25.11.2015 ►Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt ►News

Published: 25.11.2015
Updated: 05.01.2017

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❖ रावण का जन्म और विध्यासाधन अदि का निर्देश -------

विजयार्ध पर्वत में राथुनुपुर नाम का नगर में सहस्त्रार नाम का राजा राज्य करता था..रानी मान सुंदरी थी एक बार रानी का शरीर बहुत कमजोर हो गया..और रानी के मन में लज्जा के भाव देख सहस्त्रार ने कारण पुछा तोह रानी ने कहा की वह गर्भवती हैं..और ऐसी इच्छा हो रही है की इन्द्र जैसी सम्पदा भोगूँ.रानी के कहते ही राजा ने महाविद्या की मदद से इन्द्र जैसी संपत्ति हर जगह स्वर्ग जैसा माहोल..हाथी घोड़े की मदद से गुंजायमान..और इस तरह से पुत्र रत्न प्राप्त हुआ..उन्होंने इसलिए उसका नाम इन्द्र रखा..बचपन से ही सारे विद्याधर इन्द्र की आगया मानते थे..आगे जाकर इन्द्र ने नगरी में स्वर्ग जैसा माहोल रखा..पटरानी का नाम सची रखा..चारो दिशाओं में चार लोकपाल नियुक्त किये..चार निकाय के देव स्थापित किये...एक गोल मूंह वाला हाथी लिया..जिसका नाम ऐरावत हाथी रखा..सेनापति का नाम हिरण्यकेश रखा..यह सब इन्द्र ने किया यह सब विद्याधरों के साथ ही किया..और सारे सेना-सेनापति,हाथी,रानी,निकाय के देव अदि सब विद्याधर ही थे..लेकिन माहोल इस तरह का बनाया जैसे स्वर्ग ही हो..असुर नगर के विद्याधरों का नाम असुरकुमार देव रखा..किन्नर नगर के विद्याधरों का नाम किनार देव...गन्धर्व नगर के विद्याधर का नाम गन्धर्व देव..इस तरह से ही चरों दिशाओं में चार लोकपाल नियुक्त किये जिनके नाम सोम,वरुण,कुबेर और यम थे..इस तरह से राजा इन्द्र खुद को स्वर्ग का इन्द्र मानकर वहां रहता था..उस समय लंका नगरी में माली नाम का राज्य करता था..जो बहुत मानी था...उसकी आज्ञा सब विद्याधर मानते थे..एक बार विद्याधरों ने राजा इन्द्र की वजह से उसकी आज्ञा नहीं मानी.तोह माली,सुमाली,माल्यवान आदियों ने विज्यार्ध पर्वत पर हमला बोला..पूरी विद्याधरों की सेना आई और सारे राजाओं को आज्ञा पत्र भेजे..लेकिन किसी ने नहीं मानी तोह उन्होंने बाग़-वन महल अदि उजाड़े इस बात बात से सारे विद्याधर राजा सहस्त्रार की शरण में आये..तोह सहस्त्रार ने कहा की इन्द्र की शरण में गए...इन्द्र ने विद्याधर सेना के साथ आक्रमण किया..माली-सुमाली इन्द्र से बड़ी बहादुरी से लड़े..जब माली आक्रमण करने विज्यार्ध पर्वत पर आ रहा था तबकई अवशगुन हुए THE..जिससे सुमाली ने मना भी किया लेकिन मान-कषय उन्हें वहां पर LE आया..और अंत में माली हर गया..और मारा गया..और इन्द्र जीता..भाई की मृत्यु सुन सुमाली और माल्यवान डर कर भाग आये और पाताल लंका में आ गए..और छिपकर रहने लगे...
कौत्कुम्बल नगर की दो राज्य पुत्री थी कौशिकी और केकसी..कौशिकी का विवाह विश्रव से हुआ..जिससे उनका पुत्र हुआ जिसका नाम वैश्रवण रखा...वैश्रवण को इन्द्र ने पांचवा लोकपाल बनाया जिसे लंका नगरी में रखा..अब वह वहां आराम से रहता था..जिसके डर से अन्य विद्याधर डरे रहते थे..पाताल लंका में सुमाली का पुत्र हुआ रत्नश्रवा..रत्नश्रवा धर्म में निपुण ज्ञानी..सबका प्यारा,धार्मिक क्रियाएं..और अच्छे अच्छे कार्य..एक बार वन में एक विध्या सिद्ध करने गया..उस समय कौत्कुम्बल नगर के राजा ने पुत्री केकसी को उसकी सेवा के लिए भेजा..जब रत्नश्रवा को विद्या की प्राप्ति हुई...और केकसी उस पर मोहित हो गयीं..रत्नश्रवा ने वहीँ पर राज्य वसाया (नगर का नाम पुष्पान्तक था) और वहीँ पर विवाह कर रहने LAGA

वह वहीँ पर रह रहे थे..तब केकसी को तीन स्वप्न आये..१.पहला एक सिंह हाथियों के कुम्भ स्थल को विदारते हुए..रानी के मुख में जा रहा है...२.दूसरा सूर्या देखा जो अंधकार को हरते हुए रानी के मुख में प्रवेश कर रहा है और तीसरा चन्द्रमा का प्रकाश देखा जो तिमिर को हारते हुए रानी के मुख में प्रवेश कर रहा है..इस तरह से रानी ने प्रातः पति को सपने सुनाये..राजा ने फल कहा की इस फल यह है की तीन पुत्र HONGE1.पहला पुत्र आठवा प्रतिवासुदेव होगा २.दूसरा पुत्र धर्म को धारण करने वाला होगा और तीसरा भी धर्म में निपुण,धार्मिक,सरल-सूद परिमानी होगा..उसमें से पहला कुछ क्रूर स्वाभाव का होगा..होंगे तीनो जिन धर्म को मानने वाले..लेकिन पहला पुत्र थोडा क्रूर और हठी होगा.

