14.11.2015 ►Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt ►News

Published: 14.11.2015
Updated: 05.01.2017

Update

Source: © Facebook

❖ पंथ नहीं पथ चुने....मोक्ष मार्ग मिल जाये! मोक्ष-मार्गी होने से, मंजिल खुद मिल जाये!!

सोचता हूँ कभी कभी आजकल-कतिपय साधु,
पंथवाद की पतंगे उड़ा रहे है!
काटने एक दुसरे के पतंग पेच भी लड़ा रहे है!
श्रावक के हाथ पकड़ा डोर-गिर्रा निरंतर ढील बढ़ा रहे है!
तो कुछ श्रावक, दूर से ही पंथवाद की पतंगे,
और पेंचो की उमंगें देख ताली बजा-बजा,
पन्थग्राही साधुओ का उत्साह बढ़ा रहे है!
-------- आचार्य श्री विमर्शसागर जी महाराज

--- ♫ www.jinvaani.org @ Jainism' e-Storehouse ---

Update

Source: © Facebook

❖ आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज -आचार्य कुंदकुंद के रहते हुए भी आचार्य समंतभद्र का महत्व एवं लोकोपकार किसी प्रकार कम नहीं है। हमारे लिये आचार्य कुंदकुंद पिता तुल्य हैं और आचार्य समंतभद्र करुणामयी मां के समान हैं। वहीं समंतभद्र आचार्य कहते हैं कि ‘देशयमी समीचीन धर्मम् कर्मनिवर्हणम्, संसार दुखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्त्मे सुखे’। अर्थात मैं समीचीन धर्म का उपदेश करुंगा। यह समीचीन धर्म कैसा है? ‘कर्मनिवर्हनम्’ अर्थात कर्मों का निर्मूलन करने वाला है और ‘सत्त्वान’ प्राणियों को संसार के दुःखों से उबार कर उत्तम सुख में पहुँचाने वाला है।

आचार्य श्री ने यहाँ ‘सत्त्वान’ कहा, अकेला ‘जैनान’ नहीं कहा। इससे सिद्ध होता है कि धर्म किसी सम्प्रदाय विशेष से संबन्धित नहीं है। धर्म निर्बन्ध है, निस्सीम है, सूर्य के प्रकाश की तरह। सूर्य के प्रकाश को हम बंधन युक्त कर लेते हैं दीवारें खींच कर, दरवाजे बना कर, खिडकियाँ लगाकर। इसी तरह आज धर्म के चारों ओर भी सम्प्रदायों की दीवारें/सीमाएं खींच दी गयी हैं।

गंगा नदी हिमालय से प्रारम्भ हो कर निर्बाध गति से समुद्र की ओर प्रवाहित होती है। उसके जल में अगणित प्राणी किलोलें करते हैं, उसके जल से आचमन करते हैं, उसमें स्नान करते हैं, उसका जल पी कर जीवन रक्षा करते हैं, अपने पेड-पौधों को पानी देते हैं, खेतों को हरियाली से सजा लेते हैं। इस प्रकार गंगा नदी किसी एक प्राणी, जाति अथवा सम्प्रदाय की नहीं है, वह सभी की है। यदि कोई उसे अपना बताये तो गंगा का इसमें क्या दोष? ऐसे ही भगवान ऋषभदेव अथवा भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित धर्म पर किसी जाति विशेष का आधिपत्य संभव नहीं है। यदि कोई आधिपत्य रखता है तो यह उसकी अज्ञानता है।

धर्म और धर्म को प्रतिपादित करने वाले महापुरुष सम्पूर्ण लोक की अक्षय निधि हैं। महावीर भगवान की सभा में क्या केवल जैन ही बैठते थे? नहीं, उनकी धर्म सभा में देव, देवी, मनुष्य, स्त्रियाँ, पशु-पक्षी सभी को स्थान मिला हुआ था। अतः धर्म किसी परिधि से बन्धा हुआ नहीं है। उसका क्षेत्र प्राणी मात्र तक विस्तृत है।

आचार्य महाराज अगले श्लोक में धर्म की परिभाषा का विवेचन करते हैं। वे लिखते हैं को ‘सद्दृष्टि ज्ञान वृत्तानि धर्मं, धर्मेश्वरा विदुः। यदीयप्रत्यनीकानि भवंति भवपद्धति’॥ अर्थात (धर्मेश्वरा) गणधर परमेष्ठि (सद्दृष्टि ज्ञानवृत्तानि) समीचीन दृष्टि, ज्ञान और सद्आचरण के समंवित रूप को धर्म कहते हैं। इसके विपरीत अर्थात मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचरित्र संसार-पद्धति को बढाने वाले हैं।

सम्यग्दर्शन अकेला मोक्ष मार्ग नहीं है, किंतु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चरित्र का समंवित रूप ही मोक्षमार्ग है। वही धर्म है। औषधि पर आस्था, औषधि का ज्ञान और औषधि को पीने से ही रोग मुक्ति सम्भव है। इतना अवश्य है कि जैनाचार्यों ने सद्दृष्टि पर सर्वाधिक बल दिया है। यदि दृष्टि में विकार है तो निर्दिष्ट लक्ष्य को प्राप्त करना असम्भव ही है।

मोटर कार चाहे कितनी अच्छी हो, वह आज ही फैक्ट्री से बन कर बाहर क्यों ना आयी हो, किंतु उसका चालक मदहोश है तो वह गंतव्य तक नहीं पहुँच पायेगा। वह कार को कहीं भी टकरा कर चकनाचूर कर देगा। चालक का होश ठीक होना अनिवार्य है, तभी मंजिल तक पहुँचा जा सकता है। इसी प्रकार मोक्षमार्ग का पथिक जब तक होश में नहीं है, जबतक उसकी मोह की नींद का उपशमन नहीं हुआ तबतक लक्ष्य की सिद्धि अर्थात मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती।

