27.11.2015 ►Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt ►News

Published: 27.11.2015
Updated: 05.01.2017

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❖ मै अनंत काल से मिथ्यात्व की मदिरा पिये हे जिसके कारण हमे अपनी आत्मा का भला सोंचने की शक्ति ही नही है,जब यह सद्गुरू के मार्गदर्शन मै यह उतरना चालु होगी तब मै समझ पावुंगा मै अज्ञान या मिथ्या मे समझता हू कि बलि देने से देव आब प्रसन्न होंगे.और जिसकी बलि दी जावेगी वह सीधा देव की शरण मे जाकर मुक्त हो जावेगा लेकिन मे भी तो मुक्ति चाहता हू फिर मे अपनी आत्म बलि क्यो नही देता?बस यही प्रश्न झकझोर देता है लेकिन मोह के कारण एसा नही कर पाता.तब या तो वह नशा बना रहता या उतर जाता.जब उतर जाता तो अन्य नशे भी परेशान करते है.अब कुदेव कुगुरू पीछा नही छोडते.वे लक्ष्मी सरस्वती भेरूजी अन्य देवो की पूजा का बोलते है यह भी अच्छा है इन देवो को कुछ धन खर्च कर अपार धन क्यो ना लेलू.यह लालसा ही रहती.बस होता यही है कि मेरा पैसा इनके पास जाता जाता है और कब कंगाल हो जाता हू पता ही नही चलता तब उन्ही गुरू से बिना धन के पूजा अर्चना के लिये कहता हू तो जिन हीन नज़रो से देखा जाता कि यह नशा भी उतर जाता.नही उतरता तो उनकी गुलामी करता उनकी चिलम भरता रहता हू.यदि उतर गया तो फिर जैन धर्म के रक्षक देवो का नम्बर आता.जिनेंद्र देव को तो मानता पर उनके सेवक या गुलामो को अधिक मानता और हिम्मत नही होती कि उनसे कुछ कहू मन मे तो चोर बैठा है.चपरासी से निवेदन करता की मेरा काम कर दे जब कि काम तो अधिकारी को करना तो चपरासी की चापलुसी करता.शायद वह रिकमण्ड कर दे.हिम्मत नही कि साहब से कुछ बोल सकू.मन मे चोर जो बैठा है. किसी तरह सहब से निवेदन करता तो वे कहत कि अभी क़्वालिफिकेशन नही हुई काम नही होगा.तब निराश हो जाता.अपनी कमियो को दूर करने के बजाय कमियो सहित जोड तोड से काम करवाना चाहता.रिश्वत देता लेकिन काम नही बनता.तब यह नशा भी उतर जाता.और सद्गुरू विराजमान सकल परमेष्टी की शरण मे जाता.डगमगाता हुआ आगे बदता.वे श्राव्क धर्म का पालन करवाते कडवी दवाई पिलाते हमेशा तो मीठी दवाई पी हिम्मत नही पडती मज़बूर होकर वह भी पी लेता हू धिरे धिरे कडवी दवाई पीनेकी आदत हो जाती.इस दवाई से पता चलता हे नशा बहुत कुछ उतर जाता पूरा नही.जब खबर मिलती कि भाई या बहन माता पिता बिमार हे तो बैचैन हो जाता.यही तो परीक्षा है मोह कम करने की.तब सद गुरू सलाह देते कि ये माता पिता तो इस जन्म के है पिछले जन्मो के कितने माता पिताओ को रूलाया है.उनके आंसु भी पोछे है क्या.कुछ नशा कम होता है.वे ही मोह मिथ्यात्व को कम करते.तपाना जारी है.नशा टूट रहा है.विशुध्दि हो गयी तो सम्यक दर्शन हो जाता.लेकिन सफर यही खत्म नही होता तपाना जारी है सम्यक ज्ञान देते.चारित्र का पालन करवाते.जब पूरी तरह से चारित्र का पालन करता हू योग्यता को देख दिक्षा देते.धिरे धिरे योग्यता देख ध्यान करवाते.अनेक बार असफल होता तो थोडी देर के लिये ध्यान लग जाता.इसका अभ्यास होने पर यह बहुत अच्छा लगता तो फिर इसमे लगन लग जाती.अच्छी प्रेक्टिस होने पर जम रम जाता हू तो धिरे सेमुझे आत्मा गुरू के पास छोड देते कि यह आपका शिष्य हे इसे सम्भालो अब आगे की मोक्ष यात्रा करवाओ.यहा मोह मदिरा को छोड बाकी मदिरा के नशे का पूरा लोप हो जाता.अब स्वाअत्मा गुरू सम्भाल लेते.और आगे की यातरा करवाते.अब मुझे समझ मे आता हू कि कितनी खराब मदिराये मे पीये हुए था. Kamal samia

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❖ रावण-विभीषण को मरण की शंका और उसका निवारण

जब लक्ष्मण जी जो की नारायण थे...उनका जन्म हुआ तब प्रतिनारायन के यहाँ अशुभ शकुन हुए..अशुभ लक्षण हुए...रावण-विभीषण ने निमित्त ज्ञानी से पुछा की कौन मृत्यु में निमीत्त बनेगा तोह जवाब आया की राजा दशरथ के पुत्र..होंगे और राजा जनक (क्योंकि उनकी पुत्री सीता का हरण हुआ वह भी कारण होंगे..ऐसा जानकार विभिसन ने रावण से कहा की हम उन दोनों राजाओं को रात्री में ही मार देंगे...यह बात नारद ने सुन ली...नारद विद्याओं के धारी मनुष्य होते हैं..जो जिन देव के जिन शाशन के भक्त होते हैं यानी की सम्यक दृष्टी होते हैं...नारद जो हैं पूरे द्वीप में जाते हैं और तरह-तरह के जिन मंदिरों में जाकर पंच्कल्यानाकों में जाकर इधर उधर धर्म की खबर फैलाते हैं...जब रावण ने यह हिंसात्मक बात विभीषण से सुनी..तोह नारद राजा दशरथ के यहाँ गए..उन्होंने विदेह क्षेत्र की बाते राजा दशरथ को बतायीं की वहां वह सीमंधर स्वामी के तप्कल्याण में गए थे..ऐसे-देव आये थे,ऐसे विमान थे..और फिर नारद विभीषण से सुनी हुई बात कहते हैं और यही बात वह राजा जनक के पास जाकर कहते हैं..तब दोनों राजा भेष बदल कर और शरीर का पुतला बनवा कर राज्य में घोसना कर व दी की राजा को भयंकर बिमारी है..इसलिए राजा को दूर से ही देखना..दोनों राजा नगरों में भ्रमण कर रहे थे...रात में विभीषण आये और राजा जनक और दशरथ के पुतले को मारकर नदी में फेक दिया और बड़े खुश हो रहे....यह खबर रावण को दी..तोह वह भी खुश हुए..उन्होंने इस गलती का प्रायश्चित भी किया..विभीषण विचार करते हैं की जो भी मिलता है कर्मों का फल है..अगर मृत्यु आती है तोह कोई नहीं रोक सकता...यह निमित्त ज्ञानी क्या जाने अगर यह जानता होता तोह अपना कल्याण और खुद को मृत्यु से नहीं बचा सकता था..अतः जिनेन्द्र भगवन की वाणी अटल सत्य है..ऐसा कहकर पश्चाताप किया..

इससे यह शिक्षा मिली की ज्योतिष अदि मृत्यु के बारे में जानते तोह सबसे पहला अपना कल्याण करते...

लिखने का आधार पदम्-पुराण (अनुबाद आर्यिका श्री दक्ष्मती माता जी)..प्रमाद के कारण भूलों के लिए क्षमा,अल्प बुद्धि के कारण भूलों के लिए क्षमा

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❖ ✿अंजना सती की कथा...

आदित्य पुर नगर में एक प्रहलाद नाम के राजा राज्य करते थे..उनके यहाँ पुत्र हुआ जिसका नाम उन्होंने पवंजय रखा..महेंद्रपुर नगर में राजा महेंद्र,रानी ह्रदयवेगा उनके यहाँ पुत्री हुई जिसका नाम अंजना रखा...तब अंजना यौवन हुईं...तोह राजा महेंद्र ने सभा बुलाई और मंत्रिओं से विवाह के प्रस्ताव पूछे...तब कोई रावण-राजा का प्रस्ताव देते है,कोई इन्द्रजीत का,कोई कहीं का...और एक मंत्री विद्युत प्रभ नाम के राजकुमार का..लेकिन उनका प्रस्ताव इसलिए ठुकरा दिया जाता है क्योंकि वह १८ वर्ष की उम्र में दिगम्बरी दीक्षा लेने वाले होते हैं...अंत में पवंजय का प्रस्ताव स्वीकृत हो जाता है...दोनों राजाओं में बातचीत होती हैं...पवंजय को अंजना को देखने का मन होता है..इसलिए मित्र प्रहलाद के साथ महेंद्र नगर में अंजना को देखते हैं...अंजना के सामने कोई सखी दुसरे राजकुमार विद्युत प्रभ की तारीफ़ कर रही होती है..सो अंजना भी अनुमोदन कर देती है..यह बात सुनकर और देखकर पवंजय क्रोधित होते हैं..लेकिन मित्र द्वारा क्रोध से शांत होकर..अंजना से बदला लेने के भाव सजा लेते हैं..पहले वह अंजना से विवाह ही न करने की बात करते अं...फिर किसी तरह उन्हें मनाया जाता है.लेकिन बदले के भाव नहीं बदलते हैं..उनका विवाह होता है

पवंजय विवाह के बाद बदला लेते हैं....न उनसे बात करते..न पास आकर बैठते..अगर अंजना सामने आये तोह मूह फेर लेते...और दूर ही रहते...एक बार पवंजय को राजा रावण की आज्ञा से रावण की सहायता के लिए राजा वरुण से युद्ध के लिए आना पड़ा...तब अंजना के लाख रोकने पर वह नहीं माने...वहां पे जाकर हंस-हंसिनी के जोड़े का वियोग देखकर दुखी हुए..और अपनी गलती का आस करने आगे...तोह चुपके से जाना से मिलने आये...अंजना के साथ बातें की....और पेट में गर्भ हुआ..और चले गए....इधर अंजना की आस अंजना के पेट में गर्भ जानकर,उनकी किसी भी बात को,न पवंजय के आने की बात को मानते हुए...उन्हें अंजना को सखी बसंत-तिलिका के साथ निकाल दिया राज्य से...अंजना पिता के पास इन तोह उन्होंने भी निकाल दिया,अंजना अब घनघोर वन में भटकती हैं...जहाँ योद्धा भी जाने से दरें...ऐसे वन में शेर-योद्धा अदि भी में दरें..अंजना की प्रसूति का समय निकट था..तोह वह गुफा के आस आती हैं.गुफा में मुनिराज को देखकर उपदेश सुनती हैं पूर्व भाव के विषय में सुनती हैं की उन्होंने पूर्व जन्म में जिनेन्द्र भगवन की प्रतिमा को आर निकाल दिया था...वोह भी कुछ क्षण के लिए...फिर संयमश्री माता जी के समझाने पर मानी,व्रत धारण किये....इसलिए वह कुयोनियों में भटकने से बच गयीं...और अंजना हुईं....अपने पूर्व भव के बारे में जानकर अति दुखी होती hain....तब मुनिराज वन से विहार कर जाते हैं...अंजना और वसंत-तिलिका के सामने शेर आता है..तोह उनकी गन्धर्व देव रक्षा करते हैं...जो की शुभ कर्म के उदय से ही होता है...,प्रसूति में बालक का जन्म होता है...उसमें अत्यंत रौशनी होती है...,वातावरण सुगन्धित हो जाता है...तभी एक चमकती हुआ विमान आकाश-मार्ग से वन में उतरता है..जो की अंजना के मामा होते हैं...अंजना मामा को न पहचान-पाती हैं..लेकिन काफी समझाने पर उर प्रमाण देने पर पहचानती हैं...अंजना के मामा,उन्हें हनुरूह नगर ले जाते रास्ते में बालक विमान से गिर जाता...जिससे पत्थर टूट-जाता है,बालक का नाम -श्रीशैल रखा जाता है...हनुरूह नगर में आने के कारण बालक का नाम हनुमान रखा जाता है....उधर जब पवंजय युद्ध से लौट कर आते हैं,अंजना को न पाकर अति दुखी होते हैं,ससुराल भी जाते हैं वहां भी अंजना नहीं होती है..अंत में हर-वन में नगर में ढूंढते हैं..अंजना नहीं मिलती हैं..तब वह एक वन में पेड़ के नीचे मौन होकर बैठ जाते हैं.मित्र प्रहस्त राजा को सारी घटना सुनाता है...जिससेपु रे राज्य में, रानी के यहाँ हाहाकार होता है,पुरे विज्यार्ध पर्वत में दूत भेजे जाते हैं..दूत हनुरूह नगर भी जाते हैं..इसलिए वहां अंजना को पाकर अंजना के मामाजी भी पवंजय को लेने और अंजना का विश्वास दिलाने के लिए जाते हैं....वन में पवंजय किसे से कुछ नहीं बोलते हैं.लेकिन तब अंजना के मामाजी अंजना के वहां होने की और पुत्र की बात सुनते हैं तोह सीधे हनुरूह नगर में जाते हैं..और वहां अंजना और पवंजय का मिलन होता है..यही है अंजना सती की कथा.