ऐसा ही हुआ..जब पहला पुत्र गर्भ में था तब रानी को ऐसा लगा जैसे की शत्रु के ऊपर पैर रखूं..आईने की वजाय तलवार में मुख देखती..मानी हो गयी,हठी हो गयी..इस प्रकार पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ..जिसका नाम उन्होंने "रावण" रखा...रावण को देखते ही बाल क्रीडा से भय उत्पन्न होता था..बचपन से शक्तिशाली पुत्र था..दुसरे पुत्र कुम्भकरण हुए तीसरी पुत्री हुई चन्द्रनखा हुई और चौथे पर विभीषण नाम के पुत्र हुए..तीनो का जैसा स्वाभाव बताया था..वैसे ही थे...एक बार चारणऋद्धी धारी मुनिराज ने कहा भी था की तेरे यहाँ शलाका पुरुष उत्पन्न होंगे..एक बार वहीँ पर एक बार रावण के ऊपर से वैश्रवण (जो लोकपाल था) उसका विमान निकला..तब रावण ने माँ से पुछा की माँ यह कौन था..तब माँ कहती हैं की यह तेरे दादा जी के भाई के हत्यारे राजा इन्द्र का लोकपाल है..इसने लंका को वश में कर रखा है..इसलिए हम यहाँ रहते हैं..और रानी अपने दुःख भरे विचार पुत्रों से व्यक्त करने लगीं तभी विभीषण ने भाई रावण के गुण कहे..कहा की रावण की भुजा में अतिबल है अदि अनके व्याखाएं दी..रावण ने कहा की मैं अकेला ही सम्पूर्ण विज्यार्ध पर्वत की दोनों श्रेणी को संभाल लूँगा...और विभीषण ने भी कहा था की माँ तू क्या क्षणिक इन्द्रिय सुख के लिए दुखी हो रही हो?...इस तरह से पूरा वर्णन दिया...

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❖ आगम परम्परा के आलोक में पूजन विधि

देव पूजा गुरुपास्ति: स्वाध्याय: संयमस्तपः!
दानं चेति गृहस्थानाम शटकर्माणि दिने दिने!!

श्रावक के दैनिक शटकर्तव्यों में सर्व प्रथम कर्त्तव्य भगवान् जिनेन्द्र देव की पूजा करना है. राग प्रचुर होने के कारण गृहस्थों के लिए आचार्यों ने जिनेन्द्र पूजा को प्रधान कर्म कहा है. यद्यपि इसमें पञ्च परमेष्ठी की प्रतिमाओं का आश्रय होता है परन्तु पूजा करने वाले के भाव प्रधान हैं. भावों की प्रधानता के कारण पूजक की असंख्यातगुणी पापकर्म की निर्जरा होती है और असंख्यात गुणा शुभ कर्म का उदय होता है.
श्री बनारसीदास जी ने रयणसार नाटक में पूजा की महत्ता दर्शाते हुए कहा है:-

लोपे दुरित हरै दुःख संकट आपे रोग रहित नित देह!
पुण्य भण्डार भरे यश प्रगटेमुक्ति पंथ सो करे सनेह!!
रचे सुहाग देय शोभा जग परभव पहुँचावत सुरगेह!
कुगति बंध दलमलहि 'बनारसी ' वीतराग पूजा फल एह!!

लोक में चतुर निकाय के जीवों में मनुष्य और देव ही जिनेन्द्र की भक्ति करके उत्तम सुख रूप मोक्ष की सिद्धि को प्राप्त करते हैं. प्रगाढ़ आस्था के साथ जिनेन्द्र भगवान् की जो स्तुति की जाती है, वह ही जिनेन्द्र प्रभु की पूजा है. भावों की विशुद्धि-पूर्वक जिनेन्द्र प्रभु के गुणों में मन की जो तन्मयता होती है वह ही आत्मसिद्धि साधक श्रावक की सम्यक पूजा है. श्रावक को पूजा अष्टद्रव्य पूर्वक करना चाहिए, जबकि महाव्रती के लिए भावपूजा ही करना चाहिए. मन जब पाँचों इन्द्रियों के साथ एकमेक होकर अत्यंत विशुद्धि-पूर्वक जिनेन्द्र प्रभु के चरणों में आराधक हो जाता है तब उसकी उत्कृष्ट भक्ति अनीचा कही जाती है.

श्री नेमिचंद्र सिद्धांत-चक्रवर्ती ने महान आगम-ग्रन्थ गोम्मटसार में आठ प्रकार की पूजा भक्ति का निर्देश दिया है. यह आठ प्रकार की भक्ति भावों की विशुद्धि और तन्मयता पर आधारित है, इसमें पूजक भावों की विशुद्धता के साथ मन को जिनेन्द्र के गुनानुराघन में लगाता है भावों की स्थिति के आधार पर ही इसके आठ भेद कहे गए हैं.

जिनेन्द्र प्रभु के दर्शनों की भावना साकार रूप में चरितार्थ होना प्रथम जिनेन्द्र पूजा है. भाव और प्रवृत्ति दोनों का चरितार्थ होना ही पूजा की साकारता है. जिनेन्द्र भगवान् के पादमूल में पहुँच कर अष्टांग नमस्कार-पूर्वक त्रय प्रदक्षिणा देना और स्त्रोत्राध्ययन करना द्वितीय प्रकार की पूजा है. प्रथम प्रकार की पूजा में जितने शुभ कर्मों का आस्रव होता है, असंख्यात गुणा शुभाश्रव द्वितीय प्रकार की पूजा में कहा गया है. इसी प्रकार उत्तरोत्तर आगे-आगे की पूजाओं में पीछे-पीछे की पूजाओं की अपेक्षा असंख्यात-असंख्यात गुणा शुभाश्रव होता है.
परिणामों की विशुद्धिपूर्वक जब पूजक के वीतराग भाव पूजा करते समय जितने क्षण के लिए बनते हैं, उतने-उतने समय संवरपूर्वक पापकर्मों की निर्जरा होती है. अष्ट-द्रव्य अर्थात जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल, को पवित्र जल से प्रक्षालित कर जिनेन्द्र प्रभु के मंगलमय अभिषेक के बाद उनके पादमूल में खड़े होकर भक्ति-पूर्वक पूजन करना तृतीय प्रकार की पूजन है. एक वस्त्र पहन कर कभी पूजा नहीं करनी चाहिए. उत्तर या पूर्व में बैठ कर ही जिनेन्द्र प्रभु की पूजा करनी चाहिए. वेदिका के सामने खड़े होकर पूजन करने से दीठि नाम का दोष या अतिचार लगता है.

पूजन करते समय हर्षित भाव से मनेन्द्रियों का प्रभु के चरणानुराग में अनुरक्त होना और सामान्य नृत्य-ताल के साथ पूजन करने की प्रवृत्ति का स्वयं में आचरित होना चौथे प्रकार की पूजा है. पांचवें प्रकार की पूजन में पूजक पूज्य की पूजा करते हुए अपने चित्त को जिनेन्द्र प्रभु के गुणानुराग में इतना लीन कर लेता है कि उसके पास में अन्य कोई दर्शन, पूजन कर चला जाए, फिर भी आये हुए श्रावक के प्रति उसको सुध नहीं जाती. छटवीं प्रकार की पूजा में भक्त जिनेन्द्र प्रभु की आराधना में तन्मय होकर नृत्य करने लगता है, नृत्य करते हुए यदि कदाचित वह वस्त्र रहित भी हो जाता है तो उसे भक्ति की तन्मयता में अपने शरीर एवं वस्त्रों की सुध-बुध भी नहीं रहती, और निरंतर आराधक के गुणों में मन इन्द्रिय-पूर्वक उनकी भक्ति में डूबा रहता है.

