17.12.2015 ►Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt ►News

Published: 17.12.2015
Updated: 05.01.2017

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✿ सूत्र १: समस्या बाहर नहीं, अन्दर है

जीवन में देखो तो समस्यायें बहुत हैं। परिवार में कितनी परेशानियां, समाज में कितनी परेशानियां, भारत में कितनी परेशानियां है।

तो प्रश्न उठता है कि हम क्या करें? क्या जाग उठे, और मिटा दे इन सब समस्याओं को। एक कर्मठ व्यक्ति की तरह जुट जायें और जमे रहे जब तक ये विषमतायें ध्वंस नहीं हो जाती।

श्रीगुरू कहते है - नहीं। दो दृष्टियां हैं। दूसरे को सुधारना, उठाना तो लौकिक दृष्टि है। अपने को सुधारना, उठाना आध्यात्मिक दृष्टि है।

शिष्य प्रश्न करे ऐसा क्यों? श्रीगुरू करूणा पूर्वक समझाते हैं कि ये जो समस्या भिन्न भिन्न रूपों में बाहर में दिखाई देती हैं, ये वास्तव में बाहर नहीं तुम्हारे अन्दर हैं। जितनी दुनिया हमें दिखाई देती है, ऐसी अनगिनत दुनिया पूरे लोक के अन्दर हैं। तुम्हारी एक दुनिया है, जो चींटी हमारे घर की नाली की दिवारो पर रहती है, उसकी एक दम अलग दुनिया। उसकी समस्यायें भी एकदम अलग प्रकार की है। ऐसे ही एक मकङी की दुनिया है जो जाले पर झूलती रहती है, और नये जाले बुनती रहती है। इसी ही प्रकार मच्छरो, चमगादङ, छोटी मछली, बङी मछली की अपनी अपनी दुनिया है और उनकी अपनी अपनी समस्यायें हैं।

जानवरो की तो बात ही और, इन्सानो में भी तो अलग देश मे जन्मे लोगो की दुनिया अलग और समस्यायें अलग। अलग देश छोङो, एक ही देश में भिन्न भिन्न व्यक्तियों के अनुभव, ज्ञान और भावो के आधार पर उनकी दुनिया अलग और समस्यायें भी अलग।

जिस प्रकार के हमने कर्म किये उसी प्रकार की दुनिया में हम चले जाते हैं। इसलिये समस्यायें वास्तव मे दुनिया मे नहीं वरन अपने मे हैं। और इसका समाधान भी बाहर नहीं वरन अपने भीतर ही है। हम अन्दर की दुनियां सुधार लेंगे तो सहज ही बहिरंग दुनिया भी सर्व सुन्दर मिल जायेगी, और अगर बाहरी दुनिया में ही लगे रहे तो दुनिया से बन्धन कभी तोङ नहीं पायेंगे।

शिष्य प्रश्न करे- क्या लोक की समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता? श्रीगुरू कहते हैं - अगर इनका समाधान हो सकता होता, तो अनादि काल से लोक की सत्ता है - इनका समाधान हो गया होता। इन समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। तुम्हारा इष्ट इसी में है कि तुम अपना समाधान कर लो।

शिष्य प्रश्न करे- तो क्या पर उपकार कदापि ना करे। तो श्रीगुरू कहते हैं- अपने को सुधारने के पथ पर अपने अन्तरंग को पवित्र करने के लिये और स्थूल पाप भाव से बचने के लिये पर उपकार में भी निमित्त बनो।

इस प्रकार हम बाहर में समस्यायें ना देखकर बाहर से राग-द्वेष ना करे। वरन उसका मूलकारण अपने अंतरंग को जानकर उसे परम पवित्र करें। जिससे परम पवित्र सिद्धलोक की केवलज्ञान रूपी दुनियां में हमारा वास होये।

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✿ श्रुत पंचमी - जिन के प्रतिपादित वाणी - जिनवाणी की सच्ची पूजा अर्थात संयम का महापर्व |

