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❖ संत कहते हैं सँसार का मार्ग बड़ा खतरनाक है! इस मार्ग पर तुम्हे कदम कदम पर संभल कर चलना पड़ता है! थोड़ी सी भी चूक हुई तो गए काम से!जैसे कोई हिमालय पर चढ़ना चाहता हो तो उसे एक एक कदम संभाल कर चढ़ना पड़ता है! सजगता और सावधानी से,क्योंकि एक कदम भी संतुलन गडबडाया तो उसे नीचे आने से कोई नही रोक सकता है!
धर्मात्मा जीव भी अपने जीवन को उत्कर्ष तक ले जाना चाहता है! उसका ध्येय ऊँचाई तक जाना है,शिखर को छूना है,तो उसके लिए सावधानी भी निहायत जरूरी है! और इसी सावधानी का नाम है संवेग! शास्त्रों मे लिखा है "सँसार से भय का नाम संवेग है " कुछ लोग कहेंगे की महाराज! ये कहा जाता है कि भय तो मनुष्य की एक बड़ी दुर्बलता है और इस भय को दूर करना चाहिये और अभय का उपदेश दिया जाता है? पर यहाँ तो भय का उपदेश दिया जा रहा है और वह भी एक सम्यक दृष्टि की विशेषता के रूप मे! हाँ,बंधुओं! सम्यक दृष्टि और अज्ञानी मे यही अन्तर है! सम्यक दृष्टि सँसार से भय करता है और मिथ्यादृष्टि अज्ञानी सांसारिक लोगों से! संसारी परिस्थितयों से भागना अज्ञानी का काम है और सांसारिक परिस्थितियों से भय रखकर जागरूक रहना यह ज्ञानी का लक्षण है! बहुतेरे लोग ऐसे हैं जिनके जीवन मे कोई ना कोई भय व्याप्त रहता ही है! कभी कभी वह इन परिस्थितियों से पीठ दिखाकर भागना भी शुरू कर देते हैं,संत कहते हैं भागो नही जागो! भाग कर के जाओगे कहाँ?
रास्ते पर चल रहे हैं और आगे बहुत गहरी खाई है पर सडक के किनारे यदि संकेत सूचक चिन्ह है जो ये बता रहे हैं आगे कुछ दूरी पर गहरी खाई है तो इसका मतलब यह नही कि इस खाई को देखकर तुम गाडी मोड दो! उस मार्ग सूचक संकेत का आशय सिर्फ इतना है कि आगे तुम अपने ब्रेक को संभाल लो! जिस गति से तुम अभी चल आरहे हो उस गति से न चलाकर कुछ धीमी गति से, सावधानी से चलो!
संत भी यही कहते हैं,जीवन मे ढलान है तो अपने ब्रेक संभाल लो,ताकि तुम गर्त मे गिरने से बच जाओ! सावधानी से अपना जीवन जियो! बस यही है संवेग! हमारे सद्गुरु जो संकेत देते हैं,हमारे शास्त्र जो मार्ग दर्शन देते हैं उनकी उपेक्षा करके जो इस सँसार के मार्ग पर आगे बढते हैं उनका जीवन हमेशा के लिए विनष्ट हो जाता है! भव भावान्त्रों से हमारे साथ यही होता आया है! हमने अपने सँसार कि यात्रा को आँख मूंदकर आगे बढ़ाया है और नतीजे मे हमेशा ही हमें नर्क और निगोद का पात्र बनना पड़ा है! इसीलिए संत कहते हैं सँसार से भागो नही सँसार मे जागो
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सदा दूसरे की ओर दौड़ने वाले चित्र का नाम कामना एवं वासना है। क्योंकि कामना दुःख है, वासना दुःख है। महावीर ने उसे वासना, तो बुद्ध ने उसे तृष्णा कहा है। नाम चाहे जो भी दें- वह दूसरे को चाहने की ही दौड़ है। वही दुःख है।
मंगल क्या है? सुख क्या है? आनंद क्या है? निश्चित ही वह उस समय मिलेगा, जब हमारी वासना कहीं दौड़ नहीं रही होगी। वासना का दौड़ना आत्मा का खो जाना है।
भगवान महावीर कहते हैं, 'अहिंसा संजमो तवो'। इतना छोटा सूत्र शायद ही जगत में किसी ने कहा हो जिसमें सारा धर्म समा जाए। अहिंसा धर्म की आत्मा है। धर्म का सेंटर है। तप धर्म की परिधि है और संयम केंद्र एवं परिधि को जोड़ने वाला बीच का सेतु है।
