गयी,
इक तरफ बदती गयी तो इक तरफ घटती गयी!
मूढ़ मानव की मनुजता मौज-मस्ती में गयी,
हों गयी काया पुरानी पर रही तृष्णा नयी! || ७ ||
कामनाओं से भटकता जीव इस संसार में,
कामनाओं से निकलती रात सोच-विचार में |
कामनाओं में गुजरती जिन्दगी दिन जार में,
कामनाओं में फँसा जो वो फँसा मझधार में || ८ ||
आज करुनाहीन हैं जो कल करुणा बन जायेंगे,
एक-एक कुकर्म अपने बाद में तडपायेगे |
पुण्य के भीषण नशे में, पाप बढते जायेगें,
छोड़ दे अभिमान जो भी आये है सो जायेगे || ९ ||
मैं न कुछ, कुछ भी न मेरा जब समझ में आयेगा,
सत्य का शाश्वत खजाना तब स्वयं मिल जायेगा |
उच्च कोई तुच्छ कोई तब नजर ना आयेगा,
प्रेम उमड़ेगा सभी पर धर्म राज्य बसाएगा || १० ||
~~~ क्षुल्लक श्री ध्यान सागर जी महाराज - आचार्य श्री विद्यासागर जी के शिष्य
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❖ निर्ग्रन्थ मुनियो के “मुनित्व” की सुरक्षा कैसे और क्यों? उपगूहन अंग और साथ में श्रावक [Society] का विवेक, Responsibly regarding recently happened unholy incident. MUST READ IT |
उपगूहन कथा --- जिनेन्द्र भक्त सेठ की कथा, श्रावक चर्या का मूल ग्रन्थ - रत्नकरंड श्रावकाचार से |पहले ये 2 paragraph में दी गयी story पढ़े फिर इस article को आगे continue read करे
सुराष्ट्र देश के पाटलिपुत्र नगर में राजा यशोधर रहता था। उसकी रानी का नाम सुसीमा था। उन दोनो के सुबीर नामक पुत्र था। सुबीर सप्तव्यसनों से अभिभूत था तथा ऐसे ही चोर पुरूष उसकी सेवा करते थे। उसने कानो कान सुना कि पूर्व गौङ देश की ताम्रलिप्त नगरी में जिनेन्द्र भक्त सेठ के सात खण्ड वाले महल के ऊपर अनेक रक्षको से युक्त श्री पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा पर जो छत्रत्रय लगा है उस पर एक विशेष प्रकार का अमूल्य वैडूर्यमणि लगा हुआ है। लोभवश उस सुबीर ने अपने साथियों से पूछा कि क्या कोई उस मणि को लाने मे समर्थ है? सूर्य नामक चोर ने गला फ़ाङकर कहा कि यह तो क्या मैं इन्द्र के मुकुट का मणि भी ला सकता हूं। इतना कहकर वह कपट से क्षुल्लक बन गया और अत्यधिक कायक्लेश से ग्राम तथा नगरो मे क्षोभ करता हुआ क्रम से ताम्रलिप्त नगरी पहुंच गया। प्रशंसा से क्षोभ को प्राप्त हुए जिनेन्द्रभक्त सेठ ने जब सुना तब वह जाकर दर्शन कर वन्दना कर तथा वार्तलाप कर उस क्षुल्लक को अपने घर ले आया। उसने पार्श्वनाश देव के उसे दर्शन कराये और माया से न चाहते हुए भी उसे मणि का रक्षक बनाकर वहीं रख लिया।
एक दिन क्षुल्लक से पूछकर सेठ समुंद्र यात्रा के लिये चला और नगर से बाहर निकलकर ठहर गया। वह चोर क्षुल्लक घर के लोगो को सामान ले जाने में व्यग्र जानकर आधी रात के समय उस मणि को लेकर चलता बना। मणि के तेज से मार्ग में कोतवालों ने उसे देख लिया और पकङने के लिये उसका पीछा किया। कोतवालो से बचकर भागने में असमर्थ हुआ वह चोर क्षुल्लक सेठ की ही शरण में जाकर कहने लगा कि मेरी रक्षा करो, रक्षा करो। कोतवालो का कलकल शब्द सुनकर तथा पूर्वापर विचार कर सेठ ने जान लिया कि यह चोर है परन्तु धर्म को उपहास से बचाने के लिये उसने कहा कि यह मेरे कहने से ही रत्न को लाया है, आप लोगो ने अच्छा नहीं किया जो इस महा तपस्वी को चोर घोषित किया। तदनन्तर सेठ के वचन को प्रमाण मानकर कोतवाल चले गये और सेठ ने उसे रात्रि के समय निकाल दिया। इसी प्रकार अन्य सम्यग्दृष्टि को भी असमर्थ और अज्ञानी जनों से आये हुए धर्म के दोष का आच्छादन करना चाहिये।
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इसमें कोई doubt नहीं की सम्यक-चर्या में शिथिलता बढती ही जारही है चाहे फिर तो श्रावक चर्या हो या मुनि चर्या, श्रावक की आदर्श चर्या के मूलगुण आदि तो मुनिराज प्रवचन, शिविर में बताते ही है और हम में से लोग यथासंभव पालन भी करते है लेकिन समस्या अब सबसे बड़ी है की यदि श्रावक के आदर्श और जिनको सिद्धो सामान चलते फिरे तीर्थ कहा गया ऐसी तीर्थंकर मुद्रा की चर्या में विसंगतिया आने लगे तब क्या करे? सच्चे साधू इस पंचम काल में भी होते है और पंचम काल में अंत तक होते रहेंगे अब अगर किसी को कोई सच्चे साधू अगर नहीं मिल पाते तो यह नहीं बोल सकते की सच्चे साधू है ही नहीं, सच्चे साधू तो है लेकिन उनको नहीं मिलपा रहे ये अलग बात है, पहली बात तो है की इस विषय में श्रावक का अधिकार ना के बराबर है और दूसरी और अगर जो कुछ श्रावक कर सकता है तो सिर्फ विवेक से ही कर सकता है..