भगवान महावीर के निर्वाण से 683 वर्ष व्यतीत होने पर आचार्य धरसेन हुए, सभी अंगों ओर पूर्वों का एक देश का ज्ञान आचार्य परम्परा से धरसेनाचार्य को प्राप्त था, आचार्य धरसेन कठियावाड में स्थित गिरनार पर्वत की चान्द्र गुफा में रहते थे| जब वह बहुत वृद्ध हो गए ओर अपना जीवन अत्यल्प कम देखा, तब उन्हें यह चिन्ता हुई कि अवसर्पिणी काल के प्रभाव से श्रुतज्ञान [जिनवाणी का ज्ञान] का दिन पर दिन ह्रास होता जा रहा है| इस समय मुझे जो कुछ श्रुत प्राप्त है, उतना भी यदि मैं अपना श्रुत दुसरे को नहीं संभलवा सका, तो यह भी मेरे ही साथ समाप्त हो जाएगा| इस प्रकार की चिन्ता से ओर श्रुत-रक्षण के वात्सल्य से प्रेरित होकर उन्होंने उस समय दक्षिणापथ में हो रहे साधु सम्मेलन के पास एक पत्र भेज कर अपना अभिप्राय व्यक्त किया| सम्मेलन में सभागत प्रधान आचार्यं ने आचार्य धरसेन के पत्र को बहुत गम्भीरता से पढ़ा ओर श्रुत के ग्रहण और धारण में समर्थ, नाना प्रकार की उज्जवल, निर्मल विनय से विभूषित, शील-रूप माला के धारक, देश, कुल और जाती से शुद्ध, सकल कलाओं में पारंगत ऐसे दो साधुओं को धरसेनाचार्य के पास भेजा |

जिस दिन वह दोनों साधु गिरिनगर पहुँचने वाले थे, उसकी पूर्व रात्री में आचार्य धरसेन ने स्वप्न में देखा कि धवल एवं विनम्र दो बैल आकर उनके चरणों में प्रणाम कर रहे है| स्वप्न देखने के साथ ही आचार्य श्री की निद्रा भंग हो गई और ‘श्रुत-देवता जयवंत रहे’ ऐसा कहते हुए उठ कर बैठ गए| उसी दिन दक्षिणापथ से भेजे गए वह दोनों साधु आचार्य धरसेन के पास पहुंचे और अति हर्षित हो उनकी चरण वन्दनादिक कृति कर्म करके और दो दिन विश्राम करके तीसरे दिन उन्होंने आचार्य श्री से अपने आने का प्रयोजन कहा| आचार्य श्री भी उनके वचन सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और ‘तुम्हारा कल्याण हो’ ऐसा आशीर्वाद दिया|

नवागत साधुओं की परीक्षा --- आचार्य श्री के मन में विचार आया कि पहले इन दोनों नवागत साधुओं की परीक्षा करनी चाहिए कि यह श्रुत ग्रहण और धारण आदि के योग्य भी है अथवा नहीं? क्योंकि स्वच्छंद विहारी व्यक्तियों को विद्या पढाना संसार और भय का ही बढ़ाने वाला होता है| ऐसा विचार करके उन्होंने इन नवागत साधुओं की परीक्षा लेने का विचार किया| तदनुसार धरसेनाचार्य ने उन दोनों साधुओं को दो मंत्र-विद्याएँ साधन करने के लिए दीं| उनमें से एक मंत्र-विद्या हीन अक्षर वाली थी और दूसरी अधिक अक्षर वाली| दोनों को एक एक मंत्र विद्या देकर कहा कि इन्हें तुम लोग दो दिन के उपवास से सिद्ध करो| दोनों साधु गुरु से मंत्र-विद्या लेकर भगवान नेमिनाथ के निर्वाण होने की शिला पर बैठकर मंत्र की साधना करने लगे |

मंत्र साधना करते हुए जब उनको यह विद्याएँ सिद्ध हुई, तो उन्होंने विद्या की अधिष्ठात्री देवताओं को देखा कि एक देवी के दांत बहार निकले हुए हैं और दूसरी कानी है| देवियों के ऐसे विकृत अंगों को देखकर उन दोनों साधुओं ने विचार किया कि देवताओं के तो विकृत अंग होते ही नहीं हैं, अतः अवश्य ही मंत्र में कहीं कुछ अशुद्धि है| इस प्रकार उन दोनों साधुओं ने विचार कर मंत्र सम्बन्धी व्याकरण में कुशल अपने अपने मंत्रों को शुद्ध किया और जिसके मंत्र में अधिक अक्षर था, उसे निकाल कर, तथा जिसके मंत्र में अक्षर कम था, उसे मिलाकर उन्होंने पुनः अपने-अपने मंत्रों को सिद्ध करना प्रारंभ किया| तब दोनों विद्या-देवता अपने स्वाभाविक सुन्दर रूप में प्रकट हुए और बोलीं - ‘स्वामिन आज्ञा दीजिये, हम क्या करें|’ तब उन दोनों साधुओं ने कहा - ‘आप लोगो से हमें कोई ऐहिक या पारलौकिक प्रयोजन नहीं है| हमने तो गुरु की आज्ञा से यह मंत्र-साधना की है|’ यह सुनकर वे देवियाँ अपने स्थान को चली गईं |

