16.03.2016 ►Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt ►News

Published: 17.03.2016
Updated: 05.01.2017

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आज रात्रि 9 बजे अवश्य देखें @ पारस चैनल!!! कैसे शामिल हुई गिनीज़ वर्ल्ड रिकार्ड में विश्व की सबसे ऊँची-108 फ़ुट विशाल भगवान ऋषभदेव प्रतिमा। www.jinvaani.org

पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा मूर्ति निर्माण घोषणा-सन 1996 से गिनीज वर्ल्ड रिकार्ड- सन 2016 तक प्रतिमा निर्माण की ऐतिहासिक झलकियों के साथ प्रसारित होगा एक विशेष एपीसोड। सिर्फ़ पारस चैनल पर आज-16 मार्च 2016 को रात 9 बजे और कल 17 मार्च को प्रातः 6 बजे।

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🚩🚩🚩आचार्य देशना🚩🚩🚩
🇮🇳"राष्ट्रहितचिंतक"जैन आचार्य 🇮🇳
आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
तिथि: फाल्गुन शुक्ल अष्टमी, २५४२
गर्भ कल्याणक: श्री १००८ सम्भवनाथ भगवान
फाल्गुन अष्टान्हिका पर्व प्रारम्भ
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जय जय जय जयवंत जिनालय नाश रहित हैं शाश्वत हैं
जिनमे जिन महिमा से मंडित, जैन बिम्ब हैं भास्वत हैं
सुरपति के मुकुटों की मणियाँ झिलमिल झिलमिल करती हैं
जिनबिम्बों के चरण कमल को धोती हैं, मन हरती हैं ।। १॥

नभ-नभ स्वर रस केशव सेना मद हो सोलह कल्पों में
आगे पीछे तीन बीच दो शुभतर कल्पातीतों में
इस विध शाश्वत उर्ध्वलोक में सुखकर ये जिनधाम रहे
अहो भाग्य हो नित्य निरंतर होठों पर जिन नाम रहे ॥६॥
--- नन्दीश्वर भक्ति (आचार्य श्री विद्यासागर जी महा मुनिराज)

भावार्थ: नन्दीशवर भक्ति मूल रूप से आचार्य पूज्यपाद स्वामी के द्वारा रचित है । यह अनुवाद ज्ञानोदय छंद में संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महामुनिराज के द्वारा किया गया है । आज से अष्टान्हिका पर्व प्रारम्भ हुए । इन पर्व के दिनों में हम विशेष भक्ति आदि में लीन हो जाते हैं । इन पर्व के दिनों में स्वर्ग के देव मध्य लोक में स्थित अकृत्रिम जिनालयों के दर्शन को आते हैं । अकृत्रिम जिनालय वे मंदिर होते हैं जो किसी ने बनाये नहीं । शाश्वत हैं अर्थात अनादिकाल से हैं और अनंत काल तक रहेंगे । एक एक जिनालय में ५०० धनुष ऊंची १०८ प्रतिमाएं हैं । देव उन प्रतिमाओं को सर झुकाकर जब नमस्कार करते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे देव अपने मुकुटों की मणियों की झिलमिल के द्वारा भगवान के चरणो का प्रक्षालन कर रहे हों ।
छठवे काव्य में आचार्य श्री ने एक विशेष काव्य शैली के माध्यम से ऊर्ध्व लोक के चैत्यालयों की गिनती बताई है । यहाँ पहले शब्दों के द्वारा संख्या निकालते हैं फिर उन संख्या को इकाई, दहाई आदि क्रम में रखकर एक पूर्ण संख्या बनती हैं । जैसे:
नभ अर्थात आकाश, आकाश शून्य (0) का सूचक है
स्वर - 7
रस - 5
केशव - नारायण (9)
सेना - 4 प्रकार की
मद - 8
नभ-नभ स्वर रस केशव सेना मद से 0075948 इनको उलटे क्रम में लिखें तो 8459700 | ये संख्या है सोलह स्वर्गों में स्थित जिनालयों की । और आगे पीछे 3 बीच में 2 अर्थात 323 जिनालय स्वर्गों से ऊपर कल्पातीत विमानों (ग्रैवेयक, अनुदिश और अनुत्तर) में हैं । इस प्रकार स्वर्गों में कुल 8460023 जिनालय हैं । अनगिनत ग्रह, नक्षत्र और तारों में भी अनगिनत जिन मंदिर हैं । वहां रहने वाले देव अपने अपने जिनालयों में स्थित जिन बिम्बों की नियमित पूजन आदि करते हैं ।
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आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ अभी कटंगी, जबलपुर के समीप विराजमान हैं ।
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"राष्ट्र हित चिंतक"आचार्य श्री के सूत्र
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❖ चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज का जीवन चरित्र तथा संस्मरण - ये नहीं पढ़ा तो क्या पढ़ा!! ❖