भक्ति की प्रगाढ़ता की ओर बढ़ता हुआ यदि उसके किसी अंग में कदाचित सामान्य चोट लग जाए, अथवा डांस, मच्छर, ततैया जैसे जीव डंक या चोट की बाधा दें, तो भी उसे अनुभूत नहीं कर पाता, ऐसी स्थितिपूर्वक भावों की गहराई से की जाने वाली पूजाराधना सातवीं प्रकार की पूजा है. अंतिम आठवीं प्रकार की पूजा अनीचा पूजा कहलाती है, यह वह भक्ति है, जिसमे भक्त की भावना भगवान् के गुनानुराघम में इतनी एक-मेक हो जाती है कि कदाचित उसके पैर में कील भी आर-पार चुभ कर निकल जाए, खून भी बहने लगे, फिर भी भक्ति की तन्मयता में उसके मन में इस घटित स्थिति का आभास भी न हो. इतनी प्रगाढ़ता और विशुद्धि-पूर्वक आराधना की जो प्रवृत्ति है, वह अनीचा नाम की आठवीं प्रकार की पूजा है. ऐसी पूजा यदि पूजक किसी रिद्धिधारी मुनि या साक्षात तीर्थंकर के पादमूल में अंतरघडी मात्र के लिए आचरित करता है तो नियम से उसे तीन लोक की सर्वोत्कृष्ट तीर्थंकर पुण्य-प्रकृति का बंध होता है. इसीलिए आचार्यों ने श्रावक को जिनेन्द्र की पूजा परंपरा से मोक्ष का कारण कहा है.

आचार्य पुष्पदंत और भूतबली ने महान ग्रंथराज धवला में कहा है जिनबिम्ब के दर्शन से निधत्त और निकाचित रूप में मिथ्यात्वादी कर्म-कलाप का क्षय देखा जाता है. अरहंत नमस्कार तत्कालीन बंध की अपेक्षा असंख्यातगुणी कर्म-निर्जरा का कारण है. जो भव्य भक्ति-पूर्वक जिन भगवान् की पूजन, दर्शन, स्तुति करते हैं, वह तीनों लोकों में स्वयं ही दर्शन, पूजन, स्तुति के योग्य हो जाते हैं.

जिनेन्द्र प्रभु की पूजन से उत्तम फल और सिद्धियों की प्राप्ति होती है, जबकि ज्ञान-पूर्वक उसकी प्रवृत्ति हमारे जीवन में घटित हो रही है. एक थाली में मंगल बीजाक्षरों को अंकित कर मंत्रोच्चारपूर्वक उन बीजाक्षरों पर अर्घ्य चढाते हैं, उनका हेतु अवश्य हमें जानना चाहिए. क्यों कि बिना कारण के कार्य की सिद्धि नहीं होती. हमारे आगम ग्रंथों में पूर्वाचार्यों ने परंपरा से श्रुत-केवलियों द्वारा बताये गए मार्ग के अनुसार पूजा के क्रम और विधियों का व्याख्यान दिया है, उसे हम विवेकपूर्वक प्रवृत्ति में आचरित करें जिससे हमारी पूजा प्रवृत्ति मोक्ष सिद्धि में साधक बने.

बीजाक्षर वाली थाली में सर्व-प्रथम हमें ऊपर बीजाक्षर ' ॐ ' लिखना चाहिए. उसके नीचे ' श्री ' तथा श्री के नीचे ' स्वस्तिक ' (साथिया). बीजाक्षरों के नीचे तीन बिंदु बनाना चाहिए या ' ह्रीं ह्रीं ह्रीं ' लिखना चाहिए. दाहिने तरफ श्री बीजाक्षर के पार्श्व में पांच बिन्दु एवं बायें चार बिन्दु आरोपित करने चाहियें. ठोने पर अष्ट पंखुड़ी कमल का आकार बनाना चाहिए. यह ऐसा क्यों और किसलिए किया जाता है? इस शंका का समाधान-पूर्वक ज्ञान अवश्य प्राप्त करें -- उसका समाधान और विधि इस प्रकार है:-
जब हम देव, शास्त्र, गुरु और सिद्ध भगवान् की पूजा करें तो आठों द्रव्य ' ॐ ' बीजाक्षर पर ही चढ़ाना चाहिए क्यों की ' ॐ ' बीजाक्षर पञ्चपरमेष्ठी का वाचक बीजाक्षर है, इस पर द्रव्य चढाने का मतलब भगवान् जिनेन्द्र देव के पादमूल में की जाने वाली हमारी पूजा से होने वाले शुभाश्रव जब भी उदय में आवें तो मैं पञ्चपरमेष्ठी जैसे मंगल पद पर अधिष्ठित होऊं. ' ॐ ' बीजाक्षर पर आराधना के साथ अर्पित द्रव्य की आकांक्षा इस हेतु की बोधक है तथा इस पूजा का फल मुझे यह प्राप्त हो कि ॐ बीजाक्षर मेरी आत्मा के प्रदेशों में आत्मभूत हों. जब तक कोई मंत्र या बीजाक्षर आत्मभूत नहीं हो जाता है तब तक उसका प्रभाव भी स्वयं या अन्य जीवों पर नहीं पड़ता है. मंत्र जब आत्मभूत हो जाता है तभी स्व एवं पर के ऊपर प्रभावी हो सकता है, मात्र मंत्र को पढ़ लेने से सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती.
इसी प्रकार ' ॐ ' बीजाक्षर जब इस आराधना से आत्मभूत होगा तब हम उस पूजा के फल को अर्थात पञ्च-परमेष्ठी के पद को प्राप्त करने की पात्रता प्राप्त कर सकेंगे. ' ॐ ' बीजाक्षर के नीचे ' श्री ' बीजाक्षर पर हम तीर्थंकरों की पूजा के अष्ट-द्रव्य चढ़ाएं. भूत, भावी, वर्तमान या विद्यमान कोई भी तीर्थंकर हों, तीर्थंकर की पूजा की सामग्री ' श्री ' बीजाक्षर पर आरोपित करते हुए पूजक की यह भावना हो कि यह बीजाक्षर मेरे आत्मा में अभिर्भूत हों, ' श्री ' बीजाक्षर श्रेय का देने वाला है, तीर्थंकर की पूजा से हम यही श्रेय प्राप्त करना चाहते हैं कि मेरी आत्मा तीर्थंकर जैसी हो यह तभी संभव है जब ' श्री ' बीजाक्षर हमारी आत्मा में आत्मभूत हो जाए.