ऐसा समझ ले अहिंसा आत्मा, तप शरीर और संयम प्राण है। वह जो दोनों को जोड़ती है- श्वास है। श्वास टूट जाए तो शरीर भी होगा, आत्मा भी होगी, लेकिन आप न होंगे। संयम टूट जाए तो तप भी हो सकता है, अहिंसा भी हो सकती है, लेकिन धर्म नहीं हो सकता।
भगवान महावीर की दृष्टि में अहिंसा आत्मा है। अहिंसा पर क्यों महावीर इतना जोर देते हैं। महावीर कहते हैं अहिंसा, कोई कहता है परमात्मा, कोई कहेगा सेवा, कोई ध्यान, कोई योग, कोई प्रार्थना, कोई कहेगा पूजा। महावीर कहते हैं यह अहिंसा एवं तप दौड़ती हुई ऊर्जा को ठहराने की विधियों के नाम हैं। जब वह रुक जाएगी तो स्वयं में रमेगी, स्वयं में ठहरेगी, स्थिर होगी। जैसे कोई ज्योति वायु के वेग से कंपे नहीं वैसी।
कामना व वासना अंदर की महत्वपूर्ण ऊर्जा को बहा ले जाने के कारण हैं व हिंसा के द्वार। जब तक ये द्वार बंद नहीं होंगे, तब तक हमारी ऊर्जा अहिंसा का सार्थक पुरुषार्थ नहीं कर पाती है।
इसीलिए महावीर स्वामी कहते हैं, जहां कामना है, वासना (तृष्णा) है, वहां अहिंसा नहीं है और जहां अहिंसा नहीं, वहां धर्म भी नहीं हैं।
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❖ राजस्थान के करौली जिले में स्थित जैन तीर्थ श्री महावीर जी, जैन धर्म के साथ दूसरे लोगों के बीच भी अपार श्रद्धा का केंद्र है। आमतौर पर हमारे देश में एक शिखर वाले मंदिर बहुतायत में हैं, लेकिन यहां स्थित तीन शिखर वाले मंदिर की बात ही कुछ और है। इस मंदिर में देश-विदेश से जैन धर्मानुयायियों के अलावा पूरे राजस्थान से गुर्जर और मीणा समुदाय के लोग भी आते हैं। यही वजह है कि हर साल महावीर जयंती के मौके पर यहां लगने वाले मेले में जैनियों के अलावा दूसरे संप्रदायों के लोग भी काफी संख्या में आते हैं। इस मेले को राजस्थान टूरिज़म प्रदेश के महत्वपूर्ण आयोजनों में से एक मानता है।
नई दिल्ली स्टेशन से सुबह साढ़े सात बजे स्वर्ण मंदिर मेल से हमारी यात्रा की शुरुआत हुई। श्रीकृष्ण की नगरी मथुरा, केवलादेव पक्षी विहार के लिए प्रसिद्ध भरतपुर और बयाना जंक्शन पर रुकती हुई ट्रेन 12 बजे श्री महावीर जी स्टेशन पर पहुंच गई। स्टेशन पर उतरते ही वहां भगवान महावीर की प्रतिमा देखकर मन पवित्र हो जाता है। वहां हरेक ट्रेन के वक्त पर यात्रियों को स्टेशन से लेने के लिए मंदिर कमिटी की बस आती है। उसी बस से हम मुख्य मंदिर तक पहुंचे। कमरा आदि बुक कराने के बाद हम तरोताजा होकर अन्नपूर्णा भोजनालय में गए। घर से बाहर इतना शुद्ध और सात्विक भोजन खाकर तबीयत प्रसन्न हो गई। कुछ देर तक कमरे पर विश्राम करने के बाद हम शाम को आरती के लिए मंदिर पहुंचे। आरती के लिए जैन धर्मानुयायियों के अलावा सिर पर पगड़ी बांधे गुर्जर और मीणा समुदाय के लोग भी मौजूद थे। उनके साथ लंबे-लंबे घूंघट निकाले महिलाएं भी पूरे उत्साह से आरती में भाग ले रही थीं। श्रद्धालु अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए मंदिर के चारों और फेरी (परिक्रमा) लगा रहे थे।