अपनी बात पर आते है की श्रावक को ऐसी किसी घटना का जिक्र Facebook, Orkut, TV [Electronic media], Video clips, Social networking sites, Newspapers पर क्यों नहीं करना चाहिए जिसमे साधू द्वारा कुछ गलत चर्या की गयी हो, actually हमें ऐसी घटनाओ को publicly नहीं share करना चाहिए क्योकि
1. ऐसा करने से जिनका धर्मं पर थोड़ी थोड़ी श्रद्धा अभी ही शुरू हुई है जो भटक सकते है
2. धर्मं की अप्रभावना होती है
3. अहिंसा के पुजारी द्वारा ही हिंसा ऐसा सन्देश जायेगा...
4. लोगो का सब मुनिराज पर संदेह हो जायेगा, लोग सच्चे वीतरागी मुनि को भी उसी द्रष्टि से देखंगे [एक दो मुनिराज के कुछ गलत चर्या का सबको पता चलने से पूरा साधू जगत बदनाम हो सकता है]
5. समाज में बटवारा हो सकता है, लोग विशेष पक्ष का साथ लेकर लड़ना प्रारंभ कर सकते है
6. कुछ लोग शायद आतारिक विशुद्धि की और बढ़ रहे हो तो उनका निर्मल भाव फिर पतन की और जा सकते है
7. अज्ञानतावश या कर्म उदय के कारण जो जिन धर्मं से विद्वेष करते है उनको मोका मिलेगा बोलने, जिससे धर्मं का नाम तो खराब होगा ही साथ में धार्मिक गुनीजनो पर विपत्ति भी आसक्ति है, और फालतू में उन विद्वेष करने वालो का भी कर्म बांध पढ़ेगा...भैया कर्म बांध किसी का भी पढ़े, कर्म बंध तो बंध ही है |
8. निंदा करने से व्यक्ति दो पक्षों में बट जाते है, एक पक्ष और दूसरा उसका विपक्ष, और मतभेद से शुरू होकर क्रिया मनभेद हो करके रुक जाती है क्योकि मतभेद होना इतना बुरा नहीं जितना मनभेद है...जिससे धर्मं नाम शब्द बदनाम हो जाता है की धर्मं तो लोगो को बटता है लेकिन सच्चाई ये है की "हम ही धर्मं के नाम पर बट जाते है और बदनाम होता है धर्मं"
जिनको जिनवाणी पर श्रवण और चिंतन/मनन से थोड़ी बहुत सम्यक बुद्धि उत्पन हुई है वे लोग जब देखते है की मुनिराज का स्वरुप शास्त्रों में कैसा मनभावन और पवित्र लिखा और कैसे अद्भुत होते है ये वीतरागी संत और वे फुले नहीं समाते और बड़े प्रसन्न होते है ऐसे जिनेन्द्र धर्म की शरण पाकर लेकिन जब वेही देखते है आज की ये कैसी चर्या मुनिराज कर रहे है और अचानक कुछ अधार्मिक चर्या किसी मुनिराज द्वारा देखि जाती है तो कुछ व्यक्ति अपने पर control नहीं कर पाते और जहा तहा उन बातो का वर्णन करते है लेकिन उनका अभिप्राय सिर्फ ये रहता है की ये चर्या की विसंगति कैसे ख़तम हो जाये |
अब बात आती है उपगूहन अंग की जिसका मतलब है किसी कारनवश चर्या से पतित होते हुए व्यक्तित्व की रक्षा करना, उनके भावो को दुबारा दृढ करना और उनको फिर धर्म मार्ग में लगाना, उनको उनका धर्मं याद दिलाना, धर्मं का प्रभाव सिद्ध करके धर्मं में श्रद्धा को बढ़ाना, जो अपने आप ही पवित्र ऐसे जैनधर्मकी, अज्ञानी तथा असमर्थ जनोंके आश्रयसे उत्पन्न हुई निन्दाको दूर करते हैं, अन्य पुरुषोंके दोषों को भी गुप्त रखना, जो दूसरोंके दोषोंको ढांकता है, और अपने सुकृतको लोकमें प्रकाशित नहीं करता | सम्पूर्ण रूप से गुण-ग्राही हो जाना, मतलब सिर्फ गुण ही गुण देखते चले जाना और अपने व्यक्तित्व को उन महावीर स्वामी जैसा होने का प्रयास करते चले जाना...