मिथ्यात्व रूपी विकार, दृष्टि से निकालना चाहिये तभी दृष्टि समीचीन बनेगी और तभी ज्ञान भी सुज्ञान बन पायेगा। फिर रागद्वेष की निवृति के लिये चारित्र-मोहनीय कर्म के उपशमन से आचरण भी परिवर्तित करना होगा, तब मोक्षमार्ग की यात्रा निर्बाध पूरी होगी।

ज्ञान-रहित आचरण लाभदायक न होकर हानिकारक सिद्ध होता है। रोगी की परिचर्या करने वाला यदि यह नहीं जानता कि रोगी को औषधि का सेवन कैसे कराया जाए तो रोगी का जीवन ही समाप्त हो जायेगा। अतः समीचीन दृष्टि, समीचीन ज्ञान और समीचीन आचरण का समंवित रूप ही धर्म है। यही मोक्ष मार्ग है।

--- ♫ www.jinvaani.org @ Jainism' e-Storehouse ---

News in Hindi

Source: © Facebook

❖ मध्यलोक के बीचों बीच जम्बुद्वीप है, उस जम्बूद्वीप के बीचों बीच सुमेरु पर्वत है और सुमेरु पर्वत के पूर्व और पश्चिम में दोनों तरफ विदेह क्षेत्र हैं, जहाँ से मुनिराज देह का त्याग कर "विदेह" [मुक्त] हो जाते हैं, वहां हमेशा चौथा काल रहता है और वहा के मनुष्यों की लम्बाई 500 धनुष [1 धनुष = 6 फुट *500x6 = 3000 फुट ] होती है, वहा पर हमेशा ही 20 तीर्थंकर विराजमान रहते है और यही एक जीव जब उनका तीर्थंकर काल पूर्ण हो जाता है तो उनका स्थान कोई दूसरा जीव लेलेता है, इस तरह वहा पर हमेशा 20 तीर्थंकर विराजमान रहते है, जैसे सीमंधर स्वामी...यहाँ पर नाम गुणों की अपेक्षा से लेना है, क्योकि जैन धर्मं व्यक्तिवादी नहीं गुणों का उपासक है, 'महावीर' 'महावीर' क्यों कहलाये...उन आत्मीयगुणों के कारण ही...हर विदेह क्षेत्र मे एक मेरु पर्वत है और 5 विदेह क्षेत्र होते है और1 विदेह्क्षेत्र मे minimum 4 तीर्थंकर सदा काल प्राप्त होते है इसलिए 5*4=20 तीर्थंकर हमेशा होते है!

--- ♫ www.jinvaani.org @ Jainism' e-Storehouse ---

Source: © Facebook

❖ मध्यलोक के बीचों बीच जम्बुद्वीप है, उस जम्बूद्वीप के बीचों बीच सुमेरु पर्वत है और सुमेरु पर्वत के पूर्व और पश्चिम में दोनों तरफ विदेह क्षेत्र हैं, जहाँ से मुनिराज देह का त्याग कर "विदेह" [मुक्त] हो जाते हैं, वहां हमेशा चौथा काल रहता है और वहा के मनुष्यों की लम्बाई 500 धनुष [1 धनुष = 6 फुट *500x6 = 3000 फुट ] होती है, वहा पर हमेशा ही 20 तीर्थंकर विराजमान रहते है और यही एक जीव जब उनका तीर्थंकर काल पूर्ण हो जाता है तो उनका स्थान कोई दूसरा जीव लेलेता है, इस तरह वहा पर हमेशा 20 तीर्थंकर विराजमान रहते है, जैसे सीमंधर स्वामी...यहाँ पर नाम गुणों की अपेक्षा से लेना है, क्योकि जैन धर्मं व्यक्तिवादी नहीं गुणों का उपासक है, 'महावीर' 'महावीर' क्यों कहलाये...उन आत्मीयगुणों के कारण ही...हर विदेह क्षेत्र मे एक मेरु पर्वत है और 5 विदेह क्षेत्र होते है और1 विदेह्क्षेत्र मे minimum 4 तीर्थंकर सदा काल प्राप्त होते है इसलिए 5*4=20 तीर्थंकर हमेशा होते है!

--- ♫ www.jinvaani.org @ Jainism' e-Storehouse ---

Source: © Facebook

❖ इतनी शक्ति हमें देना जिनवर...कर्म बंधन को हम भी तोड़े...
हम चले मोक्ष मार्ग पर हमसे...भूल कर भी कोई भूल हो ना!

दूर अज्ञान के हो अँधेरे...जिनवाणी का श्रवण करे हम...
हर बुरे से बचते रहे हम, राग द्वेष तो त्यागे हम..
बैर होना किसी का किसी से, भावना मन में बदले की होना...
हम चले मोक्ष मार्ग पर हमसे...भूल कर भी कोंई भूल हो ना!

--- ♫ www.jinvaani.org @ Jainism' e-Storehouse ---

Sources
Share this page on:
Page glossary
Some texts contain  footnotes  and  glossary  entries. To distinguish between them, the links have different colors.
  1. JinVaani
  2. आचार्य
  3. ज्ञान
  4. तीर्थंकर
  5. धर्मं
  6. महावीर
  7. मुक्ति
  8. सम्यग्ज्ञान
  9. सम्यग्दर्शन
Page statistics
This page has been viewed 816 times.
© 1997-2024 HereNow4U, Version 4.56
Home
About
Contact us
Disclaimer
Social Networking

HN4U Deutsche Version
Today's Counter: