16.11.2015 ►Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt ►News

Published: 16.11.2015
Updated: 05.01.2017

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❖ "उत्तम सत्य"--- जिसका मन जितना सच्चा होगा उसका जीवन उतना ही सच्चा होगा. और जीवन उन्ही का सच्चा बनता है, वह ही सच के पास जाते हैं जो कषायों से मुक्त होकर आत्मस्थ हो जाते हैं.सत्य को पाना, सच्चा होना, सच बोलना - यह तीनों ही चीज़ें हमें अपने जीवन में सीख लेनी चाहिए.
सच को पाने का सीधा सा अर्थ है की हम आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लें. इस संसार में सच्चाई इतनी ही है की हम शुद्धता का अनुभव करें. हम अपनी निर्मलता का अनुभव करें और उसमें लीन हो जाएँ, आत्मस्थ हो जाएँ - येही सच को पाना है. निर्विकार हो जाना ही सत्य को पाना है.चारों कषायों के अभाव में हम जो अपनी आत्मा की शुद्ध अवस्था को प्राप्त करते हैं वास्तव में वही सच्चाई है. लेकिन इस सच को पाने के लिए सच का आचरण करना पड़ेगा, भीतर से सच्चा होना पड़ेगा.यदि हम इतना पुरुषार्थ कर लें तो धीरे-धीरे हमारे जीवन में खूब ऊंचाई, खूब अच्छाई आ जायेगी.

सत्य को प्राप्त करने के मायने यहीं हैं की हमारा जीवन अत्यंत शांत और राग- द्वेष से रहित हो जाए.जब भी हम किसी की सच्चाई का सम्मान नहीं करते तोह मानियेगा हम उस व्यक्ति को झूठा होने के लिए प्रेरित करते हैं. यदि हम सच्चाई का सम्मान करना शुरू कर दें तो कोई व्यक्ति झूट क्यूँ बोलेगा?

जिसका जीवन सच्चा हो जाता है, उसके द्वारा बोला गया हर शब्द सत्य होता है. क्यूंकि सच्चा व्यक्ति कभी दूसरो को क्षती नहीं पहुंचता.यदि झूठा व्यक्ति सच भी बोलेगा तो दुसरे को क्षती पहुंचाने के लिए ही बोलेगा.इसलिए बहुत ज़रूरी है पहले सच्चा होना और फिर सच बोलना.
आचार्यों ने स्पष्ट करने के लिए लिखा है - "सत्यम वद प्रियंवद ". सच बोले, प्रिय बोले. अप्रिय और असत्य तो बोलो ही मत. यदि झूट भी प्रिय हो तो मत बोलो और सच भी अप्रिय हो तो मत बोलो. इस प्रकार हम संभलके सोच-समझके अपने वचनों का प्रयोग करें तो अपने जीवन को उंचा उठा सकते हैं.
गुरुवर क्षमासागरजी महाराज की जय!

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❖ Question: Jains believe in not killing anyone. a) Suppose you are in a desert and dying of hunger and there you see a dead animal, can you eat that meat to survive? b) You go to a grocery store and are passing by meat section. You know that meat is already there. If you don’t buy it, someone else will buy and eat or it will decay. What's wrong in buying readily available meat, when you yourself haven't killed?.

Answer: a) Dead bodies of animals contain lot of living organisms and that keeps on multiplying as time passes. Most organisms have the same color as of the meat. Therefore, eating meat of naturally dead animal does involve a high level of violence. Secondly, there is the risk of dying by eating the dead animal because it may contain deadly decease or our digestive system may not adjust to that meat-eating. It is of course hard to court death in absence of innocent food. There are, however, examples of Jain monks who died due to severe draught rather than eating meat or even drinking sentient water. As Jains believe that there is life after death, we should not worry about dying. One may argue that the human life is very difficult to attain. This is true. But the act of bad Karma (päp) like eating meat may lead to hell in the next life. Meat eating only when there is no other alternative is not acceptable to Jainism. If we practice the minor vows for house-holders, then we will not be traveling to an unknown area. We will be limiting our travels to the familiar areas. We will also be limiting our activities to the essential needs. By resorting to such precepts, one can avert such hypothetical situation. Jainism is more about prevention of wrong situations.
b) This is fallacious since purchasing creates demand and encourages others to kill. Thus it is equivalent to oneself committing the deed. The 'neat' packaging of meat hides the pain that occurred before. It is unfortunate that packaging keeps scenes of slaughterhouses off the minds of the consumers. Mahavir Bhagwan said, "It is Himsä (violence) - whether a man kills living beings himsellf/herself, or causes others to kill them, or gives consent to others to kill.”

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#BinaBarah #AcharyaVidyaSagarJi #PinchiParivartan #YesterdayPravachan #ExclusivePic ❖ संसार रूपी महासागर को पार पाना बगैर गुरू के असंभव: ❖ आचार्य श्री बीना बारहा में पिच्छिका परिवर्तन समारोह ❖:) (y)

बीना बारहा में विराजमान संत शिरोमणि जैनाचार्य विद्यासागर जी महाराज के ससंघ सानिध्य में पिच्छिका परिवर्तन समारोह रविवार को संपन्न हुआ। आचार्य श्री को नवीन पिच्छिका देने और पुरानी पिच्छिका लेने का सौभाग्य महाराजपुर निवासी श्रीमती ममता महेन्द्र सोधिया के परिजनों को प्राप्त हुआ। आचार्य श्री के संघस्थ मुनि महाराजों को भी नवीन पिच्छिका दी गई और पुरानी पिच्छिका श्रद्धालुओ द्वारा ली गई।

धर्म सभा को संबोधित करते हुए आचार्य श्री ने कहा कि संसार रूपी महासागर को पार पाना है तो बिना गुरू के संभव नहीं है। ऐंसे गुरूवर दुनिया से पार होने के लिये एक सेतु का काम करते हैं। सेतु नदी के ऊपर बनते हैं और नदी नीचे कलकल करती बहती रहती है। इसी तरह एक नाव भी गहरे पानी में से नाविक नदी के उसपार लगा देता है। संसार रूपी समुद्र को पार करने के लिये गुरू शिष्य हमेशा साथ साथ चलते हैं। जैंसे कोई साईकिल सवार जाता है और विपरीत दिशा से काफी तेज हवा चलती है तो विपरीत दिशा में जाना काफी दुष्कर होता है। लेकिन गुरूदेव मंद मंद हवा पीछे से चला देते हैं और विपरीत दिशा में जाना सरल हो जाता है। जहां गुरू होते हैं, वहां मुहूर्त की आवश्यकता नहीं होती। वहां मुहूर्त ही मुहूर्त होते हैं और वास्तु भी अपने आप सुधर जाते हैं। अनंत काल से पाप मय जीवन जिया जा रहा है। आत्मा को साफ सुथरा रखने के लिये गुरू ज्यादा सोचते हैं, लेकिन शिष्य कम सोचते हैं। शिष्य सोचता है कि यह कठिन है, परंतु गुरू एक ऐंसा व्यक्तित्व है गुरू हमेशा बडे और खडे रहते हैं। गुरू नाम तो है लेकिन वह भारी नहीं होता। कान में बहुत प्वाईंट होते हैं। कान खींचने से बुद्धि का विकास होता है और कान जोर से खींचने पर यदि पसीना आ जाए तो बुखार उतर जाता है। गुरू हल्के होते हैं भारी नहीं। जैंसे दस-बीस किलो दूध में थोडा सा घी डाल दो तो वह घी बजाय नीचे जाने के, उपर तैरने लगता है। गुरू किसी को दबाते नहीं है। गुरू की महिमा अपरंपार है। वे अपने को गुरू नहीं मानते हैं, बल्कि अपने गुरू को ही गुरू मानते हैं और जो गुरू को याद रखे वही गुरू होता है। बीना बारहा में एक दशक में चैथी बार पिच्छिका परिवर्तन का अवसर आया है। यहां आने के लिये दसों प्रकार के रास्ते और पगडंडिया है। इस क्षेत्र का अतिशय है कि यहां आने में भी देर नहीं लगती और जाने में भी देर नहीं लगती। जिसको समय का पता नहीं लगता है वह ध्यान में लगा रहता है। आकुलता, अज्ञानता मन के कारण हुआ करती है। संयम की परंपरा गुरू के माध्यम से उपलब्ध है। अनंत को जानने की क्षमता केवल ध्यान में होती है। आंखे बंद करने से आत्मा लधुत्व और गुरूत्व से उपर उठी रहती है। उपदेश देना छोडने के उपरांत ही मुक्ति मिलना संभव है। प्रभु व गुरू की बात से साधुओं को साधुत्व की अपेक्षा से मुक्ति मिलती है। जो आत्मा की साधना करते है, उन्हें प्रभुत्व का लाभ हो जाता है। तीर्थंकर कभी एक दूसरे के साथ नहीं रहते और तीर्थंकरों को कभी पिच्छी और कमंडल की आवश्यकता भी नहीं रहती। क्योंकि तीर्थंकर बनने के बाद एक भी जीव का वध उनसे नहीं होता है। आचार्य श्री ने कहा कि साधु कभी पिच्छी के साथ सामायिक नहीं करते। पिच्छी का उपयोग प्रवृत्ति करते समय होता है। सिद्धचक्र विधान की महिमा बताते हुए उन्होनें कहा कि लोग रोज उनके पास आकर सिद्धचक्र महामंडल विधान का आशीर्वाद मांगते हैं। आचार्य श्री ने कहा कि गृहस्थों के लिये ही विधान बताए गए हैं। साधुओं के हमेशा सिद्धचक्र विधान चलते रहते हैं। क्योंकि सिद्ध बनने की प्रक्रिया वहीं प्राप्त होती है और मुनि अवस्था प्रारंभ होते ही ये प्रारंभ हो जाते है और हमेशा चलते रहते हैं। इस विधान से असंख्यात कर्मों की निर्जरा होती है। आचार्य श्री ने कहा कि दीपावली के दिन ही चातुर्मास का निष्ठापन हो गया था। लेकिन पिच्छिका परिवर्तन समारोह से लेागों को लाभ मिलता है। जितने साधु होते हैं, उतनी ही पिच्छिका लेने और देने का कार्य होता है। लेकिन हम आपको बता दें कि आप लोग अपने चैके में मुनि महाराजों को लभगग रोज ही पिच्छिका देते हो। यह अलग बात है कि वह नई पिच्छी नहीं होती है। पिच्छिका साल में एक बार ही बदली जाती है। लेकिन कुछ खास प्रयोजन या कुछ कमियां आने पर भी पिच्छिका बदल जाती है।

कार्यक्रम का संचालन मुनि श्री निर्दोष सागर महाराज ने करते हुए बताया कि पिच्छिका मयूर पंखों से ही क्यों बनती है? क्योंकि मयूर हमेशा ब्रम्हचर्य व्रत से धारण होता है और कार्तिक मास में वह स्वयं पंख छोड देता है।

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#BinaBarah #AcharyaVidyaSagarJi #PinchiParivartan #YesterdayPravachan #ExclusivePic ❖ संसार रूपी महासागर को पार पाना बगैर गुरू के असंभव: ❖ आचार्य श्री बीना बारहा में पिच्छिका परिवर्तन समारोह ❖:) (y)

बीना बारहा में विराजमान संत शिरोमणि जैनाचार्य विद्यासागर जी महाराज के ससंघ सानिध्य में पिच्छिका परिवर्तन समारोह रविवार को संपन्न हुआ। आचार्य श्री को नवीन पिच्छिका देने और पुरानी पिच्छिका लेने का सौभाग्य महाराजपुर निवासी श्रीमती ममता महेन्द्र सोधिया के परिजनों को प्राप्त हुआ। आचार्य श्री के संघस्थ मुनि महाराजों को भी नवीन पिच्छिका दी गई और पुरानी पिच्छिका श्रद्धालुओ द्वारा ली गई।

