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आचार्य देशना
आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
तिथि: माघ कृष्ण अष्टमी, २५४२
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भक्ति बहुत
फिर भी अपमान
विवेक न था
भावार्थ: मन में अपने आराध्य के प्रति अपार भक्ति होते हुए भी कभी कभी हम अपनी कुछ विवेक रहित क्रियाओं के द्वारा अपने आराध्य का ही अपमान कर बैठते हैं । तकनीक के विकास के कारण इसके प्रतिदिन कई उदहारण देखने को मिलते हैं । जैसे - हम मोबाइल में अपने भगवान की अथवा गुरु जी की फोटो भी रखते हैं और उस मोबाइल को शौचालय में भी साथ लेकर जाते हैं । भोजन करते करते जूठे मुह अथवा जूते पहने हुए मोबाइल पर अथवा लैपटॉप पर हम शास्त्र पड़ते रहते हैं । कभी कभी अति उत्साह में चलते समय गुरूजी के चरण छूने के लिए लोग प्रयास करते हैं जिससे गुरूजी का संतुलन बिगड़ने का खतरा हो जाता है । कुछ लोग इतने ज़्यादा बैनर और पत्रिकाएं छपवा देते हैं कि अंततोगत्वा वो या तो हमारे पैरों के नीचे आते हैं अथवा कोई चांटवाले उसे दोने के रूप में उपयोग करते हैं । गुरु की बात न सुनकर अपने मन की ही बात करना अपने गुरु का अपमान ही है और भक्ति होते हुए भी अति उत्साहवश हम ऐसे कुछ कार्य यदि कर रहे हैं तो उनसे बचना चाहिए ।
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आचार्य श्री के सूत्र
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