अब प्रश्न आपसे यह है की
१.हम इस कहानी से क्या-क्या शिक्षा ले सकते हैं?,२.अंजना को यहाँ पर सती क्यों कहा गया?..
लिखने का आधार श्री रविसेनाचार्य द्वारा विरचित शास्त्र श्री पदम् पुराण है..शास्त्र में दिए गए विस्तार के वर्णन को बहुत ही कम शब्दों में समेट कर लिखा है...

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❖ ✿ रावण [ प्रतिनारायण ] ने किस प्रकार धर्म का उपदेश भगवान श्री अनंत वीर्य केवली जो श्री मुनि-सुव्रत नाथ भगवान के निर्वाण गमन के बाद हुए, रावण ने उनसे धर्म का उपदेश भी लिया था और नियम भी ग्रहण किया था, आइये पढ़ते हैं उस घटना के बारे में और विशेषत उस नियम के बारे में ✿

एक बार रावण सुमेरु पर्वत के दर्शन कर आ रहे थे, आकाश मार्ग से पुष्पक विमान से 6 कुलाचल और सात-क्षेत्रों को निहारते... तब ही एक उद्यत-शब्द की आवाज सुनाई दी... तब वह मारीच मंत्री से आवाज के बारे में पूछते हैं..तब वह बताते हैं की यहाँ स्वर्ण पर्वत के नीचे श्री अनंत-वीर्य केवली भगवान की गन्धकुटी आई हुई है..इसलिए देवों के मुकुट से आसमान लाल हो गया है और आवाज भी देवों की ही आ रही है...ऐसा जानकार रावण वहां गन्धकुटी में गए और विद्याधरों के स्थान पर बैठ गए..तब वहां एक व्यक्ति ने भगवन से कहा की हे भगवन यहाँ सब धर्मं,अधर्म का स्वरुप जानना चाहते हैं..इसलिए कहें...फिर केवल ज्ञानी अनंत-गुण और अनंत पर्याय को जानने वाले भगवन कहते हैं की यह जीव अनादी काल से अष्ट कर्म रुपी बंधन में फंसा हुआ है..और इन्द्रिय भोग रुपी वेदना इसे अनादी काल से सता रही है..संसार में इन्द्रिय सुखों में तल्लीन रहता है..मनुष्य हो कर भी आयु को व्यथा बिगाड़ता है..जो जीव शराब अदि पीते हैं वह नरक जाते हैं..कैसा है नरक महा दुखों से भरा..वहां उसे कांच गला-गला कर पिलाया जाता है..जो जीव मांस-भक्षण करते हैं उन्हें नरक में उन्ही का मांस खिलाया जाता है...जो जीव कुशील में रत, पर स्त्री सेवन करते,व्यसनों में लीन रहते..पंचेंद्रिया के भोगों में तल्लीन होकर दुश कृत्य करते,माता-पिता परिवारियों की हत्या करते,पर को दुःख देते,पशु काटते,जीवों को मारते,शिकार जाते,कंदमूल खाते वह जीव नरक में जाते हैं घोर दुखों को सहन करते हैं..जो जीव मायाचारी-माया कषय में लीं रहते..वह तिर्यंच योनी में जाते,क्षेदन,भेदन,भूख-प्यास के दुःख सहते हैं....जो जीव खोटी क्रियाओं में धर्म मानते,हिंसा में धर्म,खोटी क्रियाओं में,बलि चढाने में स्वर्ग के सपने दिखाते,ऐसा कथन करते,शास्त्रों में लिखते वह दुष्ट है..और वह भी कुयोनी में जाते..और संसार भ्रमण करते..शुद्ध परिणामों से मनुष्य योनी मिलती है...देवों के भी सुख नहीं होता..देव अज्ञान तप से भी बन जाते हैं..उसमें भी अल्प -ऋद्धि धारी और ज्यादा ऋद्धियों वाले देव..उनमें जलन..इद्न्रिया भोगों के बाद भी तृप्ति नहीं होती..