धर्म सभा को संबोधित करते हुए आचार्य श्री ने कहा कि संसार रूपी महासागर को पार पाना है तो बिना गुरू के संभव नहीं है। ऐंसे गुरूवर दुनिया से पार होने के लिये एक सेतु का काम करते हैं। सेतु नदी के ऊपर बनते हैं और नदी नीचे कलकल करती बहती रहती है। इसी तरह एक नाव भी गहरे पानी में से नाविक नदी के उसपार लगा देता है। संसार रूपी समुद्र को पार करने के लिये गुरू शिष्य हमेशा साथ साथ चलते हैं। जैंसे कोई साईकिल सवार जाता है और विपरीत दिशा से काफी तेज हवा चलती है तो विपरीत दिशा में जाना काफी दुष्कर होता है। लेकिन गुरूदेव मंद मंद हवा पीछे से चला देते हैं और विपरीत दिशा में जाना सरल हो जाता है। जहां गुरू होते हैं, वहां मुहूर्त की आवश्यकता नहीं होती। वहां मुहूर्त ही मुहूर्त होते हैं और वास्तु भी अपने आप सुधर जाते हैं। अनंत काल से पाप मय जीवन जिया जा रहा है। आत्मा को साफ सुथरा रखने के लिये गुरू ज्यादा सोचते हैं, लेकिन शिष्य कम सोचते हैं। शिष्य सोचता है कि यह कठिन है, परंतु गुरू एक ऐंसा व्यक्तित्व है गुरू हमेशा बडे और खडे रहते हैं। गुरू नाम तो है लेकिन वह भारी नहीं होता। कान में बहुत प्वाईंट होते हैं। कान खींचने से बुद्धि का विकास होता है और कान जोर से खींचने पर यदि पसीना आ जाए तो बुखार उतर जाता है। गुरू हल्के होते हैं भारी नहीं। जैंसे दस-बीस किलो दूध में थोडा सा घी डाल दो तो वह घी बजाय नीचे जाने के, उपर तैरने लगता है। गुरू किसी को दबाते नहीं है। गुरू की महिमा अपरंपार है। वे अपने को गुरू नहीं मानते हैं, बल्कि अपने गुरू को ही गुरू मानते हैं और जो गुरू को याद रखे वही गुरू होता है। बीना बारहा में एक दशक में चैथी बार पिच्छिका परिवर्तन का अवसर आया है। यहां आने के लिये दसों प्रकार के रास्ते और पगडंडिया है। इस क्षेत्र का अतिशय है कि यहां आने में भी देर नहीं लगती और जाने में भी देर नहीं लगती। जिसको समय का पता नहीं लगता है वह ध्यान में लगा रहता है। आकुलता, अज्ञानता मन के कारण हुआ करती है। संयम की परंपरा गुरू के माध्यम से उपलब्ध है। अनंत को जानने की क्षमता केवल ध्यान में होती है। आंखे बंद करने से आत्मा लधुत्व और गुरूत्व से उपर उठी रहती है। उपदेश देना छोडने के उपरांत ही मुक्ति मिलना संभव है। प्रभु व गुरू की बात से साधुओं को साधुत्व की अपेक्षा से मुक्ति मिलती है। जो आत्मा की साधना करते है, उन्हें प्रभुत्व का लाभ हो जाता है। तीर्थंकर कभी एक दूसरे के साथ नहीं रहते और तीर्थंकरों को कभी पिच्छी और कमंडल की आवश्यकता भी नहीं रहती। क्योंकि तीर्थंकर बनने के बाद एक भी जीव का वध उनसे नहीं होता है। आचार्य श्री ने कहा कि साधु कभी पिच्छी के साथ सामायिक नहीं करते। पिच्छी का उपयोग प्रवृत्ति करते समय होता है। सिद्धचक्र विधान की महिमा बताते हुए उन्होनें कहा कि लोग रोज उनके पास आकर सिद्धचक्र महामंडल विधान का आशीर्वाद मांगते हैं। आचार्य श्री ने कहा कि गृहस्थों के लिये ही विधान बताए गए हैं। साधुओं के हमेशा सिद्धचक्र विधान चलते रहते हैं। क्योंकि सिद्ध बनने की प्रक्रिया वहीं प्राप्त होती है और मुनि अवस्था प्रारंभ होते ही ये प्रारंभ हो जाते है और हमेशा चलते रहते हैं। इस विधान से असंख्यात कर्मों की निर्जरा होती है। आचार्य श्री ने कहा कि दीपावली के दिन ही चातुर्मास का निष्ठापन हो गया था। लेकिन पिच्छिका परिवर्तन समारोह से लेागों को लाभ मिलता है। जितने साधु होते हैं, उतनी ही पिच्छिका लेने और देने का कार्य होता है। लेकिन हम आपको बता दें कि आप लोग अपने चैके में मुनि महाराजों को लभगग रोज ही पिच्छिका देते हो। यह अलग बात है कि वह नई पिच्छी नहीं होती है। पिच्छिका साल में एक बार ही बदली जाती है। लेकिन कुछ खास प्रयोजन या कुछ कमियां आने पर भी पिच्छिका बदल जाती है।