जब हम किसी व्रत या निर्वाण-भूमि (तीर्थ क्षेत्र) का पूजन करें तो आठों द्रव्य ' स्वस्तिक ' बीजाक्षर पर ही चढ़ाएं क्यों की ' स्वस्तिक ' कल्याण का प्रतीक है, और व्रत तथा निर्वाण-भूमि आदि भी कल्याण का प्रतीक मानी गयी है. बायें हाथ की तरफ चार बिन्दु होते हैं, वह अरहंत, सिद्ध, साधू एवं धर्म, इन चार मंगल के प्रतीक हैं. यह चारों ही मंगलमय हैं, लोक में उत्तम हैं, और इनकी शरण से ही आत्मा अनंत सुख की पात्र बनती है. पुष्प-क्षेपण इन्ही भावनाओं के प्रतीक होते हैं, अतः पुष्पांजलि इन्ही बिन्दुओं पर करनी चाहिए.
दाहिने हाथ की तरफ जो पांच बिन्दु होते हैं, उन पर ' अपवित्रः पवित्रोवा:..... पद बोलने के बाद पांच अर्घ्य चढाने चाहियें. अर्घ्य चढाने के पूर्व उदक चन्दन तंदुल...... पद बोलकर मंत्र-पूर्वक प्रथम बिन्दु पर अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्व साधु के लिए, द्वितीय बिन्दु पर भगवान् के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, निर्वाण, पञ्च कल्याणक के लिए, तृतीय बिन्दु पर भगवान् के १००८ गुणों का, चौथे बिन्दु पर भगवान् के मुख-कमल से उद्भूत प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग और अंतिम पांचवे बिन्दु पर मोक्ष-शास्त्र (तत्त्वार्थ-सूत्र) का अर्घ्य चढ़ाना चाहिए.

हमारी आगम परंपरा में जिस तरह से ऊपर बीजाक्षर थाली में लिखने का निर्देश दिया गया है, उसी क्रम में पूजा-विधान पूर्वाचार्यों की परम्परानुसार हम दैनिक रूप में आचरित करते हैं. साथिया के नीचे जो तीन बिन्दु होते हैं, समस्त पूजाओं के बाद हम जिस स्थान पर, (नगर या गाँव में पूजा कर रहे हैं, उस नगर या ग्राम के ऊपर, मध्य, और भूमिगत जितने भी जिनमंदिर या जिन प्रतिमाएं हैं, उनको अंतिम अर्घ्य चढ़ाकर अंत में शांति-विसर्जन पाठ बोलना चाहिए.
वसुनंदी आचार्य ने लिखा है जल से पूजन करने से पापरूपी मेल का संशोधन होता है, चन्दन चढाने से मनुष्य सौभाग्य से संपन्न होता है, अक्षत चढाने से अक्षय निधि रूप मोक्ष को प्राप्त करता है, वह चक्रवर्ती होता है, और सदा अक्षोभ, रोग, शोक रहित निर्भय होते हुए अक्षुणलब्धि से युक्त होता है, पुष्प से पूजन करने वाला कामदेव के सामान समर्चित देह वाला होता है, नैवेद्य चढाने से मनुष्य शक्ति, कांटी और तेज संपन्न होता है, दीप से पूजन करने वाला केवाल्ग्यानी होता है, धुप से पूजन करने से त्रैलोक्य-व्यापी यश वाला होता है, तथा फलों से पूजन करने वाला निर्वाण सुख-रुपी फल को पाने वाला होता है.

नित्य-नैमित्तिक के भेद से पूजा अनेक प्रकार की है जो जल, चन्दन आदि अष्ट द्रव्य से की जाती है I अभिषेक एवं गान-नृत्य के साथ की गयी पूजन प्रचुर फलदायी होती है I स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से पूजा के छः भेद आगम में कहे गए हैं I इज्या आदि की अपेक्षा पूजा के चार प्रकार हैं -- सदार्चन अर्थात नित्य-नियम पूजन, चतुर्मुख अर्थात सर्वतोभद्र पूजन, कल्पद्रुम एवं अष्टIन्हिका I नित्य नियम पूजन के अंतर्गत अष्टद्रव्य से जिनालय में जिन भगवान् की पूजा करना, अरहंत देवों की प्रतिमा और मंदिर बनवाना, शक्ति अनुसार नित्य दान देना, महामुनियों की पूजन करना, नित्यमह पूजन है I जो जीव भगवान् जिनेन्द्र देव का न दर्शन करते हैं, न पूजन करते हैं, और न स्तुति करते हैं, उनका जीवन निष्फल है, आचार्यों ने उन्हें धिक्कारा है I
आचार्य सोमसेन ने तो यहाँ तक लिखा है कि ऐसा व्यक्ति जो जिनेन्द्र देव की पूजा और मुनियों की उपचर्या बिना अन्न का भक्षण करता है, वह सातवें नरक के कुम्भीपाक बिल में दुःख भोगता है, अकेले जिनेन्द्र देव की भक्ति ही दुर्गति का नाश करने में समर्थ है, इससे विपुल पुण्य की प्राप्ति होती है, और मोक्ष प्राप्त होने तक इससे इन्द्र, चक्रवर्ती, जैसे पदों के सुखों की प्राप्ति होती है, कषाय पाहुड ग्रन्थ में लिखा है;-

अरहंत को नमस्कार करना तत्कालीन बंध की अपेक्षा असंख्यातगुणी कर्म निर्जरा का कारण है, पूजन के आगम में पांच अंग कहे हैं I आव्हानन, स्थापना, सन्निधिकरण, पूजन, विसर्जन I अतः प्रत्येक श्रावक को आगम आज्ञानुसार भगवान् जिनेन्द्र देव की पूजन करना चाहिए.(आगे और भी है) SUBHASH AJMERA

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❖ आचार्य कुन्दकुन्द देव विरचित -"तिरुक्कुरल "- से लिए गए वाक्य BY: SUBHASH AJMERA