दान तीन प्रकार से दिए जाते हैं 1.उत्तम पात्र जो मुनिराज है वह 2.माध्यम पात्र -श्रावक-श्राविका को..और 3.जघन्य पात्र-सम्यक-दृष्टी श्रावक को..उत्तम पात्र को दान-देने से उत्तम-भोगभूमि,माध्यम पात्र को दान देने से माध्यम-भोग भूमि और जघन्य पात्र को दान-देने से जघन्य भोग भूमि...लंगड़े,दीं-दुखियों पर दया करुना दान है..करुणा दान पात्र दान के बारबार नहीं है..मिथ्यादृष्टि,मिथ्या धारणाओं को अपनाने वालों का दान देना महा-पाप है, हिंसक,क्रोधी,मानी,मायावी और स्त्री अदि रखने वाले लोगों को दान-देना श्रद्धा-वश दान देना महा-पाप है..दुःख का कारण है..जिसके पास सब है उसको दान-देने का क्या प्रयोजन?..जो वस्त्रादि रखते हैं,स्त्री रखते हैं..राग-द्वेष युक्त हैं..वह कुदेव है..जहाँ राग-द्वेष है वहां मोह है..और जप मोहि है वह संसारी है..वह भगवान् नहीं हो सकता...इच्छाओं क पूर्ती पूर्व जन्म के या पूर्व कर्मों के कारण होती है..इन कुदेवों से नहीं..इनको दान-देना,पूजा अदि करना गृहीत मिथ्यात्व है..जो हिंसा-दान में,अस्त्र-शस्त्र दान में धर्म-बताते..हिंसा में त्रस-जीव,विकल त्रय जीवों की हिंसा में धर्म बताते ऐसे धर्मों में भी दान-देना पाप का कारण है..भूमि दान देना पाप का कारण है..लेकिन जिन मंदिर के लिए भूमि देना पुण्य का कारण है…

क्योंकि जिस प्रकार सरोवर पे एक दो बूँद विष की गिर जाने से सरोवर विषैला नहीं हो जाता..इसलिए जिन-मंदिर बनवाने की हिंसा में पाप नहीं होता..क्योंकि जितना हिंसा का पाप लगता है...उससे कई गुना पुण्य होता है.या सिर्फ पुण्य ही मिलता है.संसार में जिनेन्द्र देव ही मुक्ति का कारण है..मिथ्या-देव नहीं..जो खुद लंगड़ा है क्या वह किसी दुसरे को देशांतर ले जा सकता है?..इसी प्रकार जिनेन्द्र देव ही भव-सागर से मुक्ति का कारण है...जो अस्त्र-वस्त्र धारण करें,परिग्रह करें और अपने आप को पूजनीय मानें..वह पापी है..संसार में डुबाते हैं..इनको श्रद्धा-वश दान-देने में पाप-अर्जन है..