सबसे बड़ी बात श्रावक आजकल नाम के लिए श्रावक है उसको पता ही नहीं धर्मं वास्तविकता मैं है क्या? श्रावक किसको कहते है, महावीर स्वामी कौन थे और कैसे महावीर महावीर बने, ये संसार क्या है, nature क्या है...हम लोगो जिनवाणी का ज्ञान नहीं, कुछ लोग तो सिर्फ वो पूजा-पाठ में ही अटक गए...जिनवाणी जब तक हम लोग नहीं पढेंगे तब तक, कुछ नहीं पता चलने वाला, जिनवाणी मतलब जिनेन्द्र भगवान् की वाणी को पढना, ग्रन्थ पढना | कहते है जिसको धर्मं का सही मर्म समझ आजाये तो उसके जीवन में उसका प्रभाव ना झलके ऐसा संभव नहीं, कदाचित कर्म उदय से कुछ नियाम, त्याग आदि ना कर पाए वो अलग बात है |
इसमें अब अगर सिद्धांत की आँखों से देखे तो उन्होंने दीक्षा आत्म कल्याणक के लिए ही ली थी और मन में वैराग्य आदि भी था..लेकिन अब किसी पूर्व कृत कर्म उदय, वे अपना वैराग्य कायम नहीं रख पा रहे और साथ में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के निमित्त से उनका ऐसा योग बन गया की उनके द्वारा साधू के मूलगुण के सिद्धांतो के विपरीत चर्या उनके द्वारा हो जाती है, और ऐसा नहीं है की सिर्फ ये आगम के विपरीत चर्या इस पंचम काल में ही हुई हो, चोथे काल में भी आगम विपरीत चर्या जिसमे 28 मूलगुण में दोष लगे ऐसी चर्या हुई है और देखने में आया की उनमे से अधिकतर मुनिराज को जब अपने उस गलती का भान हुआ तो उनकी द्रष्टि ऐसी निर्मल हुई, उनके भाव ऐसे विशुद्ध हुए की एक एक क्षण में करोडो कर्मो को चूर चूर करते हुए, महान तपस्या की और सब कर्म को जला डाला...और आगामी भविष्य जो अन्धकार की और जाने वाला था तो संवर गया |
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शिथिलाचारी मुनि के साथ श्रावक का व्यवहार - चाo चo आo श्री शान्तिसागर जी मo से...
जिज्ञासा: यदि कोई शिथिलाचारी मुनि, जिनका आचरण आगम के विपरीत स्पष्ट देख रहा हो, अपने शहर में आजावे तो श्रावको को कैसा व्यवहार करना चाहिए?
समाधान: इसी प्रकार का प्रश्न चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ के तीर्थाटन अध्याय में प्र: 126 पर चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज से किया गया था वह यह है -
'शिथिलाचरण वाले साधु के प्रति समाज को या समझदार व्यक्ति को कैसा व्यवहार रखना चाहिए? महाराज ने कहा कि "ऐसे साधु को एकांत में समझाना चाहिए! उनका स्थितिकरण करना चाहिए!" पुनः प्रश्न - समझाने पर भी यदि उस मुनि कि प्रवृत्ति न बदले तब क्या कर्त्तव्य है? क्या समाचार पत्रों में उसके सम्बन्ध में समाचार छपाना चाहिए या नहीं? महाराज कि उत्तर "समझाने से भी काम न चले तो उनकी उपेक्षा करो, और उपने उपगूहन अंग का पालन करो! पत्रों के चर्चा चलने से धर्म कि हंसी होने के साथ साथ अन्य मार्गस्थ साधुओ के लिए भी अज्ञानी लोगो से बाधा उपस्थित कि जाती है "
गथार्थ: "नग्न मुद्रा के धारक मुनि तिलतुष मात्र भी परिग्रह अपने हाथो में ग्रहण नहीं करते! यदि थोडा बहुत ग्रहण करते है तो निगोद जाते है" - सूत्रपाहुड
गथार्थ: "जो पाप से मोहित बूढी मनुष्य, जिनेंद्र्देव का लिंग धारण कर पाप करते है वे पापी मोक्षमार्ग से पतित है!" - मोक्षपाहुड
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ठीक है हम कही पर भी publicly इन बातो का वर्णन नहीं करेंगे | लेकिन ऐसे हम ऑंखें बंद करके तो नहीं बैठ सकते??? अगर किसी के घर में suppose उनके पिता जी किसी गलत राह पर चल पड़े और जिसका अंजाम बहुत बुरा होने वाला हो तो क्या उसके घर वाले पुरे area में शोर मचा देंगे और अपने ही घर की बदनामी करेंगे? इससे तो वो और उनके पिता जी अपने ही घरवालो से द्वेष करने लगेंगे और परिस्थिति इतनी बिगड़ जाएगी की फिर उनके किसी भी तरह समझाना भी मुश्किल हो जायेगा, क्योकि अपने से बड़े पूज्य व्यक्तियों से अलग प्रकार से व्यवहार किया जाता है और छोटो से अलग प्रकार से, ठीक यहाँ हमें मुनिराज के लिए apply करना है, हम पुरे नगर में शोर तो नहीं मचा सकते ना, और ना ही उनकी द्वारा की जारही गलतियों पर पर्दा ड़ाल सकते | हमें बिलकुल भी ऐसी निंदनीय चर्या पर पर्दा तो नहीं डालना चाहिए, उसका पूरा चर्चा होना चाहिए, लेकिन सिर्फ समाज के विद्वान वर्ग द्वारा और श्रेष्टि वर्ग जो ज्ञान से श्रेष्ठ हो ऐसा व्यक्तियों द्वारा पूरा चर्चा होना चाहिए की ऐसा क्यों हुआ या क्यों हो रहा है जिसमे जिम्मेदारी किसी है और आगे ऐसा ना हो क्या किया जाए, जहा ऐसा हो रहा है वहा पर physically जाकर इस पर अपने विवेक से काम करना चाहिए | और कुछ ऐसा विवेक से जरुर करना चाहिए की भविष्य में ये निर्ग्रन्थ चर्या निर्दोष रूप से चलती रही, क्योकि मुनि दीक्षा आत्म कल्याण के लिए ली जाती है और धर्मं प्रभावना तो उसके माध्यम से हुआ करती है, सिर्फ धर्मं प्रभावना मुनि का मकसद नहीं |
इसके लिए हमें खुद जागरूक होना होगा और लोगो को जागरूक करना होगा जिनवाणी का पठन करे, ग्रन्थ पढ़े और जाने की जिनेन्द्र भगवान् क्या थे और क्या कहना चाहते है, शब्द अपने आप में कुछ नहीं, बल्कि उनके माध्यम से निकलने वाला सार ही सब कुछ होता है, जब हम कुछ सुनते है या पढ़ते है तो सिर्फ उस लिखने वाले या सुनने वाले की द्रष्टि से ही पढ़ते सुनते है लेकिन अगर जिनेन्द्र भगवान् ने क्या कहा ये जानना है तो उनकी वाणी का सार समझना होगा... लेकिन प्रॉब्लम है की ऐसे समय पर व्यक्ति अपना विवेक भूल जाता है कहते है कभी भी किसी भी बात पर प्रतिक्रिया एकदम से नहीं देना चाहिए, बड़ा सोच समझकर ही देना चाहिए और अगर एकदम से कुछ बोलना पड़े भी तो वो एक दम रचनात्मक होना चाहिए..यही मेरे जीवन का मन्त्र है... -NIpun Jain
Concerned with 'elder-trio' - Mr. Manish Modi [Reknowned Jaina Scholar, Mumbai], Mr. Shrish Jain [www.jinvaani.org foundation member, USA] and Brahmchari Kapil Jain [Now Muni SaumyaSagarJi] Article written by Nipun Jain:)
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❖ ये लो फिर जन्म दिवस आगया, हमारी यादो को याद दिला गया,
यारो अब तो जागो...क्योंकि...