००१) धन्य है वह मनुष्य,जो आदिपुरुष के पादारविन्द में रत रहता है. जो न किसी से राग करता है,और न घृणा,उसे कभी कोई दुःख नहीं होता.
००२) देखो जो मनुष्य प्रभु के गुणों का उत्साहपूर्वक गान करते हैं,उन्हें अपने भले बुरे कर्मों का दुखद फल नहीं भोगना पड़ता है.
००३) जो लोग उस परम जितेन्द्रिय पुरुष के दिखाए धर्म मार्ग का अनुसरण करते हैं,वे चिरजीवी अर्थात अजर-अमर बनेंगे.
००४) जन्म मरण के समुद्र को वे ही पार कर सकते हैं,जो प्रभु के चरणों की शरण में आ जाते हैं,दुसरे लोग उनको तार नहीं सकते हैं.
००५) जिन लोगों ने इन्द्रियों के समस्त उपभोगों को त्याग दिया है,और जो तापसिक जीवन व्यतीत करते हैं,धर्मशास्त्र उनकी महिमा को और सब बातों से उत्कृष्ट बताते हैं.
००६) जिन लोगों ने परलोक के साथ इहलोक की तुलना करने के पश्चात इसे त्याग दिया है,उनकी महिमा से यह पृथ्वी जगमगा रही है.
००७) साधू प्रकृति पुरुषों को ही ब्रह्मण कहना चाहिए,वे ही लोग सब प्राणियों पर दया रखते हैं.
००८)त्याग की चट्टान पर खड़े हुए महात्माओं के क्रोध को एक क्षण भी सह लेना असंभव है.
००९) अपना अंतःकरण पवित्र रखो,धर्म का समस्त सार बस इसी उपदेश में समाया हुआ है,
०१०) धर्म से मनुष्य को मोक्ष मिलता है,और उससे स्वर्ग की प्राप्ति भी होती है,फिर भला धर्म से बढ़कर लाभदायक वस्तु क्या है?
०११) जो काम धर्मसंगत है,बस वाही कार्य रूप में परिणत करने योग्य है,.दूसरी जितनी भी बातें धर्मविरुद्ध हैं,उनसे दूर रहना चाहिए.
०१२)जिस घर में प्रेम और स्नेह का निवास है,जिसमे धर्म का साम्राज्य है,वह सम्पूर्णतया संतुष्ट रहता है,उसके सब उद्देश्य सफल होते हैं.
०१३) यदि मनुष्य गृहस्थ के सब कार्यों का उचित रूप से पालन करे,तब उसे दुसरे आश्रमों के धर्मों के पालने की क्या आवश्यकता है?
०१४) जो गृहस्थ दुसरे लोगों को कर्तव्यपालन में सहायता देता है और स्वयं भी धार्मिक जीवन व्यतीत करता है वह ऋषियों से अधिक पवित्र है.
०१५) जो महिला लोकमान्य और विद्वान् पुत्र को जन्म देती है,स्वर्ग लोक के देवता उसकी स्तुति करते हैं.
०१६) पुत्र के प्रति पिता का कर्त्तव्य यही है की उसे सभा में प्रथम पंक्ति में बैठने के योग्य बना दे.
०१७) पिता के प्रति पुत्र का कर्त्तव्य क्या है? यही कि संसार में हर कोई उसे देख कर उसके पिता से पूछे,किस तपस्या के बल से तुम्हे ऐसा पुत्र मिला है.
०१८) बाह्य सौंदर्य किस काम का जब कि प्रेम जो आत्मा का भूषण है,वह हृदय में न हो.
०१९)दया से लबालब भरा हुआ हृदय ही संसार में सबसे बड़ी संपत्ति है क्यों कि भौतिक विभूति तो नीच मनुष्यों के पास भी देखि जाती है.
०२०)जब तुम किसी दुर्बल को सताने के लिए उद्धृत होते हो तब सोचो कि अपने से बलवान मनुष्य के आगे जब भय से काम्पोगे तब तुम्हे कैसा लगेगा?
०२१) भला उसके मन में दया कैसे आएगी जो अपना मांस बढ़ने के लिए दूसरों का मांस खाता है
०२२) यदि लोग मांस खाने की इच्छा न ही करें तो जगत में बेचने वाला कोई आदमी ही नहीं होगा
०२३) आभारी बनाने की इच्छा से रहित होकर जो दया दिखाई जाती है,स्वर्ग और पृथ्वी दोनों मिलकर भी उसका बदला नहीं चुका सकते
०२४) प्रत्युपकार मिलने की चाह के बिना जो भलाई की जाती है,वह सागर से भी अधिक बड़ी होती है
०२५) बराबर तुली हुई उस तराजू की डंडी को देखो,वह सीढ़ी है और दोनों ओर एक-सी ही है,बुद्धिमानों का गौरव इसी में है की वे इसके समान बनें
०२६) जो मनुष्य अपने मन में भी नीती से नहीं डिगता उसके न्यायमार्गी ओठों से निकली हुई बात नित्य सत्य है
०२७) आग का जला हुआ तो समय पाकर अच्छा हो जाता है,पर वचन का घाव सदा हरा बना रहता है
०२८) सदाचार सुख-संपत्ति का बीज बोता है,परन्तु दुष्ट प्रवृत्ति असीम आपत्तियों की जननी है
०२९) अग्नि उसी को जलती है जो उसके पास जाता है,परन्तु क्रोधाग्नि सारे कुटुंब को जला डालती है
०३०) मनुष्य की समस्त कामनाएं तुरंत ही पूर्ण हो जाया करें यदि वह अपने मन से क्रोध को दूर कर दें
०३१) स्वयं एक बार दुखों को भोग कर मनुष्य को फिर वैसे कष्ट दूसरों को न देने का ध्यान रखना चाहिए
०३२) ईर्ष्या के विचारों को अपने मन में न जाने दो क्यों की ईर्ष्या से रहित होना धर्माचरण का एक अंग होता है
०३३) लालच द्वारा एकत्र किये गए धन की कामना मत करो क्यों की भोगने के समय उसका फल तीखा ही होगा
०३४) यदि तुम चाहते हो की हमारी संपत्ति कम न हो तो तुम अपने पडोसी के धन-वैभव को भी प्राप्त करने की कामना मत करो
०३५) जो निरर्थक शब्दों का आडम्बर फैलाता है वह अपनी अयोग्यता को ऊंचे स्वर में घोषित करता है
०३६) जिनकी दृष्टि विस्तृत हैवे भूलकर भी निरर्थक शब्दों का उच्चारण नहीं करते हैं
०३७) उसे आपत्तियों से सदा सुरक्षित समझो जो अनुचित कर्म करने के लिए सन्मार्ग को नहीं छोड़ता है