भूतबली-पुष्पदन्त नामकरण --- मंत्र-साधना की सफलता से प्रसन्न होकर वे आचार्य धरसेन के पास पहुंचे और उनके पाद-वंदना करके विद्या-सिद्धि सम्बन्धी समस्त वृतांत निवेदन किया| आचार्य धरसेन अपने अभिप्राय की सिद्धि और समागत साधुओं की योग्यता को देखकर बहुत प्रसन्न हुए और ‘बहुत अच्छा’ कहकर उन्होंने शुभ नक्षत्र और शुभ वार में ग्रन्थ का पढाना प्रारंभ किया| इस प्रकार क्रम से व्याख्यान करते हुए आचार्य धरसेन ने आषाढ़ शुक्ला एकादशी को पूर्वान्ह काल में ग्रन्थ समाप्त किया| विनय-पूर्वक इन दोनों साधुओं ने गुरु से ग्रन्थ का अध्ययन संपन्न किया है, यह जानकर भूत जाती के व्यन्तर देवों ने इन दोनों साधुओं में से एक की पुष्पावली से शंख, तूर्य आदि वादित्रों को बजाते हुए पूजा की| उसे देखकर आचार्य धरसेन ने उसका नाम ‘भूतबली’ रखा |

तथा दूसरे साधु की अस्त-व्यस्त स्थित दन्त पंक्ति को उखाड़कर समीकृत करके उनकी भी भूतों ने बड़े समारोह से पूजा की| यह देखकर धरसेनाचार्य ने उनका नाम ‘पुष्पदन्त’ रखा| अपनी मृत्यु को अति सन्निकट जानकर, इन्हें मेरे वियोग से संक्लेश न हो यह सोचकर और वर्षा काल समीप देखकर धरसेनाचार्य ने उन्हें उसी दिन अपने स्थान को वापिस जाने का आदेश दिया | तब भूतबलि और पुष्पदंत मुनि ने अंकलेश्वर (गुजरात) में आकर वर्षाकाल (चातुर्मास) किया। वर्षाकाल बीतते ही पुष्पदंत आचार्य तो वनवास देश और भूतबलि द्रविड देश को विहार कर गये।

पुष्पदंत मुनिराज महाकर्म प्रकृति प्राभृत का छः खण्डों में उपसंहार करना चाहते थे। अतः उन्होंने बीस अधिकार गर्भित सत्प्ररूपणा सूत्र को बनाकर शिष्यों को पढाया और भूतबलि मुनि अभिप्राय जानने जिनपालित को यह ग्रंथ देकर उनके पास भेज दिया।

आचार्य पुष्पदंत एवं भूतबलि ने 6 हजार श्लोक प्रमाण 6 खण्ड बनाये। 1. जीवस्थान 2.क्षुद्रकबंध 3.बन्धस्वामित्व 4. वेदनाखण्ड 5. वर्गणाखण्ड और 6. महाबन्ध।

भूतबलि आचार्य ने इस षट्खण्डागम सूत्रों को ग्रंथ रूप में बद्ध किया और ज्येष्ठ सुदी पंचमी के दिन चतुर्विध संघ सहित कृतिकर्मपूर्वक महापूजा की। उसी दिन से यह पंचमी श्रुतपंचमी नाम से प्रसिद्ध हो गयी। तब से लेकर लोग श्रुतपंचमी के दिन श्रुत की पूजा करते आ रहे हैं। आचार्य भूतबलि ने जिनपालित को षट्खण्डागम ग्रंथ देकर और श्रुत के अनुराग से चतुर्विध संघ के मध्य जिनवाणी महापूजा कर अत्यंत हर्षित हुए।