उस समय महाराष्ट्र तथा कर्णाटक में स्थिति बहुत खराब थी! उस समय वह पर उपाध्याय जाति का राज चलता था ये पंडित होते थे, उस समय पूरी व्यवस्था मंदिर तथा साधुओ की उनके हाथ में रहती थी, तो जब क्षुल्लक शान्तिसागर जी जब वो कटोरा लेकर आहार चर्या को निकले, तो फिर उनने देखा की वहा पर कोई भी पढ्गाहन के लिए नहीं खड़ा हुआ, उपाध्याय के यहाँ उनका आहार निर्धारित था, तो ये वापस लोट कर आगये, उपवास कर लिया उस दिन उन्होंने, दुसरे दिन फिर वैसा ही हुआ, तीसरे दिन भी उपवास हुआ फिर जब चोथे दिन भी उपवास होगया तो जनता भड़क गयी, जनता ने उपाध्याय से कहा की क्या विधि है इनके आहार की, फिर उपाध्याय ने ग्रन्थ खोले फिर उन्होंने पढ़ा की साधु अनुदिस्ट आहार करने वाले होते है, तथा अपने नाम से बना हुआ भोजन क्षुल्लक जी नहीं कर सकते, और फिर बोलते है इसलिए ही महाराज जी 4 दिन से आहार नहीं कर रहे है, फिर बहुत से लोगो की भावना हुई की हम भी शुद्ध भोजन बनायेंगे तथा फिर उसमे से ही क्षुल्लक जी को आहार करा देंगे, अब देखिये क्रांति यही से प्रारंभ होगेयी, इस तरह उन्होंने धीरे धीरे जागृति पैदा करदी, और सब जगह सही आहार विधि हो गयी, फिर समय निकला तो उन्होंने गिरनार पर्वत की और विहार किया तथा गिरनार पर्वत पर पहुच कर वह पर उन्होंने जिनेन्द्र देव की साक्षी में दुपटे का भी त्याग कर दिया और केशलोंच करके ऐल्लक हो गए! फिर जब उनकी उम्र 45 वर्ष की हुई तो उन्होंने मुनि दशा को प्राप्त किया, यरनाल ग्राम नामक स्थान पर पञ्च कल्याणक चल रहे थे, पञ्च कल्याणक में दीक्षा कल्याणक के दिन उन्होंने दीक्षा के लिए प्रार्थना की और साडी जनता ने भी अनुमोदना की, दीक्षा गुरु के लिए थोडा विवाद है कुछ बोलते है आदिसागर जी ने दीक्षा दी व् कुछ बोलते है देवनंदी जी ने दीक्षा दी थी, देवनंदी जी महाराज को देवअप्पा स्वामी बोलते थे वो 16-17 वर्ष की उम्र में घर का त्याग कर तपस्वी बन गए थे!