०३८) महान पुरुष जो उपकार करते हैं उसका बदला नहीं चाहते हैं,भला संसार जल बरसाने वाले बादलों का बदला किस भाँती चुका सकता है?
०३९) जिन लोगों को उचित और योग्य बातों का ज्ञान है,वे बुरे दिन आने पर भी दूसरों का उपकार करने से नहीं चूकते हैं
०४०) जो मनुष्य अपनी रोटी दूसरों के साथ बांटकर खाता है,उसको भूख की भयानक बीमारी कभी स्पर्श भी नहीं करती.
०४१) वाही लोग जीते हैं जो निष्कलंक जीवन व्यतीत करते हैं,जिनका जीवन कीर्तिविहीन है
०४२) जिन लोगों का हृदय दया से ओतप्रोत है,वे अंधकारपूर्ण नरक में प्रवेश करता है
०४३) जिस प्रकार यह लोक धनहीन के लिए नहीं उसी प्रकार परलोक निर्दयी मनुष्य के लिए नहीं है
०४४) जिन लोगों ने ताप करके शक्ति और सिद्धि प्राप्त कर ली है,वे मृत्यु को भी जीतने में सफल हो सकते हैं
०४५) वह वैभव जो कपट के द्वारा प्राप्त किया जाता है,भले ही वह बढती की तरफ दिखाई देता है,परन्तु अंत में नष्ट होने को ही है
०४६) जिससे दूसरों को कुछ भी हानि नहीं पहुंचे,उस बात का बोलना ही सच्चाई है
०४७) जिसका मन सत्यशीलता में निमग्न है,वह पुरुष तपस्वी से भी महान और दानी से भी श्रेष्ठ है
०४८) जिसमे चोट पहुँचाने की शक्ति है,उसी में सहनशीलता का होना समझा जाता है.जिसमे शक्ति ही नहीं है,वह क्षमा करे या न करे,उससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है
०४९) तुम्हारा अपराधी कोई भी हो,पर उसके ऊपर क्रोध कभी नहीं करो,क्यों कि क्रोध से सैंकड़ों अनर्थ पैदा होते हैं
०५०) क्रोध हर्ष को जला देता हैऔर उल्लास को नष्ट कर देता है,क्या क्रोध से बढ़कर मनुष्य का और कोई भयानक शत्रु है?
०५१) जो क्रोध के मारे आपे से बाहर है,वह मृतक के सामान है,पर जिसने कोप करना त्याग दिया है,वह संतों के सामान है
०५२) दुःख देने वाले व्यक्ति को शिक्षा अर्थात दंड देने का यही एक उत्तम उपाय है कि तुम उसके बदले में भलाई करो,जिससे वह मन ही मन लज्जा के मारे सर को झुका ले
०५३) अहिंसा सब धर्मों में श्रेष्ठ है,हिंसा के पीछे सब प्रकार के पाप लगे रहते हैं
०५४)क्शुदावादितों के साथ अपनी रोटी बांटकर खाना और हिंसा से दूर रहना,यह सब धर्म उपदेष्टाओं के समस्त उपदेशों में श्रेष्ठतम उपदेश है
०५५) अहिंसा सब धर्मों में श्रेष्ठ धर्म है,सच्चाई की श्रेणी उसके बाद की है
०५६) सन्मार्ग कौन सा है?यह वही मार्ग है जिसमे छोटे से छोटे जीव की रक्षा का पूरा ध्यान रखा जाता है
०५७) तुम्हारे प्राण संकट में भी पड़ जाए,तो भी किसी की प्यारी जान न लीजिएगा
०५८) जिन लोगों का जीवन हत्या पर निर्भर है,समझदार लोगों की नज़र में वे मृतक भोजी ही हैं
०५९) समृद्धि क्षणस्थायी है,यदि तुम समृद्धिशाली हो गए हो तो ऐसे काम करने में देर न करो जिनसे स्थायी लाभ मिल सकता है
०६०) समय देखने में भोला-भाला और निर्दोष मालुम होता है,परन्तु वास्तव में वह एक आरा है जो मनुष्य के जीवन को बराबर काट रहा है
०६१) मनुष्य ने जो वस्तु छोड़ दी है,उससे पैदा होने वाले दुःख से उसने अपने आप को मुक्त कर लिया है
०६२) त्याग से अनेकों प्रकार के सुख उत्पन्न होते हैं,इसलिए यदि तुम उन्हें अधिक समय तक भोगना चाहते हो तो शीघ्र त्याग करो
०६३) जो लोग पुनर्जन्म के चक्र को बंद करना चाहते हैं,उनके लिए यह शरीर भी अनावश्यक ही है,फिर भला अन्य बंधन कितने अनावश्यक होंगे
०६४) मनुष्य जैसी उच्च योनि को प्राप्त कर लेने से भी कोई लाभ नहीं यदि आत्मा ने सत्य का आश्वासन न किया
०६५) कोई भी बात हो,उसमे सत्य को झूठ से पृथक कर देना ही मेघा का कर्त्तव्य है
०६६) निस्संदेह जिन लोगों ने ध्यान और धारणा के द्वारा सत्य को पा लिया है,उन्हें आगे होने वाले भावों का विचार करने की कोई भी आवश्यकता नहीं है
०६७) काम,क्रोध,और मोह,ज्यों ज्यों मनुष्य को छोड़ते चले जाते हैं,दुःख भी उनका अनुसरण करके धीरे धीरे नष्ट हो जाते हैं
०६८) यदि तुम्हें किसी बात की कामना करनी ही है तो पुनर्जन्म से छुटकारा पाने की कामना करो,और वह छुटकारा तभी मिलेगा,जब तुम कामना को जीतने की इच्छा करोगे
०६९) वाही लोग मुक्त हैं जिन्होंने अपनी इच्छाओं को जीत लिया है बाकी लोग देखने में स्वतंत्र मालुम पड़ते हैं,पर वास्तव में वे सब कर्मबंधन में जकड़े हुए हैं
०७०) प्राप्त करने योग्य जो ज्ञान है,उसे सम्पूर्ण रूप से प्राप्त करना ही चाहिए,और प्राप्त करने के बाद तदनुसार व्यवहार करना चाहिए
०७१) जगत में दो वस्तुए हैं जो एक दुसरे से नहीं मिलती हैं.धन संपत्ति एक वास्तु है और साधुता और पवित्रता दूसरी
०७२)मानव जात की जीती जागती दो आँखें हैं,एक को अंक कहते हैं और दूसरी को अक्षर कहते हैं
०७३) विद्वान जहाँ कहीं भी जाता है अपने साथ आनंद ले जाता है,लेकिन जब वह विदा होता है तो पीछे दुःख छोड़ जाता है
०७४) यद्यपि तुम्हें गुरु या शिक्षक के सामने उतना ही अपमानित और नीचा बनना पड़े जितना की भिक्षुक को किसी धनवान के समक्ष बनना पड़ता है,फिर भी तुम विद्या सीखो
०७५) स्रोत को तुम जितना ही खोदोगे उतना ही अधिक पानी निकलेगा,ठीक इसी प्रकार तुम जितना ही अधिक सीखोगे,उतनी ही तुम्हारी विद्या में वृद्धि होगी
०७६) मनुष्य ने एक जन्म में जो विद्या प्राप्त कर ली है,वह उसे समस्त आगामी जन्मों में भी उच्च और उन्नत बना देगी
०७७) विद्वान् देखता है की जो विद्या उसे आनंद देती है,वह संसार को भी आनंद्प्रिया होती है इसलिए वह विद्या को और अधिक चाहता है
०७८) विद्या मनुष्य के लिए एक अविनाशी निधि है,उसके सामने दूसरी संपत्ति कुछ भी नहीं है
०७९)बिना पर्याप्त ज्ञान के सभा मंच पर ज्ञान वैसा ही है जैसा की बिना चोपड़ के पांसे खेलना
०८०) विद्वानों के सामने यदि अपने को मौन बनाये रख सकें तो मूर्ख आदमी भी बुद्धिमान गिना जाएगा
०८१) विद्वान् का दरिद्र होना निस्संदेह बहुत बुरा है,किन्तु मूर्ख के हाथ में संपत्ति होना तो और भी बुरा है
०८२) सूक्ष्म तथा शुभ तत्वों में जिसकी बुद्धि का प्रवेश नहीं,उसकी सुन्दर देह अलंकृत एक मिटटी की मूर्ती के सिवा और कुछ भी नहीं
०८३) जिन लोगों ने बहुत से उपदेशों को सुना है वे पृथ्वी पर देवतास्वरूप हैं
०८४) यदि कोई मनुष्य विद्वान् न हो तो भी उसे उपदेश सुनने दो क्यों कि जब उसके ऊपर संकट पड़ेगा तब उनसे ही उसे सांत्वना मिलेगी
०८५) धर्मात्माओं के उपदेश एक लाठी के सामान हैं क्यों कि जो उनके ही सहारे काम करते हैं उन्हें वे गिरने से बचाते हैं
०८६)अच्छे शब्दों को ध्यानपूर्वक सुनो,चाहे वे थोड़े से ही क्यों न हों क्यों कि वे थोड़े शब्द भी तुम्हारी प्रतिष्ठा में समुचित वृद्धि करेंगे
०८७) जिस पुरुष ने खूब मनन किया है और बुद्धिमानों के वचनों को सुन-सुनकर अनेक उपदेशों को जमा कर लिया है,वह भूल से भी कभी निरर्थक बातें नहीं करेगा
०८८) सुन सकने पर भी वे कान बहरे हैं जिनको उपदेश सुनने का अभ्यास नहीं है
०८९) बुद्धि समस्त अचानक आक्रमणों को रोकने वाला कवच है,वह ऐसा दुर्ग है जिसे शत्रु भी घेर कर जीत नहीं सकता
०९०) यह भी एक बुद्धिमानी का काम है कि मनुष्य लोक लोक नीति के अनुसार काम करे
०९१) जो दूरदर्शी आदमी हर एक विपत्ति के लिए पहले से ही सचेत रहता है वह उस वार से बचा रहेगा जो अत्यंत ही भयंकर है
०९२) जिसके पास बुद्धि है उसके पास सबकुछ है पर मूर्ख के पास सबकुछ होने पर भी कुछ नहीं है
०९३) जिन लोगों को अपनी कीर्ति प्यारी है,वे अपने दोष को राई के सामान छोटा होने पर भी ताड़ जितना लम्बा समझ लेते हैं
०९४) राजा यदि पहले अपने दोषों को सुधार ले फिर दुसरे के दोषों को देखे.फिर कौन सी बुराई उसे छू सकती है
०९५) तुम जिन बातों के रसिक हो उनका पता यदि तुम शत्रुओं को नहीं चलने दोगे तो तुम्हारे शत्रुओं कि योजनायें निष्फल ही होंगी.
०९६) यदि किसी को योग्य पुरुष की प्रीती और भक्ति मिल जाए,तो वह महान से महान सौभाग्य की बात है
०९७) मंत्री ही राजा की आँखें हैं,इसलिए उसको चुनने में बहुत ही समझदारी और चतुराई से काम लेना चाहिए
०९८) बहुत से लोगों को शत्रु बना लेना मूर्खता है,किन्तु सज्जन पुरुष की मित्रता को छोड़ना उससे भी कहीं अधिक बुरा है
०९९)योग्य पुरुष कुसंगत से डरते हैं,पर क्षुद्र प्रकृति के प्राणी दुर्जनों से इस रीति से मिलते जुलते हैं मानो वे उनके कुटुंब के ही हों
१००) पानी का गुण बदल जाता है,वह जैसी धरती पर बहता है वैसा ही गुण उसका हो जाता है.इसी प्रकार मनुष्य की जैसी संगति होगी उसमे वैसे ही गुण आ जाते हैं
१०१) आदमी की बुद्धि का सम्बन्ध तो उसके मस्तिष्क से है पर उसकी प्रतिष्ठा तो उन लोगों पर अवलंबित है जिनकी संगति में वह रहता है
१०२) मन की पवित्रता और कर्मों की पवित्रता आदमी की संगति पर निर्भर है
१०३) अंतःकरण की शुद्धता ही मनुष्य के लिए बड़ी संपत्ति है और संत संगति उसे हर प्रकार का गौरव प्रदान करती है
१०४) धर्म मनुष्य को स्वर्ग ले जाता है और सत्पुरुषों की संगति उसे धर्माचरण में रत करती है
१०५) जो राजा सुयोग्य पुरुषों से सलाह करने के बाद ही काम को करता है उसके लिए ऐसी कोई बात नहीं जो कि असंभव हो
१०६) ऐसे भी उद्योग हैं जो कि नफे का हरा-भरा बाग़ दिखा कर अंत में मूल धन नष्ट कर देते हैं.बुद्धिमान लोग उनमे हाथ नहीं डालते हैं
१०७) जिसका तुम उपकार करना चाहते हो उसके स्वभाव का यदि तुम ध्यान नहीं रखोगे तो तुम भलाई करने में भी भूल कर सकते हो
१०८) जो लोग वृक्ष की चोटी तक पहुँच गए हैं वे अगर अधिक ऊपर चढ़ते-चढ़ने की चेष्टा करेंगे तो वे अपने प्राण गंवाएंगे
१०९) भरने वाली नाली यदि तंग है तो कोई परवाह नहीं परन्तु व्यय करने वाली अधिक विस्तीर्ण न हो
११०) सदैव समय को देख कर काम करना चाहिए,वह एक ऐसी डोरी है जो सौभाग्य को दृढ़ता के साथ तुमसे आबद्ध कर देगी