जिनेन्द्र देव के द्वारा बताये हुए धर्म का लक्षण सुनो..एक मुनि धर्मं है..जो मुनिराज पालन करते हैं..वह 3 गुप्ती,पांच समितियां पालन करते हैं..5 महाव्रत,7 शेष गुण..6 आवश्यक पालन करते हैं..तरह-तरह की निधिओं के स्वामी होते हैं..चाहे तोह धरती हिला दे,बारिश करवा दें..सब सामर्थ्यवान होते हैं..लेकिन चरित्र से डिग नहीं होते..धर्म रक्षा के लिए ऐसा भी करते हैं..वह मुनि उसी भाव में सिद्ध पद प्राप्त करते हैं..इसी भव में नहीं तोह तीसरे भव में प्राप्त करते हैं..बीच में इन्द्रों की नरेन्द्रों की...स्वर्ग के देवों के सुख भोगते हैं..स्वर्ग के सुख अनुपम हैं..देवों में सुन्दर जिनालय होते हैं..पदम्-राग मणि के,इन्द्र नील मणि के तथा तरह-तरह की मणियों से सुशोबित ऊँचे-ऊँचे,शिखरों से सुशोभित जिन मंदिर होते हैं..उन देवों के शारीर सप्त-धातु रहित होते हैं..वह शारीर वीर्य-रज का नहीं होता है...पसीने नहीं आते,भूख लगे-प्यास लगे तोह अमृत झर आये..टाँगे चांदी सामान सुन्दर....उत्पाद शैया से जनम लेते हैं..एक की आयु पूरी होती है..दुसरे देव आ जाते हैं...बहुत समय तक देव गति में रहते हैं...जो की सिर्फ धर्म की वजह से है..जिनेन्द्र देव के द्वारा बताया हुआ धर्म ही इसका कारण है..तरह-तरह की चक्रवती आदियों की आयु पाते हैं..लाखों सेवक सर झुकाते हैं..सिर्फ धर्म के माध्यम से ही यह संभव है..यह तोह मुनि धर्म का वर्णन हुआ..अब स्नेह आग में पड़े हुए श्रावक धर्म का वर्णन सुनो..श्रावक व्रत या मुनि धर्म मनुष्य पर्याय में ही पाले जाते हैं इसलिए मनुष्य पर्याय ही श्रेष्ठ है..जिस प्रकार पशुओं में सिंह,पक्षिओं में गरुण,वृक्षों में चन्दन का वृक्ष..पाषण में रत्ना,देवों में इन्द्र श्रेष्ठ है..उसी प्रकार योनिओं में मनुष्य योनी श्रेष्ठ है..मनुष्य योनी मिलने का बाबजूद भी जो जीव श्रावक या मुनिओं के व्रत धारण नहीं करे..वह कुगतियों में भ्रमण करता है...फिर केवली भगवान श्रावक के वर्तों का वर्णन करते हैं....

तभी कमल-नयनी कुम्भकरण भगवान से कहते हैं हे भगवान अब भी तृप्ति नहीं हुई...इसलिए एक बार और धर्म का स्वरुप कहें..तब भगवान कहते हैं अब विशेष रूप से धर्म का वर्णन सुनो..पहले मोक्ष-मार्ग के कारण-आठों कर्मों के नाश में कारण मुनि धर्म का स्वरुप कहते हैं...केवली भगवान मुनियों का धर्म कहने के बाद पुनः श्रावक का धर्म कहते हैं...श्रावक के धर्म में दशो-दिशाओं के प्रमाण,देश व्रत,अप्ध्याँ अदि व्रतों का पूरा संक्षेप में वर्णन करते हैं..कहते हैं की इन श्रावक के व्रतों को पालकर जीवों को 16 स्वर्गों तक की विभूतियाँ मिलती हैं..जो की सिर्फ धर्म का प्रभाव है..यह धर्म ही संसार रुपी वन से तारने में समर्थ है..कैसा है संसार सागर?..यह संसार सागर से मोह-रुपी अन्धकार से भरा हुआ.कषाय रुपी सांप जीव को डस रहे हैं..विषय चाह रुपी आग जलाती रहती है..जिससे यह जीव सिर्फ मनुष्य योनी मिलने के बाद ही मुक्त हो पाटा है..मनुष्य योनी के मिलने के बाद भी नियमों का,चरित्र कोan धारण नहीं किया..तोह वह जीव महा-मूर्ख है..जिस प्रकार कोई मूर्ख धागे के लिए रत्नमयी हार को चूर-चूर कर देते हैं..उसी प्रकार यह जीव क्षणिक विषय सुखों के लिए धर्म-रुपी हार को चूर-चूर कर देता है...जिस प्रकार पत्थर की नाव खुद भी डूबती और आश्रितों को भी डुबोती है..उसी प्रकार यह कुतीर्थ का श्रद्धां..मिथ्या गुरुओं का श्रद्धान जीव को संसार रुपी सागर में डुबोता है….

