28.12.2015 ►Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt ►News

Published: 28.12.2015
Updated: 05.01.2017

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✿ लीक से हट कर I'm damn sure; you will get amazing insights and perception to view things. Best Wishes! ➽ @ संसार में जो कोई संपदा है वह गाय है! - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

सम्पदा गरीबी को मिटने वाली होती है! "भूके पेट नहीं हो भजन गोपाला ले लो अपनी कंठी माला "! भूखा यदि है तो ज्ञानदान कोई कार्य नहीं करेगा! संलेखना में अकेला उधबोधन नहीं भोजन भी देना पड़ता है और मीठे वचन भी देने होते हैं!
सबसे ज्यादा गाय के बारे में शब्द मिले हैं! 8000 वर्ष प्राचीन इतिहास है! अरविन्द समान्तर कोष, सबसे अच्छा लेख है! लगभग 8000 साल पहले सिन्धु घाटी और बाद में मेसोपोटामिया और अफ्रीका में गाय के पालतू बनाये जाने से मानव समाज में महान क्रांति आई! न केवल आर्थिक अवस्था में व्यापक सुधर आया बल्कि संस्कृति में मूलभूत परिवर्तन आये और मानव - पशु संबंधो में परस्पर सहयोग और यह अस्तित्व का नया युग आरम्भ हुआ! भारत ने गाय के संबंधो के अनेक रूप देखे हैं! गौपालन और गौमेध से गौभक्ति और गौरक्षा तक हमारा सांस्कृतिक विकास हुआ है! गाँधी जी का कहना था की कोई राष्ट्र कितना महान और आध्यात्मिक रूप से कितना विकसित है इसका जीता जागता प्रमाण इस बात में निहित है की वह अपने जीवों से कैसा व्यवहार करता है!
गाय का सीधापन हमारे लिए विशेषण बन गया है! हम कहते हैं गाय आदमी, तो मतलब होता है सज्जन, अहानिकारक व्यक्ति! गाय सामान विशेषण के लिए कुछ शब्द हैं......गाय सामान आज्ञाकारी, करुण, कातर, गऊ सामान, भोला, लाचार, विनम्र, सीधा, हानिहीन!

गाय तो है ही, धरती भी..... और बहुत कुछ और भी.....:- गौ शब्द गौवंश के लिए भी है! भारतीय भाषाओँ में गौ शब्द अनेक रूपों में मिलता है! अंग्रेजी काउ गौ का ही रूप है! गौ के अन्य अर्थ /उपयोग हैं! जो देशभर से होता ही है गाय का उचारण गैया है! ग्रीस के मिथक में यह धरती देवी के रूप में पूजी जाती है! कुछ आदिम अमेरिकी जातियां इसकी गिनती पंच्मात्रिकाओं में करती हैं! एमिली द सेकंड काउ ने बनाये अनगिनत शाकाहारी:- 23 जून 2005 को अमेरिका के राज्य न्यूयोर्क में शेरबोर्न नगर ने अपनी प्रिय गाय एमिली का स्मारक बाकायदा उद्घाटित किया!

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✿ लीक से हट कर I'm damn sure; you will get amazing insights and perception to view things. Best Wishes! ➽ @ मातृभाषा भाव तक पहुचने में सहायक है! - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा शरीर का नहीं आत्मा का विकास होना चाहिए! यहाँ कुछ लोग राजस्थान से आयें है लेकिन प्रायः बुंदेलखंड के हैं! प्रायः पैसा बढता है तो गर्मी चढ़ जाती है! हर व्यक्ति की गति प्रगति इस बुद्धि को लेकर नहीं होती! कुछ लोग चोटी के विद्वान् होते हैं जैसे ललितपुर में एक व्यक्ति चोटी रखता है! ज्ञान के विकास का नाम ही मुक्ति है! ज्ञान का विकास जन्म से नहीं मृत्यु से होता है! अभी आप मरना नहीं सीखे हैं! मरना सिख लिया तोह जीना सिख लेंगे! बुद्धि के विकास के लिए मरण अनिवार्य है! मन का मरण जरुरी है! उस मन को कैसे मारा जाये! श्रुत और पंचमी आज का यह दिवस है! आज का दिन पढ़े लिखे लोंगो का नहीं किन्तु जो मन से सुनता है उसका नहीं दो कानो का है! मैं मन की बात नहीं किन्तु श्रुत पंचमी की बात कर रहा हूँ! हमारी सोच श्रुत का निर्माण नहीं करता!
सुनने वाला श्रुत पंचमी का रहस्य समझता है! जो मन के अन्दर में रहता है उसका भरोसा नहीं रहता है! किसी के अन्दर में नहीं रहना चाहिए! आँखे तभी गहराइयों तक नहीं पहुचती! जो सुनता है उसको मोक्षमार्ग और मुक्ति उपलब्ध होता है! शार्ट कट भी चकर दार हो सकता है!