१११) यदि तुम योग्य अवसर और योग्य साधनों को चुनोगे तो सारे जगत को जीत सकते हो
११२) जब समय तुम्हारे प्रतिकूल हो तो बगुला की तरह निश्कर्मन्यती का बहाना करो,लेकिन जब वह अनुकूल हो तो बगुले के सामान ही झपट कर तेजी से हमला करो
११३) युद्धक्षेत्र को भली-भांति जांच किये बिना लड़ाई न छेड़ो तथा शत्रु को छोटा मत समझो
११४) धर्म,अर्थ,काम,और प्राणों का भय,ये चार कसौटियां हैं जिन पर कस कर मनुष्य को चुनना चाहिए
११५) जो अच्छे कुल में उत्पन्न हुआ है,दोषों से रहित है और अपयश से डरता है वही तुम्हारे लिए योग्य मनुष्य है
११६) जो आदमी परीक्षा लिए बिना ही दुसरे मनुष्य का विश्वास करता है वह अपनी संतति के लिए अनेक आपत्तियों के बीज बो रहा है
११७) परीक्षा किये बिना किसी का विश्वास न करो और अपने आदमियों की परीक्षा लेने के बाद हर एक को उसके योग्य काम दो
११८) अनजाने मनुष्य पर विश्वास करना और जाने हुए योग्य पुरुष पर संदेह करना,ये दोनों ही बातें एक समान अगणित आपत्तियों की जननी है
११९) उसी आदमी को अपना कर्मचारी चुनो जिसमे दया,बुद्धि और दृढ निश्चय है अथवा जो लालच से परे है
१२०) बहुत से आदमी ऐसे हैं जो सब प्रकार की परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो जाते हैं,फिर भी कर्तव्यपालन के समय बदल जाते हैं
१२१) राजा को चाहिए की वह प्रतिदिन हर एक काम की देखभाल करता रहे,क्यों की जब तक किसी देश के कर्मचारियों में दोष न होंगे तब तक उस देश पर कोई आपत्ति न आएगी
१२२) यदि मनुष्य बन्धुगनों से सौभाग्यशाली है और बन्धुगनों का प्रेम उसके लिए घटता नहीं है,तो उसका ऐश्वर्य कभीबढ़ने से रुक नहीं सकता है
१२३) अपने नातेदारों को एकत्रित कर उन्हें अपने स्नेह्बंधन में बांधना ही ऐश्वर्य का लाभ और उद्देश्य है
१२४) जो मनुष्य बिना रोक के खूब दान करता है और कभी क्रोध नहीं करता,उससे बढ़कर जगत-बंधू कौन है?
१२५) जब एक सम्बन्धी जिसका सम्बन्ध तुमसे टूट गया है और तुम्हारे पास किसी प्रयोजन के कारण वापस आता है तो तुम उसे स्वीकार करो,परन्तु सतर्कता के साथ
१२६) वैभव असावधान लोगों के लिए नहीं है,ऐसा संसार के सभी विज्ञजनों का निश्चय है
१२७) उस मनुष्य के लिए कुछ भी असंभव नहीं है जो अपने काम में सुरक्षित और सजग रहने का विचार रखता है
१२८) पूर्ण विचार करो,किसी ओर मत झुको,निष्पक्ष होकर नीतिज्ञ-जनों की सम्मति लो,न्याय करने की यही रीति है
१२९) संसार जीवनदान के लिए बादलों की ओर देखता है,ठीक इसी प्रकार न्याय के लिए लोग राजदंड की ओर निहारते हैं
१३०) राजदंड ही ब्रह्मविद्या और धर्म का मुख्या संरक्षक है
१३१) जो रजा अपने राज्य की प्रजा पर प्रेमपूर्वक राज्य करता है,उससे राज्य-लक्ष्मी कभी पृथक नहीं होगी
१३२) जो नरेश नियमानुसार राजदंड धारण करता है उसका देश समयानुकूल वर्षा और शस्य श्री का घर बन जाता है
१३३) जो रजा आतंरिक और बाह्य शत्रुओं से अपनी प्रजा की रक्षा करता है वह यदि अपराध करने पर उन्हें दंड दे तो यह उसका दोष नहीं,कर्त्तव्य है
१३४) जो रजा प्रतिदिन राज्य सञ्चालन की देख-रेख नहीं रखता और उसमे जो त्रुटियाँ हैं उन्हें दूर नहीं करता उसकी प्रभुता दिन-दिन क्षीण हो जायेगी
१३५) न्याय शासन द्वारा ही रजा को यश मिलता है और अन्याय शासन उसकी कीर्ति को कलंकित करता है
१३६) वर्षाहीन आकाश के तले पृथ्वी की जो दशा होती है,ठीक वही दशा निर्दयी रजा के राज्य में प्रजा की होती है
१३७) यदि राजा न्याय और धर्म से विमुख हो जाएगा तो आकाश से ठीक समय पर वर्षा की बौछारें आना बंद हो जायेंगी
१३८) यदि राजा न्याय पूर्वक शासन नहीं करेगा तो गाया के थन सूख जायेंगे और द्विज अपनी विद्या को भूल जायेंगे
१३९) राजा का कर्त्तव्य है की वह दोषी को नाप-तौल कर ही दंड देवे जिससे की वह दोबारा वैसा कर्म न करे,फिर भी वह दंड सीमा के बाहर नहीं होना चाहिए
१४०) जो अपनी शक्ति को स्थायी रखने के इच्छुक हैं,उन्हें चाहिए की वे अपना शासनदंड तत्परता से चलावें,परन्तु उसका आघात कठोर न हो
१४१) शील आँख का भूषण है,जिस आँख में वह नहीं होता वह केवल एक घाव ही समझा जावेगा
१४२) यह उच्चता है की जिसने तुमको दुःख दिया हो उसे तुम छोड़ दो और उसके साथ क्षमा का व्यवहार करो
१४३) राजा को यह ध्यान में रखना चाहिए की राजनीति और गुप्तचर ये दो आँख है जिनसे वह देखता है
१४४) जो राजा गुप्तचरों और दूतों के द्वारा अपने चारों ओर होने वाली घटनाओं की खबर नहीं रखता उसके लिए दिग्विजय नहीं है
१४५) राजा को चाहिए की अपने राज्य के कर्मचारियों,अपने बन्धु-बान्धवों और शत्रुओं की गतिविधि को देखने के लिए गुप्तचरों की नियुक्ति करे

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  1. JinVaani
  2. आचार्य
  3. ज्ञान
  4. तीर्थंकर
  5. दर्शन
  6. निर्जरा
  7. पूजा
  8. भाव
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