यहां स्थित भगवान महावीर को 'टीले वाले बाबा' के रूप में जाना जाता है। इसके बारे में एक लोक कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि आज से करीब 400 साल पहले श्री महावीर जी गांव को चांदनपुर के नाम से जाना जाता था। वहां एक ग्वाला अपने परिवार सहित रहता था। एक दिन जब उसकी गाय जंगल से चरकर लौटी, तो उसने बिल्कुल दूध नहीं दिया। रोज-रोज ऐसा होना गरीब ग्वाले के लिए परेशानी का सबब बन गया। एक दिन परेशान ग्वाला गाय का पीछा करते हुए जंगल में पहुंचा, तो गाय एक टीले के ऊपर खड़ी हो गई और थनों से अपने आप दूध बहने लगा। यह देखकर ग्वाला डर गया और घर भाग आया। घर आकर उसने बताया कि जंगल वाले टीले में कोई देव है, जो हमारी गाय का दूध चुरा लेता है। उसने टीले को खोदकर उसकी सचाई जानने की सोची। पूरे दिन टीले की खुदाई करने के बावजूद उसे कुछ नजर नहीं आया। रात को उसे सपना आया कि कल भी खुदाई जारी रखना।
अगले दिन थोड़ी ही खुदाई करने पर उसे जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर की यह मनभावन मूर्ति मिली। ग्वाले ने मूर्ति को वहीं विराजमान कर दिया और खुद भी वहीं रहने लगा। रोज सुबह उठकर मूर्ति को दूध चढ़ाता और शाम को घी के दीपक से आरती करता। धीरे-धीरे आसपास के गांवों के लोग भी वहां आने लगे। श्री महावीर जी में हर साल महावीर जयंती के अवसर पर चैत्र शुक्ल 13 से वैशाख कृष्णा द्वितीया तक पांच दिवसीय मेला लगता है। इस मेले में प्रभु की प्रतिमा को रथ पर बैठा कर गंभीर नदी के तट पर ले जाया जाता है। साथ में उत्साह से भजन गान कर रहे भक्तों की मंडली होती है। नदी तट पर भव्य पंडाल में प्रतिमा का अभिषेक किया जाता है। इस रथ यात्रा का खास आकर्षण मीणा और गुर्जर समुदाय की नृत्य मंडलियां होती हैं।
पंडाल जाते वक्त मीणा और आते वक्त गुर्जर नर्तक अपना कमाल दिखाते हैं। भगवान के रथ का संचालन सरकारी अधिकारी द्वारा किया जाता है। श्री महावीर जी स्टेशन पश्चिमी रेलवे की दिल्ली-मुंबई बड़ी रेल लाइन पर स्थित है। यहां सभी एक्सप्रेस ट्रेन रुकती हैं। इसके अलावा दिल्ली से बस सेवा भी उपलब्ध है। श्री महावीर का निकटतम एयरपोर्ट जयपुर है।
मंदिर कमिटी की धर्मशालाओं में डीलक्स और एसी रूम में रुकने की व्यवस्था है। मंदिर से थोड़ी ही दूरी पर फाइव स्टार रिजॉर्ट सुविधा भी उपलब्ध है। खाने-पीने के लिए मंदिर कमिटी की अन्नपूर्णा भोजनशाला के अलावा निजी भोजनालय भी हैं।
श्री महावीर जी में मुख्य मंदिर के अलावा तीन और जिन (जैन) मंदिर हैं। इनमें मुख्य मंदिर के पास ही स्थित कांच का मंदिर विशेष तौर पर दर्शनीय है। साथ ही मुख्य मंदिर के नीचे स्थित ध्यान केंद्र में स्थित सैकड़ों रत्न प्रतिमाएं भी दर्शकों के आकर्षण का केंद्र होती हैं। पास ही स्थित म्यूजियम में खुदाई में समय-समय पर मिले अभिलेख आदि संग्रह करके रखे गए हैं। इनसे जैन कला और संस्कृति को करीब से जानने का मौका मिलता है। यहां स्थित पुस्तकालय में जैन संस्कृति से संबंधित प्राचीन ग्रंथ और पांडुलिपियां भी मौजूद हैं। अगर थोड़ा वक्त लेकर जाया जाए, तो श्री महावीर जी से 90 किलोमीटर आगे चमकौर जी जैन मंदिर और रणथंभौर नैशनल पार्क देखे जा सकते हैं। इसी तरह दिल्ली वापस आते वक्त श्री महावीर जी से 84 किलोमीटर पहले भरतपुर पक्षी विहार भी देखा जा सकता है।
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