कार्यक्रम का संचालन मुनि श्री निर्दोष सागर महाराज ने करते हुए बताया कि पिच्छिका मयूर पंखों से ही क्यों बनती है? क्योंकि मयूर हमेशा ब्रम्हचर्य व्रत से धारण होता है और कार्तिक मास में वह स्वयं पंख छोड देता है।

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❖ Question: Science has proved that there is a life in the plant. Then, how can we eat vegetables and fruits?

Answer: Jainism has said that there is a life in the plant much before the science has proved it. It is true that vegetables and fruits, both have lives. The ideal situation for a Jain would be to eat the ripe fruit that has just fallen off a tree. Vegetables and fruits are one-sensed living beings. One-sensed living beings have only “touch” sense. Their development of consciousness (knowledge) is significantly less than the higher (two, three, four and five)-sensed living beings like us, animals, birds, etc. For example, the level of knowledge of one-sensed living beings is only a small fraction of one letter. It is impossible to live a life with absolute non-violence. We need to eat to survive and we need to earn to live as a “house-holder”. But the basis of Jainism is “non-violence”. Therefore, we must minimize the act of non-violence. Eating vegetables constitutes minimum act of violence because: 1) Animals have more life-force, called Prän and more knowledge (purer -much more developed- consciousness) than the vegetables. Therefore, killing animals constitutes the higher form of violence. 2) Many other living organisms reside in an animal body and They get multiplied in a dead body. 3) Vegetables have less living cells and more water content. 4) We do not kill the plant for vegetables. We take leaves, vegetables and fruits off the plants. By removing vegetables and fruits from a tree, we sometimes lengthen the life span of the tree. 5) Eating vegetables is healthier. 6) The anatomy (teeth, digestive system, tongue, etc.) of human beings is for eating vegetarian food.

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❖ Question: How does the theory of "First Chicken or Egg" fit in the Jain religion?

Answer we do not believe in any theory like “First Chicken or Egg.” If we were created then we can be destroyed. But our soul is immortal. Therefore, we could not have been created. We Jains believe that our souls were in existence since the time without beginning and will be in existence forever (has no end). There was no creation of the souls and will have no destruction of the souls. We move from one body to another until we achieve the liberation. After the liberation, we still exist forever in the pure soul form.

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  1. Body
  2. Consciousness
  3. Jainism
  4. JinVaani
  5. Karma
  6. Mahavir
  7. Non-violence
  8. Science
  9. Soul
  10. Violence
  11. आचार्य
  12. तीर्थंकर
  13. निर्जरा
  14. मुक्ति
  15. सागर
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