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अहिंसा यात्रा प्रेस विज्ञप्ति
धर्म के तीन आयाम: अहिंसा, संयम और तप
-आचार्यश्री ने श्रद्धालुओं को धर्म के आयाम बता धार्मिक बनने का दिया ज्ञान
-आदमी अहिंसा, संयम और तप के माध्यम से अपनी आत्मा का कर सकता है कल्याण
21.09.2016 गड़ल (असम)ः बुधवार को चतुर्मास प्रवास स्थल परिसर में बने वीतराग समवसरण के प्रवचन पंडाल में उपस्थित श्रद्धालुओं को जैन श्वेताम्बर तेरापंथ के एकादशमाधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा यात्रा के प्रणेता, परमश्रद्धेय आचार्य श्री महाश्रमणजी ने लोगों को धर्म के आयामों की अवगति प्रदान की और उन्हें धर्म के मार्ग पर चलकर अपनी आत्मा का कल्याण करने की प्रेरणा प्रदान की। वहीं आचार्यश्री ने आचार्यों के प्रकार का वर्णन करते हुए कहा कि आचार्य कैसा भी हो उसकी आशातना नहीं करनी चाहिए।
आचार्यश्री ने लोगों को धर्म के तीन आयाम- अहिंसा, संयम और तप को व्याख्यायित करते हुए कहा कि आदमी के जीवन में धर्म होता है तो वह आत्म कल्याण की दिशा में आगे बढ़ता है। आदमी आकृति से बहुत बड़ा नहीं होता, प्रकृति से बड़ा होता है। आकृति से कोई आदमी नीच या उच्च नहीं होता, बल्कि प्रकृति से आदमी नीच भी हो सकता है और प्रकृति से आदमी महान भी हो सकता है। आदमी को अपनी प्रकृति को शुद्ध रखने का प्रयास करना चाहिए। आदमी धर्म के मार्ग पर चलकर अपनी प्रकृति को शुद्ध बनाने का प्रयास करना चाहिए। आदमी को अहिंसा का पालन करना चाहिए। आदमी को संयमित जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए। वाणी पर संयम करने का प्रयास करना चाहिए। आदमी जिह्वा, दृष्टि और मन पर भी संयम करने का प्रयास करना चाहिए। आदमी अपने पाप कर्म के बंधों का निर्जरा करने के लिए तप करने का प्रयास करना चाहिए। जितना संभव हो सके आदमी को तप करने का प्रयास करना चाहिए। इस प्रकार धर्ममय होकर आदमी अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है। आचार्यश्री ने आचार्य के चार प्रकार बताते हुए कहा कि यदि आचार्य किसी दृष्टि से ज्ञान और आचार की दृढ़ता से हीन हो तो भी किसी को आचार्य की अशातना नहीं करनी चाहिए। आचार्य की अवहेलना कर आदमी स्वयं का नुकसान कर सकता है। प्रत्येक आचार्य में गुण, ज्ञान की समानता नहीं हो सकती। गत दिनों से सायं में हो रहे रामायण व्याख्यान को बंद करने की सूचना आचार्यश्री ने दी।
आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के उपरान्त मुख्यमुनिश्री ने अपने उद्बोधन में कहा कि हमारा सौभाग्य है जो हम सभी को सर्वगुण संपन्न आचार्य प्राप्त हुए हैं। उन्होंने तेरापंथ की श्राविका समाज को विलक्षण बताते हुए कहा कि श्राविका समाज को प्रबुद्धता संस्कारों के प्रति भी निरंतर जारूक रहना चाहिए। श्राविका समाज यदि धर्मपरायण और संस्कारी होगी तो वह अपने बच्चों का जीवन भी धर्ममय और संस्कारमय बना सकती है। श्राविका समाज में भी तत्त्वज्ञान और तेरापंथ के सिद्धांतों का ज्ञान बढ़ता रहे। घर-परिवार में कलह, ईष्र्या न रहे, शांति का वातावरण रहे, ऐसा प्रयास करना चाहिए। आज से उनका अधिवेश आरंभ हो रहा है। श्राविकाएं अपनी बाह्य सुदंरता को ही नहीं, भीतर की सुंदरता को भी ज्ञान, संस्कार और चरित्र के माध्यम से बढ़ाने का प्रयास करें। इस अवसर पर मुख्यमुनिश्री ने आचार्य तुलसी द्वारा रचित गीत ‘भरना जीवन में सच्चे संस्कार बहिनों’ का संगान भी किया।
चन्दन पाण्डेय
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