श्रुत और ज्ञान की आराधना का यह महान पर्व हमें वीतरागी संतों की वाणी, आराधना और प्रभावना का सन्देश देता है। इस दिन श्री धवल, महाधवलादि ग्रंथों को विराजमान कर महामहोत्सव के साथ उनकी पूजा करना चाहिये। श्रुतपूजा के साथ सिद्धभक्ति का भी इस दिन पाठ करना चाहिये। शास्त्रों की देखभाल, उनकी जिल्द आदि बनवाना, शास्त्र भण्डार की सफाई आदि करना, इस तरह शास्त्रों की विनय करना चाहिये।

ये लेख का कुछ भाग एलाचार्य श्री अतिवीरसागर जी महाराज के लेख से, और कुछ भाग श्रीमती सुशीला पाटनी द्वारा लिखे गए लेख से लिया गया है....

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✿ श्रुतपंचमी पर्व -शास्त्र रक्षा का महापर्व है। जैन संप्रदाय द्वारा प्रतिवर्ष ज्येष्ठ मास में शुक्ल पक्ष की पंचमी को श्रुतपंचमी पर्व मनाया जाता है। श्रुत और ज्ञान की आराधना का यह महान पर्व हमें वीतरागी संतों की वाणी, आराधना और प्रभावना का सन्देश देता है। इस दिन श्री धवल, महाधवलादि ग्रंथों को विराजमान कर महामहोत्सव के साथ उनकी पूजा करना चाहिये। श्रुतपूजा के साथ सिद्धभक्ति का भी इस दिन पाठ करना चाहिये। शास्त्रों की देखभाल, उनकी जिल्द आदि बनवाना, शास्त्र भण्डार की सफाई आदि करना, इस तरह शास्त्रों की विनय करना चाहिये।

आचार्य धरसेन जी महाराज की प्रेरणा से मुनि पुष्पदंत महाराज एवं भूतबली महाराज ने लगभग 2000 वर्ष पूर्व गुजरात में गिरनार पर्वत की गुफाओं में ज्येष्ठ शुक्ल की पंचमी के दिन ही जैन धर्म के प्रथम ग्रन्थ 'षटखंडागम' की रचना पूर्ण की थी। यही कारण है कि वे इस ऐतिहासिक तिथि को 'श्रुतपंचमी पर्व' के रूप में मनाते हैं।

जैन धर्म ग्रंथ पर आधारित धर्म नहीं है। तीर्थकरकेवल उपदेश देते थे और उनके गणधरउसे सीखकर सभी को समझाते थे। उनके मुख से जो वाणी जन कल्याण के लिए निकलती थी, वह अत्यंत सरल एवं प्राकृत भाषा में ही होती थी, जो उस समय सामान्यत:बोली जाती थी। जैन धर्म में आगम को भगवान महावीर की द्वादशांगवाणी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। श्रुत की परम्परा को मौखिक रूप से भगवान महावीर के मोक्ष जाने के बाद 500 वर्ष तक आचार्यो के द्वारा जीवित रखा गया। उनके अतिशय के कारण जो भी उसे सुनता था, उसे लगता था कि वह उसी की भाषा में कही गयी है और उसके हृदय को स्पर्श करती है। तीर्थकरभगवान महावीर ने ग्यारह गणधरोंअर्थात् श्रुतकेवलियों द्वारा इन्हें इसी गुरु परंपरा के आधार पर शिष्यों तक पहुंचाया।