केवल माँ की भाषा को ही मात्री भाषा कहा है! भगवन की भाषा होती है लेकिन पकड़ में नहीं आती है! भाषा के चक्कर से केवली भगवन भी बचे हैं! आज के दिन हजारों वर्ष पूर्व ग्रन्थ का निर्माण हुआ था! श्रुत देवता के माध्यम से ही गुण रहस्य मालूम होता है! आप लोग दूर - दूर से आयें हैं लेकिन पास से कौन आया है! गुरु कभी परीक्षा नहीं करते लेकिन आत्म संतुस्ठी के लिए कुछ आवश्यक होता है! मात्री भाषा भाव भाविनी है वह भाव तक ले जाने में सहायक है! भाव भाषा को समझना आवश्यक है! विकास इसलिए नहीं होता है क्योंकि मन भटकता है! हमारी शिकायत आप करते हो की हमें दर्शन नहीं होते हैं! आज पास से दर्शन हो गएँ हैं! हम किससे शिकायत करें आप हमारी जितनी शिकायत करोगे उतना ही माल बिकेगा! विश्वास के माध्यम से ही श्रुत पंचमी मनाई जा सकती है!

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News in Hindi

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✿ लीक से हट कर I'm damn sure; you will get amazing insights and perception to view things. Best Wishes! ➽ @

संसार के भोग कर्म उदय के अधीन हैं,अंत से सहित हैं,दुःख से सहित,पाप के बीज हैं..इसलिए ऐसे भोग में सुख की आस्था नहीं करने वाले को निकान्क्षित अंग होता है.

संसार के भोग कर्म उदय के अधीन हैं,अशुभ कर्म का उदय होगा तोह जिन पैसो से मकान खरीद रहे हैं...वह पैसे भी चोरी हो जाते हैं या चोरी हो जाते हैं,हाथ में आई रोटी भी कोई क्षीण लेता है..
उसमें भी हजारों परधीनताओं से सहित हैं...जैसे गर्मी में एसी,पंखे की अधीनता.,सर्दी में रजाई की अधीनता,...कुछ खरीदना है तोह पैसों की अधीनता,कहीं जाना है तोह सबसे पहले स्वस्थ शरीर की अधीनता,फिर वाहान की अधीनता,और उसे सही करवाने के लिए एक नौकर की अधीनता,..खाने के लिए रोटी की अधीनता....उसमें भी बनाने वाला होने की अधीनता...भोगों के लिए स्त्री की अधीनता....,पढने के लिए चश्मों की अधीनता,...अदि-अदि हजारों परधीनताओं से सहित हैं..संसार के भोग.