जन्म दिन तो आते रहेंगे, हर वर्ष उम्र को घटाते रहेंगे,
पर जन्म उत्सव के चक्कर में, मनाने वाले बदल जायेंगे और
एक दिन बनने वाले निकल जायेंगे...
दोस्तों जन्म दिवस में भी अनेकांतवाद झलक आता है!
भविष्य की उमंग, भूत की चूक..याद दिलाता है...
अनेकान्तवाद झलक आता है! और एक इशारा कर सा जाता है....
हम कहा थे >> कहा खड़े है >> कहा खड़े होंगे
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❖ Ahimsa [Non-voilence] & Anekantavada [Manysideness] with Interdependence ❖ @ @
Ahimsa, the most important tenet in Jainism, explores the psychological intent to hurt and harm another and turns the focus inward from an actual act of violence to the intentionality of the act. Ahimsa is seen as the abjuring of violent and hurtful thoughts for another, possible only when we realise the relevance of ‘parasparopagraho jivanam’ - the concept of interdependence. All life is inextricably connected and ahimsa is nothing but expression and mindfulness of natural empathy for another.
Ahimsa, an ethical principle, is rooted in the Jaina metaphysics of anekantavada which details the many-sidedness or anekanta of reality; that no single point of view can be construed as being the whole truth. The story of the five blind men who gave their own perspective of the elephant is a good example of the way we tend to see one or two aspects of anything and perhaps jump to the conclusion that what we perceive to be is the whole truth, whereas it is not the only truth. There could be as many versions of the truth as there are those trying to comprehend it.
The philosophical concept of anekantavada is further elaborated upon in the abstruse logic of ‘saptabhanginaya’ - the doctrine of seven conditioned predications, wherein each statement is expressed from seven different relative points of view, and each view is prefixed by a "maybe" or "relatively" (syad), so perhaps a thing is real, and perhaps it isn't, in relative terms, and it could be both real and unreal. Similarly, something could be indescribable, maybe real but indescribable. This dialectic of the relativity of knowledge, popularly known as syadvad, rules out any categorical or absolutist pronouncement, and shows how each judgement can effectively be only relative and conditional. Syadvad dissects the empirical world psychologically, and in so doing, seeks to reveal the relativity of the mind itself.
This theory of dealing with partial truths is also the philosophical basis for ethical living with the principle of ahimsa, for it prepares the ground for acceptance and respect of opposing views. This would help introspection of one's own claims and enable respecting varied opinions.
Anekantavada is positioned midway between the Vedantic assertion of Brahmn as Absolute and the Buddhist postulation of 'change as permanent' and offers its own pragmatic blueprint for a more peaceful existence, where all views are accommodated out of the belief that all minds are relatively conditioned, and are actually interdependent. But this analysis of the empirical world is also ironically meant to be a call to the path of renunciation, after having understood the unreal and relative nature of things, and who, through right conduct, right faith and right reflection, has progressively detached himself from externalities and is now ready to follow and attain the ‘Mahavira state of mind’ - "where karmic matter has thinned out and the soul expands to be one with the cosmos’’.
Anekantavada is the cornerstone of Jaina thought, the metaphysics of which defines the Jaina ethical way of living with compassion through the five anuvratas laid down for the shraviks or laypersons. The five anuvratas are: ahimsa, satya, asteya or non-stealing, brahmacharya or celibacy and aparigraha or non-possession. It then provides, in rare cases, the trigger to pursue the Jaina ideal of renunciation - Kaivalya-Jnana - possible by living the ascetic life of a sramana. This was how Mahavira set out in search of the real nature of reality, to explore what lay beyond the contours of the conditioned mind.
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❖ Yesterday, I was driving, and the FM radio went off for few seconds. I thought, I should have an iPod. Then suddenly I realized that I have not used my iPod in last 6 months. And then, more things, Handy cam in last 2 years, Digital Camera in last 2 months, DVD player in last 1 month and many more. Now I can say that I bought that Handy cam just out of impulse, I have used it twice only in last 4 years.
So, what's wrong and where? When I look at myself or my friends I can see it everywhere. We are not happy with what we have but all are stressed and not happy for the things we don't have. You have a Santro, but you want City; You have a City, but you want Skoda. Just after buying a new phone, we need another one. Better laptop, bigger TV, faster car, bigger house, more money,.I mean, these examples are endless. The point is, does it actually worth? Do we ever think if we actually need those things before we want them?