आचार्यो की परम्परा में भगवान महावीर के 614वर्ष पश्चात माघनंदि के शिष्य आचार्य धरसेन पदासीन हुये। आचार्य धरसेन काठियावाड स्थित गिरिनगर (गिरनारपर्वत) की चन्द्रगुफा में रहते थे। धरसेन महाराज श्रुत के प्रति अत्यंग विनयशील तथा अंग परम्परा के अंतिम ज्ञाता थे। वे बड़े कुशल निमित्त ज्ञानी और मंत्रज्ञाता आचार्य थे। वे एक दिन विचार करने लगे कि जैन दर्शन और सिद्धान्त का जो ज्ञान अभी तक अर्जित कर पाया हूं वह मेरी जिह्वा तक सीमित है, भविष्य में जब मेरी समाधि हो जाएगी तो सम्पूर्ण ज्ञान भी विलुप्त हो जाएगा, अत:उन्होंने दक्षिणा पथ की महिमा नगरी के मुनि सम्मेलन को श्रुत रक्षा सम्बंधी पत्र लिखा। उनके पत्र की व्यथा से पूज्य अर्हदबलिवात्सल्य से द्रवीभूत हो गए और उन्होंने अपने संघ के युवा तथा विद्वान मुनिद्वयश्री पुष्पदंतजी एवं श्री भूतबलिजी को गिरनारपहुंच कर ग्रन्थ लेखन की आज्ञा दे दी। फलत:दोनों परम प्रतापी मुनिराजगिरनार-पर्वतकी ओर विहार कर गए। जब वे दो मुनि गिरनारकी ओर आ रहे थे, तब यहां श्री धरसेनाचार्यऐसा शुभ स्वप्न देखा कि दो श्वेत वृषभ आकर उनकी विनय पूर्वक वन्दना कर रहे हैं। आचार्य श्री महान प्रज्ञाश्रमणथे वे स्वप्न का अर्थ समझ गए कि दो योग्य मुनि दक्षिण से मेरी ओर आ रहे हैं। उन्हें अपार हर्ष हुआ, उन्हें विश्वास हो गया कि अब श्रुत लेखन का कार्य सम्भव हो सकेगा, अत:खुशी के वेग में उनके मुख से अनायास ही “जयदु सुय देवदा” अर्थात् श्रुत/जिनवाणी की जय हो ऐसे आशीर्वादात्मक वचन निकल पडे। । दूसरे दिन दोनों मुनिवर वहां आ पहुंचे और विनय पूर्वक उन्होंने आचार्य के चरणों में वन्दना की। दो दिन पश्चात श्री धरसेनाचार्यने विद्यामंत्रदेकर उनकी परीक्षा की। एक को अधिकाक्षरीऔर दूसरे को हीनाक्षरीमंत्र बताकर उनसे उन्हें षप्ठोपवाससे सिद्ध करने को कहा। जब मंत्र सिद्ध हुआ तो एक के समक्ष दीर्घ दन्त वाली और दूसरे के समक्ष एकाक्षीचेहरे वाली देवी प्रकट हुई। उन्हें देखते ही मुनियों ने समझ लिया कि आचार्य श्री द्वारा मंत्र लेखन में सोच समझ कर कोई त्रुटि की गई है। उन्होंने पुन:मंत्रों को सिद्ध किया। जिससे देवियां अपने स्वाभाविक सौम्य रूप में प्रकट हुई।

आचार्य श्री को उनकी सुपात्रतापर विश्वास हो गया। अत:उन्हें अपना शिष्य बनाकर उन्हें सैद्धान्तिक देशना दी। यह श्रुत अभ्यास आषाढ शुक्ला एकादशी को समाप्त हुआ। आचार्य भूतबलिऔर आचार्य पुष्पदन्तने धरसेनाचार्यकी सैद्धान्तिक देशना को श्रुत ज्ञान द्वारा स्मरण कर, उसे षटखण्डागम नामक महान जैन परमागमके रूप में रचकर, ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी के दिन प्रस्तुत किया। इस शुभ अवसर पर अनेक देवी देवताओं ने तीर्थकरोंकी द्वादशांगवाणीके अंतर्गत महामंत्र णमोकारसे युक्त जैन परमागम षटखण्डागम की पूजा की तथा सबसे बडी विशेषता यह रही कि इस दिन से श्रुत परंपरा को लिपिबद्ध परम्परा के रूप में प्रारम्भ किया गया। अत:यह दिवस शास्त्र उन्नयन के अंतर्गत श्रुतपंचमी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। दूसरे रूप में इसे शास्त्र दिवस के भी नाम से भी संबोधित किया।

जैन धर्म में आज सबसे ज्यादा महत्त्व माँ जिनवाणी का है| आज हमे जो कुछ ज्ञान हैं वो सब जिनवाणी के कारण है| मां बच्चे को सुलाने के लिए लोरी सुनाती है पर जिनवाणी मां हमें जगाती हैं और संसार रूप भवसागर से पार करना सिखाती हैं। माँ जिनवाणी की जय ।

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