मुनि क्षमा सागर जी महाराज ने एक दृष्टांत दिया था
की एक आदमी भैंस को रस्सी से बाँध कर ले जा रहा है....अगर हमसे पुछा जाए की कौन किस्से बंधा है...तोह आम आदमी यही कहेगा..की भैंस रस्सी से बंधी है.......या भैंस आदमी से बंधी है....लेकिन सही मायने में आदमी भैंस से बंधा हुआ है...अगर रस्सी छोड़ दी जाए तोह कौन-किसके पीछे भागेगा..आदमी भैंस के पीछे,या भैंस आदमी के पीछे...........सही जवाब आदमी भैंस के पीछे....तोह कौन-किसके अधीन है-आदमी भैंस के अधीन है...इस प्रकार यह भोग हजारों परधीनताओं से सहित हैं..
उसके बाद भी अंत सहित हैं...स्वाधिष्ट खाने का स्वाद खाने की अवधि तक ही आता है...अब जो दाल स्वाधिष्ट लग रही थी,सुख दाई लग रही थी...मूंह में जाने तक उसमें स्वाद आना भी बंद हो जाता है..,एक न एक दिन स्त्री का,पति का,मकान का,रिश्तेदारों का,सुख सुविधाओं का वियोग होता ही है.
और ऐसा भी नहीं है की यह भोग एक अखंड धरा-प्रवाह के साथ चलें...यह बीच-बीच में दुखदायी भी होते हैं...दुःख से सहित होते हैं.....वोह ही चीज कभी अच्छी लगती है...तोह वोह ही चीज कभी खराब भी लगती है..बुखार के समय ठंडा पानी ही दुखदायी होता है...जो बहुत अच्छा लगता है...ज्यादा एसी की हवा भी कभी-कभी दुःख को देने वाली हो जाती है...और बाहार निकलते ही दुःख को देने वाली होती है,बीमारी का कारण होती है...जिस चीज का संयोग है उस चीज का वियोग भी है..इसलिए अंत सहित है

और यह भोग पाप के बीज हैं...इन्ही के कारण जीव पाप करता है...कोई पंखा चलाएगा तोह जीव हिंसा करेगा,स्त्री भोग में जीव हिंसा,कुछ खाने में जीव हिंसा...धर्म से दूर रखते हैं,इन भोगों में फसकर जीव आत्मा-परमात्मा का ध्यान नहीं करता है......

इसलिए सम्यक-दृष्टी इन विषय भोगों में सुख मानता ही नहीं है तोह इनकी वह चाह कैसे कर सकता है......वह तोह स्वर्ग से ऊपर एह्मिन्द्र की आयु में भी सुखों की आस्था नहीं रखता है..जब सुख ही नहीं मानेगा...तोह चाहेगा कैसे...

समयक-दृष्टी को सात-तत्व का अटल श्रद्धां होने से बहुत आनंद आता है...और आत्म सुख का चिंतवन करते हुए आनंद-माय रहता है.......

गृहस्थ सम्यक-दृष्टी इन विषयों में सुख भी नहीं मानता,लेकिन उसमें फंसा भी रहता है.....तोह इस बारे में कहा गया...की जैसे कोई रोगी कडवी औषधि पीने में सुख न मानते हुए भी पीता है,और यह चाहता है की कब यह छूते,उसी प्रकार गृहस्थ सम्यक-दृष्टी अपने आप को संयम लेने में असमर्थ जानकार..गृहस्थी में रहता है...लेकिन गृहस्थ के भोगों से विरक्त ही रहता है,जैसे ६ ढाला में लिखा है की "गेही पै गृह में न रचे ज्यों जलते भिन्न कमल है, नगर नारी का प्यार यथा कादे में हेम अमल है"...जैसे कमल कीचड में रहकर भी कीचड में लिप्त नहीं होता,वेश्या का प्यार सिर्फ दिखावे का होता है,सोना कीचड में कीचड रहित रहता है...उसी प्रकार..सम्यक-दृष्टी घर में रहकर भी घर से विरक्त रहता है...

जैसे भरत-चक्रवती अविरत सम्यक-दृष्टी थे...९६००० रानियाँ होकर भी उनसे विरक्त रहते थे.......कितने महान थे!!!!!

धन्य है ऐसे निकान्क्षित अंग को पालन करने वाले लोग जिन्हें स्वर्ग तोह बहुत दूर एह्मिन्द्र में भी सुख नहीं मानते और आत्मा के शास्वत सुख का चिंतवन करते हुए सात भयों से रहित(निशंकित)..और आनंद मय रहते हैं.

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