After this, I was forced to think what I need and what I don't. May be I didn't need this Handy cam or the iPod or that DVD player. When I see my father back at home. He has a simple BPL colour TV, he doesn't need 32" Sony LCD wall mount. He has a cell phone worth Rs 2,500. Whenever I ask him to change the phone, he always says, "Its a phone, I need this just for calls."
And believe me; he is much happier in life than me with those limited resources and simple gadgets. The very basic reason why he is happy with so little is that he doesn't want things in life to make it luxurious, but he wants only those things which are making his life easier. It's a very fine line between these two, but after looking my father's life style closely, I got the point. He needs a cell phone but not the iPhone. He needs a TV but not the 32" plasma. He needs a car but not an expensive one.
Initially I had lot of questions.
I am earning good, still I am not happy,...why?
I have all luxuries, still I am stressed........... why?
I had a great weekend, still I am feeling tired...... why?
I met lot of people, I thought over it again and again, I still don't know if I got the answers, but certainly figured out few things. I realize that one thing which is keeping me stressed is the "stay connected" syndrome. I realized that, at home also I am logged in on messengers, checking mails, using social networks, and on the top of that, the windows mobile is not letting me disconnected. On the weekend itself, trying to avoid unwanted calls, and that is keeping my mind always full of stress. I realized that I am spending far lesser money than what I earn, even then I am always worried about money and more money. I realized that I am saving enough money I would ever need, whenever needed. Still I am stressed about job and salary and spends.
May be, many people will call this approach "not progressive attitude", but I want my life back. Ultimately it's a single life, a day gone is a day gone. I believe if I am not happy tonight, I'll never be happy tomorrow morning. I finally realized that meeting friends, spending quality time with your loved one's; spending time with yourself is the most important thing.
If on Sunday you are alone and you don't have anybody to talk with, then all that luxuries life, all that money is wasted. May be cutting down your requirements, re-calculating your future goal in the light of today's happiness is a worthwhile thing to do. May be selling off your Santro and buying Honda City on EMIs is not a good idea.
Conclusion:
Putting your happiness ahead of money is the choice we need to make. We need to revaluate the Value of happiness and time we are giving to our life and people associated with it.
Contribution By: Abhijeet VIPAT (Maitree Samooh)
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❖ जिन पूजा पद्धति -मुनि क्षमासागर ❖ read nd share Article!
जिन-अभिषेक और जिनपूजा, मंदिर की आध्यात्मिक प्रयोगशाला के दो जीवंत प्रयोग हैं। भगवान की भव्य प्रतिमा को निमित्त बनाकर उनके जलाभिषेक से स्वयं को परमपद में अभिषिक्त करना अभिषेक का प्रमुख उद्देश्य है। पूजा, जिन-अभिषेकपूर्वक ही संपन्न होती है, ऐसा हमारे पूर्वाचार्यों द्वारा श्रावक को उपदेश दिया गया है। पूजा के प्रारंभ में किन्हीं तीर्थंकर की प्रतिमा के सामने पीले चावलों द्वारा भगवान के स्वरूप को दृष्टि के समक्ष लाने का प्रयास करना आह्वानन है। उनके स्वरूप को हृदय में विराजमान करना स्थापना है, और हृदय में विराजे भगवान के स्वरूप के साथ एकाकर होना सन्निधिकरण है।
द्रव्य पूजा का अर्थ सिर्फ इतना नहीं है कि अष्ट द्रव्य अर्पित कर दिए और न ही भाव-पूजा का यह अर्थ है कि पुस्तक में लिखी पूजा को पढ़ लिया। पूजा तो गहरी आत्मीयता के क्षण हैं। वीतरागता से अनुराग और गहरी तल्लीनता के साथ श्रेष्ठ द्रव्यों को समर्पित करना एवं अपने अहंकार और ममत्व भाव को विसर्जित करते जाना ही सच्ची पूजा है।
साधुजन निष्परिग्रही हैं इसलिए उनके द्वारा की जाने वाली पूजा/भक्ति में द्रव्य का आलंबन नहीं होता लेकिन परिग्रही गृहस्थ के लिए परिग्रह के प्रति ममत्व-भाव के परित्याग के प्रतीक रूप श्रेष्ठ अष्ट द्रव्य का विसर्जन अनिवार्य है।
पूजा हमारी आंतरिक पवित्रता के लिए है। इसलिए पूजा के क्षणों में और पूजा के उपरांत सारे दिन पवित्रता बनी रहे, ऐसी कोशिश हमारी होनी चाहिए। पूजा और अभिषेक जिनत्व के अत्यंत सामीप्य का एक अवसर है। इसलिए निरंतर इंद्रिय और मन को जीतने का प्रयास करना और जिनत्व के समीप पहुँचना हमारा कर्तव्य है।
पूजा, भगवान की सेवा है जिसका लक्ष्य आत्म-प्राप्ति है; इसलिए आचार्य समंतभद्र स्वामी ने पूजा को वैयावृत्त में शामिल किया है।
पूजा अतिथि का स्वागत है, इसलिए आचार्य रविषेण स्वामी ने इसे अतिथि संविभाग के अंतर्गत रखा है।