चूँकि काल का ऐसा प्रभाव था वह पर उस समय शरीर को ढक कर आहार चर्या के लिए आना पड़ता था, फिर चोंके के अन्दर उस आवरण को हटा कर दिगम्बर मुद्रा में वो आहार लेते थे खड़े होकर, उसके बाद फिर आवरण स्वीकार करके चटाई वगैरह कुछ लेकर अपने स्थान पर चले जाते थे, क्योकि उस समय अंग्रेजो का शासन था तथा मुगलों के कानून चलते थे, तो ऐसी प्रतिकूलता थी, लेकिन शान्तिसागर जी महाराज बोले मैं तो मूलाचार वाली चर्या का पालन करूँगा चाहे कुछ भी होजाये मेरा पूर्ण आत्म विश्वास है, इस तरह उन्होंने अपनी चर्या मूलाचार वाली राखी अब ये निर-आवरण, दिगम्बर मुद्रा में ही चर्या के लिए जाते थे, वही से एक क्रांति को हवा मिली और लोग जाने लगे की दिगम्बर साधु भी होते है, धीरे धीरे प्रभावना बढती गयी, इनका प्रथम चातुर्मास सन 1920 में हुआ था, तथा सम्मेद शिखर जी की यात्रा पूर्वक 9वा चातुर्मास 1928 में कटनी में हुआ और उस चातुर्मास की भी बहुत विचित्र धटना है, महाराज श्री श्रुत पंचमी के दिन इलाहाबाद में थे तथा वो श्रुत पंचमी के दिन चातुमास कहा करना है निश्चित कर देते थे, तो बहुत दूर दूर से लोग आये थे श्री फल लेकर के, तो कटनी का कोई श्रावक भी वह पर पहुच गया की महाराज जी को सब लोग नारियल अर्पित कर रहे है, तो हम भी अर्पित कर देते है, तो उसने भी चढ़ा दिया नारियल तो महाराज जी पूछा की तुम कहा के हो तो वो बोले कटनी के फिर महाराज जी के मन में क्या सुझा की उन्होंने बोला की तुम्हारे यहाँ मेरा चोमासा स्वीकार है, अब ये सुनते ही वो कटनी का व्यक्ति टेंशन में आगया की मैंने समाज से भी नहीं पूछा और महाराज जी ने चतुर्मास स्वीकार भी कर लिया, यह उपस्थित लोगो ने उस व्यक्ति को बोलने लगे आपका तो भाग्य ही खुल गया, फिर वो जल्दी जल्दी कटनी गए तथा समाज तथा पंचायत के लोगो को बड़ा खुश होकर बताया की ऐसा ऐसा हुआ तो लोग खुश होने के बजाये बोलने लगे पंचायत के लोग गुस्सा हो गए बोले की हमसे पूछे बिना कैसे नारियल अर्पण कर दिया, वो बो बोले की सब नारियल चढ़ा रहे थे तो मैंने भी चढ़ा दिया मुझे तो ये भी नहीं मालूम था की ये नारियल क्यों चढ़ा रहे है तो फिर समाज की मीटिंग हुए तथा निर्णय लिया की अब साधु आरहे है तो हम चातुर्मास कराएँगे, इसके बाद क्या हुआ कटनी के एक बहुत बड़े विद्वान हुए है पंडित जगतमोहन लाल शास्त्री, और उनका सम्बन्ध कांजीस्वामी से भी बहुत घनिष्ठ रहा है और वो आसानी से किसी को साधु स्वीकार भी नहीं करते थे ऐसे परीक्षा प्रधानी थे, लेकिन साधुओ के प्रति घ्रणा नहीं थी उनके मन में, वर्तमान में कुछ लोग ऐसे है जो साधु का नाम सुनते ही कुछ अलग सा भाव या विचार ले आते है, तुम साधुओ को नहीं मानना मत मनो लेकिन द्वेष ना करो, क्योकि साधु की मुद्रा का अनादर नहीं करना चाहिए, वो दिगम्बर मुद्रा उस साधु की अपनी निजी मुद्रा नहीं है वो तीर्थंकर मुद्रा तथा जिससे मुक्ति होने वाली है वो मुद्रा है!

* ये जीवन चरित्र तथा संस्मरण क्षुल्लक ध्यानसागर जी महाराज (आचार्य विद्यासागर जी महाराज से दीक्षित शिष्य) के प्रवचनों के आधार पर लिखा गया है! टाइप करने में मुझसे कही कोई गलती हो गई हो उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ! –Nipun Jain

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