जो परिग्रह के धारी है..वह मिथ्यगुरु हैं..वह संसार रुपी सागर से नहीं टार सकते.क्योंकि वह विषय कषायों में पड़े हुए..आत्मा सुख का अनुभव ही नहीं करते हैं..न आत्मा को जानते हैं..उनके पूजने से तोह मोह-मिथ्यात्व ही पुष्ट हो सकता है..जिसके कारण यह जीव अशुभ गतियों में ही गिर सकता है..कभी संसार से नहीं टर-सकता....धर्म ही सुख का कारण है..धर्म के बिना सुख नहीं है..यह जीव अनंत काल से विषय कषायों को पुष्ट कर रहा है..तब भी इससे विरक्त नहीं होता...यह बड़ा आश्चर्य है...धर्म को धारण करने वाले को स्वर्ग के भोग क्या अह्मिन्द्र के पद भी मिल जाते हैं...और अगले भव से मोक्ष को प्राप्त करते हैं..और सदा सुख को पाते हैं..लेकिन यह बड़ी मूर्खता है की यह जीव धर्म को धारण नहीं करता है..और अधर्म को हितकारी मानता है..केवली भगवन यम और नियम का स्वरुप बताते हुए..रात्री भोज के पापों का वर्णन करते हैं.रात्री भोज करने वाला राक्षस के सामान है..सबसे असुद्ध खाना रात्री भोज ही है..अनेक इस जन्म की और अनंत जन्मों में होने वाली बीमारियों का कारण है..रात्री भोज करने वाले को छोटा कद,असम्मान,बुराइयां,दरिद्रता..और यहाँ तक की तरस-स्थावर-निगोड की पर्यायों में भी भटकना पड़ता है..यह बड़ी जड़ता है की मिथ्यमातों में इसी में धर्म बता दिया है..पूरे दिन भूखे रहो..और रात्री भोज करके पाप कमाओ..धर्म अहिंसा में ही हैं..हिंसा अधर्म है..और दुःख का कारण है..ऐसे धर्म को जान्ने के लिए बड़े बिरले लोग श्री गुरु के पास धर्म का स्वरुप जानने ले लिए जाते हैं....तरह-तरह के व्रतों को धारण करते हैं..और मोक्षमार्ग प्रशस्त करते हैं...जो जीव ऐसा नियम लेते हैं की मुनि को आहार कराये बिना आहार नहीं करूँगा.वह धन्य है..महा-स्वर्ग की विभूतियाँ पाते हैं..और वहां से मनुष्य हो-कर मोक्ष जाते है...इस प्रकार अनंत-वीर्य केवली भगवान ने धर्म का स्वरुप कहा..जिससे सब जीव हर्षित हुए..

** बहुतों ने श्रावक व्रत धारण किये..बहुतों ने मुनि-व्रत धारण किये..बहुतों ने नियम लिए..इन्द्र अदि सम्यक्त्व को प्राप्त हुए...तब एक मुनिराज ने रावण से भी कहा की "हे भव्य तुम भी कुछ नियम लो"...तोह रावण ने सोचते हैं की मैं आहार तोह शुद्ध ही करता हूँ,अभक्ष्य पधार्थ रहित भोजन करता हूँ..रात्री भोजन करता नहीं..श्रावक व्रत धारने में असमर्थ हूँ...और मुनि-व्रत तोह अत्यंत दुर्लभ है..मैं पहाड़ को उठाने वाला,पवन के वेग से चलने वाला..एक नियम लेने में घबरा रहा हूँ..धन्य हैं मुनिराज..ऐसा जानकार अपने मन में विचारते हैं की जो स्त्री मुझे नहीं चाहेगी..उसके साथ मैं बलात्कार नहीं करूँगा...तब वह अपना नियम मुनिराज से सबके सामने कहते हैं..कुम्भकरण भी नियम लेते हैं की वह रोज जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक करूँगा,नित-पूजा प्रक्षाल करेंगे..और मुनि को भोजन दे-कर ही आहार करेंगे..इस प्रकार तरह-तरह के जीवों ने व्रत-नियम-सम्यक्त्व-महा-व्रतों को धारण किया..और सब ही अपनी जगह चले गए… **

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