पूजा, ध्यान भी है। तभी तो ‘भावसंग्रह’ में आचार्य ने इसे पदस्थ ध्यान में शामिल किया है।
पूजा आत्मान्वेषण की प्रक्रिया है। इसे स्वाध्याय भी कहा है। जिन-पूजा से लाभान्वित होने में हमें कसर नहीं रखनी चाहिए; पूरा लाभ लेने की भरसक कोशिश करनी चाहिए।
पूजा के आठ द्रव्य अहं के विसर्जन और हमारे आत्म-विकास की भावना के प्रतीक हैं। मानिए, ये अपनी तरफ आने के आठ कदम हैं।
भगवान के श्रीचरणों में जल अर्पित करके हमें जन्म-मरण से मुक्त होने की भावना रखनी चाहिए; जल को ज्ञान का प्रतीक माना गया है और अज्ञानता को जन्म-मरण का कारण माना है, इसलिए ज्ञानरूपी जल हमें जन्म-मरण से मुक्त कराने में सहायक बनता है।
साथ ही जल हमें यह संदेश देता है कि हम सभी के साथ घुलमिलकर जीना सीखें। जल की तरह, तरल और निर्मल होना भी सीखें।
चंदन अर्पित करते हुए हमें अपनी भावना रखनी चाहिए कि हमारा भव-आताप मिटे, चंदन शीतलता का प्रतीक है और भव-भव की तपन का कारण हमारी आत्मदर्शन से विमुखता है; इसलिए आत्मदर्शन में सहायक भगवान के दर्शन और उनकी वाणी-रूपी शीतल चंदन के द्वारा हम अपना भव आताप मिटाने का प्रयास करें।
चंदन हमें संदेश भी देता है कि हम उसकी तरह सभी के प्रति शीतलता और सौहार्द से भरकर जिएँ। सभी की पीड़ा को अपनी पीड़ा मानकर सभी को सहानुभूति दें।
अक्षत का अर्पण हम अखंड अविनाशी सुख पाने की भावना से करें। चावल या अक्षत की अखंडता और उज्ज्वलता हमारे जीवन में अविनश्वर और उज्ज्वल सुख का अहसास कराए।
हम कर्मजनित, दुःखमिति और नश्वर सांसारिक सुख पाकर गाफिल न हों। समत्व रखें। जीवन और जगत को उसकी समग्रता में देखें और जिएँ। यही संदेश हम चावल-अक्षत से लें।
पुष्प अर्पित करते समय हमें काम-वासना से मुक्त होने की भावना रखनी चाहिए। असल में, पुष्प को काम-वासना का प्रतीक माना गया है। उसे काम-शर भी कहा गया है। वह हमें मोहित करता है; इसलिए काम, क्रोध और मोह पर विजय पाने वाले आप्तकाम भगवान जिनेंद्र के श्रीचरणों में पुष्प चढ़ाना स्वयं को मोह-मुक्त करने का प्रयास है।
पुष्प हमें यह संदेश भी देता है कि उसका जीवन दो दिन का है, फिर उसे मुरझा जाना है, टूटकर गिर जाना है। हमारा जीवन भी दो दिन का ही है। फिर यह देह टूटकर गिर जाएगी। यदि दो दिन के जीवन को शरीरगत क्षणिक काम-वासनाओं में गँवा देंगे तो मुरझाने और टूटकर गिरने के सिवाय हमारे हाथ में कुछ नहीं आएगा। इसलिए समय रहते स्पर्श, रस, गंध और रंग की सभी वासनाओं से मुक्त होने का प्रयास करें। स्वभाव में रहने की कोशिश करें।
नैवेद्य अर्पित करते हुए हमें यह भावना रखनी चाहिए कि हमारी भव-भव की भूख मिट जाए। जीवन के लिए अन्न आवश्यक है। अन्न को लोक व्यवहार में प्राणी माना गया है। वह अन्न/नैवेद्य क्षण भर के लिए भूख मिटाता भी है, पर कोई शाश्वत समाधान नहीं मिल पाता। तृष्णा की पूर्ति भी संभव नहीं है; इसलिए यह नैवेद्य भगवान के चरणों में अर्पित करके उनकी भक्ति से हम अपनी भव-भव की भूख मिटाने का भाव प्रकट करता है।
नैवेद्य से यह संदेश भी हम लें कि खाद्य पदार्थों के प्रति आसक्ति कम करना और उसे योग्य पात्र को दे देना ही श्रेयस्कर है। हम अपने पास-पड़ोस में आहार के अभाव में पीड़ित सभी प्राणियों को करुणापूर्वक समय-समय पर आहार सामग्री देते रहें।
दीप अर्पित करते समय हमारी भावना मोह के सघन अंधकार से निकलकर आत्म-प्रकाश में पहुँचने की हो। दीप प्रतीक है, प्रकाश का। वह बाह्य स्थूल पदार्थों को प्रकाशित करता है। इसे हम अपने आंतरिक सूक्ष्म जगत को पाने के लिए माध्यम बनाएँ। कैवल्य ज्योति पाने का प्रयास करें।
दीप-स्व पर प्रकाशक है। हम उससे स्वयं को स्व पर प्रकाशी बनाने का संदेश लें। जहाँ भी रहें वहाँ रोशनी बिखेरें। हमारे इस शरीर रूपी माटी के दीये में प्राणी मात्र के प्रति स्नेह कभी कम न हो और भगवान के नाम की लौ निरंतर जलती रहे। हम एक ऐसे अद्वितीय दीप को पाने की भावना रखें जो बिना बाती, तेल और धुएँ के सारे जगत् को प्रकाशित करता है, जिसे प्रलय की पवन भी बुझा नहीं पाती।
धूप अर्पित करते हुए हमारी भावना अपने समस्त कर्मों को नष्ट करने की हो। जैसे अग्नि में धूप जलकर नष्ट होती जाती है और हवाओं में खुशबू भरती जाती है ऐसे ही तप और अग्नि में हमारे सारे कर्म जलते जाएँ और आत्म-सुरभि सब ओर फैलती जाए।
जलती हुई धूप से हम एक संदेश और लें कि धूप की सुगंध जैसे अमीर-गरीब या छोटे-बड़े का भेद नहीं करती और सभी के पास समान भाव में पहुँचती है। ऐसे ही हम भी अपने जीवन में भेदभाव छोड़कर सर्वप्रेम और सर्वमैत्री की सुगंध फैलाते रहें।
फल अर्पित करें इस भावना से कि हमें मोक्षफल प्राप्त हो। हमें जानना चाहिए कि संसार में सिवाय कर्म-फल भोगने के हम कुछ और नहीं कर पा रहे हैं। यह हमारी कमजोरी है। अपने अनंतबल को हम प्रकट करें और मोक्षफल पाएँ। माना कि मोक्षफल पाए बिना जीवन निष्फल है।
साथ ही फल चढ़ाकर एक संदेश और हम लें कि सांसारिक फल की आकांक्षा व्यर्थ है, क्योंकि वह कर्माति है। यदि हमने अच्छा काम किया है तो अच्छा फल हमारे चाहे बिना ही मिलेगा और बुरा काम किया है तो चाहकर भी अच्छा फल नहीं मिलेगा। तब हम जो करें अच्छा ही करें और अनासक्त भाव से कर्तव्य मान कर करें। कर्तव्य के अहंकार से मुक्त रहें।
अष्ट द्रव्यों की समाष्टि ही अर्घ्य है। अर्घ्य का अर्थ मूल्यवान भी होता है। तब अर्घ्य अर्पित करके हमारी भावना अनर्घ्य यानी अमूल्य को पाने की रहे। आत्मोपलब्धि ही अमूल्य है वही हमारा प्राप्तव्य है। उसे ही पाने के लिए हमारे सारे प्रयास हों।
अर्घ्य से यह संदेश भी हमें ले लेना चाहिए कि यहाँ जिन चीजों को हमने मूल्य दिया है, मूल्यवान माना है, वास्तव में वे सभी शाश्वत और मूल्यवान नहीं हैं। सब कुछ पा लेने के बाद भी जिसे बिन पाए सब व्यर्थ हो जाता है और जिसे एक बार पा लेने के बाद कुछ और पाना शेष नहीं रह जाता, ऐसी अमूल्य निधि हमारी परमात्मदशा ही है। हमारा विनम्र प्रयास स्वयं को भगवान के चरणों में समर्पित करके अविनश्वर परमात्म पद पाने का होना चाहिए।
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Update
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❖ From a Jain perspective, the fundamental truth of Jainism can’t have a founder, strictly speaking, because it is the eternal and essential nature of existence. Tirthankara can be likened to scientists who discover something about the universe and then teach the knowledge they has discovered to others. As the objective truth of the universe, Jainism really has no “history” as such. When we speak of the history of Jainism we are, from a Jain point of view, speaking of the history of this truth as taught by Mahavira and his followers - as well as his predecessors throughout cosmic time. The history of Jainism, in this sense, is the history of the universe.
As Paul Dundas explains:
“Mahavira is merely one of a chain of teachers who all communicate the same truths in broadly similar ways and his biography, rather than being discrete, has to be treated as part of the larger totality of the Universal History and as meshing, through the continuing dynamic o rebirth, with the lives of other participants with it.”
- Source: Jainism - An Introduction by Jeffery D Long, New York,
The strict asceticism of Jain monks and nuns is closely connected with the ethical ideal of Ahimsa, which is generally translated as nonviolence, but which is actually much more radical than the English word "Non-Violence" might suggest. It is not simply a matter of refraining from actual, physical harm. Ahimsa is the absence of even a desire to do harm to any living being, in though, word, or deed. Actually "Interdependence" "Live and let live" "Karma theory" "Detachment" all are seems relevantly connected.
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News in Hindi
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#Sanlekhna #Samadhi ❖ ….. मैं भी राम होना चाहता हूँ और अपने में रम जाना चाहता हूँ.... ❖ @ Jainism -the Philosophy!! read intense feeling.. I want to be in this line... the follower of Jina... the Alive replica of Jainism.;):)
एक भव्य आत्मा जिसकी म्रत्यु का समय जल्दी ही आने वाला है और वो अपनी म्रत्यु को इस बार महोत्सव के रूप मानना चाहता है, मतलब की इस बार वीरो की तरह शांति के साथ मरना चाहता है! वैसे जब किसी की मृत्यु होने वाली होती है तो कुछ ज्यादा करना तो असंभव होता है लेकिन अगर अन्दर कुछ प्रवृति [मन की स्थिति] को संभाल लिया जाये तो मृत्यु निश्चित रूप से महोत्सव होगा! आओ मृत्यु को महोत्सव के रूप मनाने वाले के अन्तिम समय के भावो की यात्रा पर चले...
हे प्रभु मुझे समाधि प्रदान करें....हे नाथो के नाथ मुझे शांति प्रदान करे....अब मैं जान गया हूँ ये शरीर मेरा नहीं है...शरीर अलग है और आत्मा अलग है...भगवान् मेरा विश्वास पक्का हो गया है की मैं आत्मा हूँ शरीर नहीं...बस ये मेरा विश्वास अटल बना रहे...हे स्वामी ये शरीर मेरा नहीं है तो मैं क्यों डरु, इस शरीर के छुटने का? हा शरीर छुटने पर बैचैनी, दर्द तो होगा...लेकिन उसको मैं सहन करूँगा और शांति भाव के सहन करूँगा, अपना मन आपके गुणों में लगाऊंगा...भगवान् अनंत कल व्यतीत होगया...इस शरीर और आत्मा के बंधन होने के कारण..नरक के दुखो, निगोद के दुखो, जानवरों के दुःख, आदि दुःख को देख कर मेरी आत्मा कांप जाती है तो जिस समय मेरी आत्मा ने सहन किया होगा तब क्या हुआ होगा...हे वीर जिनेश्वर...मैं भी राम होना चाहता हूँ और अपने में रम जाना चाहता हूँ....जो पुरुष आत्मा के ज्ञानी होते है वे शांति भाव से मृत्यु का सामना करते है मृत्यु के समय डरते नहीं..क्योकि इस तरह की मृत्यु जरुर ही स्वर्ग सुखो को प्राप्त कराने वाली है...और भविष्य में मोक्ष की और ले जाने वाली है...भगवन मेरे मन में स्वर्ग के सुखो की भी किंचित इक्छा नहीं...ओह स्वर्ग के सुख भी एक दिन ख़त्म हो जाते है...लेकिन मैं जानता हूँ समाधि मरण से मेरा भविष्य निश्चय ही उज्वल होगा... भगवन उस आदर्श मरण को यदि मैं एक बार प्राप्त हो सकू तो मेरा मोक्ष का द्वार खुल सकता है... हे मृत्यु पर विजय प्राप्त करने वाले देव मुझे छहढाला की पंक्तिया याद आरही है...मैं शरीर की उत्पत्ति के साथ अपनी उत्पत्ति और शरीर के मरण के साथ अपना मरण मानता आरहा हूँ...
तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान!
रागादि प्रकट जे दुःख दैन, तिन ही को सेवत गिनत चैन!!
यहाँ तक की इस मनुष्य गति में भी सुख नहीं...जब से यह शरीर मिला तब से भूख, प्यास, रोग अनेक परेशानियां मिली.....बल्कि मुझे बोलना चाहिए मैं ये शरीर नहीं हूँ, मैं तो आत्मा हूँ..मेरा स्वभाव, जानना, देखना है..और उर्धगमन मेरा स्वभाव है...जो धर्मं का स्वरुप नहीं जानते...जो संसार के विषय भोगो में आसक्त है जो आत्मा तत्व पर विश्वास नहीं करते....जो आत्मा को नहीं जानते...वही लोग को मृत्यु से भय लगता है; किन्तु जो संसार से वैरागी हैं उन्हें मरण आनन्द ही देता है। "शरीर का स्वभाव गलना, मिटना, बनना है...तो जब ये शरीर पुराना होगया तो इसके अंगो ने काम करना अब धीरे धीरे बंद कर रहे है तो इसमें आश्चर्य क्या? और मैं इस शरीर में हूँ इसलिए ही जो शरीर धीरे धीरे मिट रहा है तो दर्द, रोग आदि का अनुभव हो रहा है" वैसे भी मरण के समय जो पुराने कर्मो के उदय से रोग आदि से दुख पैदा होता है, वह सत्पुरूषो को देह से ममता छुङाने के लिये तथा निर्वाण का सुख प्राप्त कराने के लिये होता है। मरण समय मिथ्याद्रष्टि जीवो को, भयभीत जीवो को दुःख देती है वो सोच कर ही डर जाते है लेकिन वही मृत्यु सम्यकज्ञानी जीवो को अमृत देती है। उन जीवो को अपने भव कम करने का स्वर्णिम अवसर देती है...ऐसी मृत्यु को वंदन है!!
कितना आश्चर्य है... सत्पुरूष जिस फ़ल को अनेक व्रतो को पालन करने से पाते हैं, वह मृत्यु के अवसर में थोङे समय में शुभध्यान पूर्वक सूख से साधन करने से प्राप्त हो जाता है। सबसे बड़ा आश्चर्य जो मृत्यु एक दिन आनी ही है..फिर भी उससे ही डरना...मैं तो एक बार जिनेन्द्र देव पर विश्वास करू...उनके पथ पर चलू..क्योकि..जो मरण करते हुये दुखी नहीं होता, वह नारकी/तीर्यंच नहीं होता। जो धर्मध्यान सहित अनशन इत्यादि तप करते हुये मरता है, वह स्वर्ग में सुखो का स्वामी होता है...और सबसे बड़ी बात..वो नन्दीश्वर आदि द्वीपों पर जाता है..साक्षात तीर्थंकर के दर्शन करता है, उनकी दिव्या ध्वनि सुनता है...तीर्थंकरो के पञ्च कल्याणक में जाता है...क्या बात है..धर्म ध्यान करता है..फिर तप करने का, जिनवाणी पढ्ने का फ़ल तो आत्मा की सावधानी के साथ मरण करना ही है। लोग कहते हैं जिस चीज जो बहुत सेवन कर लिया उससे रूचि हट जाती है, तो फ़िर अब शरीर का बहुत सेवन कर लिया अब इसके नाश पर क्यों डर रहे हो..ये निश्चय से मेरा अनादी कल का संस्कार है जो मुझे विचलित करना चाहता है..लेकिन अबकी बार तो मैं अपने विचार पर दृढ हूँ...इस प्रकार जो 4 आराधना के साथ मरण करता है वह पक्का स्वर्ग में जाता है। फ़िर वहां सुख भोगकर मनुष्य बनता है। वहां खूब सुख भोगकर, मुनि बनकर सब लोगो को आनन्द देता हुआ शरीर छोङकर निर्वाण को प्राप्त करता है। हे स्वामी मैं तो उस परम पवित्र मुनि मुद्रा का चिंतन करने मात्र से ही हर्षित हो रहा हूँ..तो जो उस रूप को प्राप्त होते है..वे निश्चय ही बड़े भाग्य वाले...होते होंगे...
ये भावो की अंतर स्थिति को "मृत्यु महोत्सव" ग्रन्थ के आधार पर लिखा गया है! "मृत्यु महोत्सव" ग्रन्थ का चिंतन करके उसके सूत्र www.jinvaani.org team द्वारा बनाए गए...और फिर उसको मैंने भावो की यात्रा के रूप में बनाया –Nipun Jain, thank You:)
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