02.02.2017 ►TSS ►Terapanth Sangh Samvad News

Published: 02.02.2017
Updated: 05.02.2017

Update

🎤विशेष सूचना 🎥
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परम् पूज्य आचार्य श्री महाश्रमणजी के पावन सानिध्य में सिलीगुड़ी में आयोजित
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153 वे मर्यादा महोत्सव का सीधा प्रसारण
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दिनांक:- 03 फ़रवरी 2017 को
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पारस चैनेल पर:-प्रात: 11:30 से
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संप्रसारक:- *अमृतवाणी*

प्रेषक - 🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻

Update

👉 तेरापंथ भवन, राधाबाड़ी, सिलीगुड़ी से....
👉 मर्यादा महोत्सव: द्वितीय दिवस
👉 भारतीय डाक विभाग के डिप्टी डायरेक्टर श्री अमन तृप्ति घोष द्वारा पूज्य गुरुदेव के सान्निध्य में 153वें मर्यादा महोत्सव पर जारी डाक टिकट का अनावरण..
👉 ऐतिहासिक क्षणों की साक्षी बनी उपस्थित जन मेदिनी..

दिनांक: 02/02/2017

📝 धर्म संघ की तटस्थ एवं सटीक जानकारी आप तक पहुंचाए
प्रस्तुति - 🌻 तेरापंथ संघ संवाद 🌻

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👉 तेरापंथ भवन, राधाबाड़ी, सिलीगुड़ी से....
👉 मर्यादा महोत्सव: द्वितीय दिवस
👉 समणीवृन्द द्वारा आकर्षक शब्दचित्र की प्रस्तुति
👉 भाजपा-प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन कार्यक्रम में उपस्थित


दिनांक: 02/02/2017

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👉 तेरापंथ भवन, राधाबाड़ी -सिलीगुड़ी से....
👉 मर्यादा महोत्सव द्वितीय दिवस
👉 मुख्य मुनि द्वारा भावपूर्ण प्रस्तुति
संघ हमारा प्राण है।
इस पर साँसे कुर्बान हैं।।

👉 साध्वी प्रमुखाश्री व साध्वी समाज
👉 समणी वृन्द व मुमुक्षु बहनें


दिनांक: 02/02/2017

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👉 तेरापंथ भवन, राधाबाड़ी -सिलीगुड़ी से....
👉 मर्यादा महोत्सव द्वितीय दिवस
👉 मुमुक्षु बहनों द्वारा भावपूर्ण गीत
👉 उपस्थित केंद्रीय पदाधिकारी व विशाल जन समुदाय


दिनांक: 02/02/2017

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News in Hindi

👉 तेरापंथ भवन, राधाबाड़ी -सिलीगुड़ी से....
👉 153 वें मर्यादा महोत्सव के द्वितीय दिवस के कार्यक्रम का शुभारंभ


दिनांक: 02/02/2017

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आचार्य तुलसी की कृति...'श्रावक संबोध'

📕अपर भाग📕
📝श्रृंखला -- 207📝

*जिनशासन*

गतांक से आगे...

*भाष्य--* विचारों की भिन्नता मानवीय प्रकृति का शाश्वत नियम है। विचारभेद का इतिहास वहां तक पहुंच जाता है, जहां से विचारों के उद्भव का इतिहास शुरू होता है। हर व्यक्ति के लिए वैचारिक स्वतंत्रता आवश्यक भी है। व्यक्ति का विचार समूह के लिए उपयोगी होता है तो वह सामूहिक बन जाता है। व्यक्ति के विचार में स्वार्थ या आग्रह का भाव प्रबल होता है तो वह समूह को तोड़ देता है। जैन सम्प्रदायों के विस्तार में अन्यान्य परिस्थितियों के साथ विचारभेद का भी प्रमुख हाथ रहा है।

वर्तमान जैनशासन के संस्थापक भगवान महावीर थे। उनकी उपस्थिति में विचारभेद नहीं था, यह नहीं कहा जा सकता। विचारभेद होने पर भी उनका तत्त्वनिरूपण सबको मान्य था। क्योंकि उनकी वाणी में कहीं विसंवाद नहीं था। उनके युग में कुछ साधु वस्त्र पहनते थे और कुछ निर्वस्त्र रहते थे, पर इस भेद का कोई महत्त्व नहीं था। आगे चलकर इसी भेद को एक मुद्दा बना लिया गया। उसके आधार पर श्वेताम्बर और दिगम्बर-- ये दो परम्पराएं हो गईं।

इस विषय में गंभीरता से विमर्श करने पर निष्कर्ष निकलता है कि वस्त्र पहनना या न पहनना बहुत छोटी बात है। केवल इसके आधार पर इतनी बड़ी घटना घटित हो जाए, यह समझ में नहीं आता। हो सकता है, कुछ साधुओं के विचार-बिन्दुओं में सामञ्जस्य नहीं रहा हो। वही आगे जाकर भेद का निमित्त बन गया। कुछ सैद्धांतिक मतभेद भी उभर गए थे। आगम-संकलन को लेकर भी सबमें मतैक्य नहीं था। कुछ साधुओं की दृष्टि में संकलित आगम तीर्थंकर वाणी के रूप में मान्य थे। कुछ साधु संकलित होने के कारण उनके प्रामाण्य को अस्वीकार करने लगे। विचारभेद के साथ आचारभेद की बातें भी जुड़ती गईं और साम्प्रदायिक विभेद के लिए जमीन तैयार होती गई।

किसी भी संगठन में जब तक नेतृत्व सक्षम होता है, विचारभेद होने पर भी टूटन नहीं होती। नेता का वर्चस्व कम हो तो विघटन को रोकना कठिन हो जाता है। कुछ व्यक्तियों का अहंकार भी संगठन में दरारें डाल देता है। जैनशासन का यह सौभाग्य है कि वह कई शताब्दियों तक अखण्ड रहा। किंतु जब से विभाजन का दौर शुरू हुआ, वह अनेक सम्प्रदायों में विभक्त होता चला गया। सचेलता और अचेलता के आधार पर एक मूल से दो शाखाएं निकल गईं। यह समय वीर-निर्वाण की छठी-सातवीं सदी माना जाता है। उसके बाद वीर-निर्वाण की नौवीं शताब्दी (850) में चैत्यवास की स्थापना हुई। इसके साथ आचार की शिथिलता भी बढ़ने लगी। चैत्यवासी परम्परा का उद्भव हुआ तो उसके समानान्तर दूसरा पक्ष संविग्न या सुविहितमार्गी नाम से अस्तित्व में आ गया। मूर्तिपूजक और अमूर्तिपूजक परम्पराओं का सूत्रपात लगभग उसी समयावधि में हो गया। भेद का क्रम शुरू हो जाता है तो उसे रोकना बड़ा कठिन हो जाता है। फिर तो एक-एक सम्प्रदाय में अनेक गच्छ, उपगच्छ और पन्थ बनते गए।

विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में लोंकाशाह मूंथा ने मूर्तिपूजा के विरोध में अभियान चलाया। गृहस्थ होकर भी उन्होंने साध्वाचार में पनप रही शिथिलता के प्रतिपक्ष में आचार की कठोरता का पक्ष प्रस्तुत किया। उनकी प्रेरणा से कुछ लोग दीक्षित हुए। स्थानकवासी सम्प्रदाय का उद्भव लोंकाशाह के उन्हीं अनुयायियों से हुआ।

*जिनशासन के अद्भुत, अतुल और अनन्त आकाश में एक अभिनव तारा उगा। उसका नाम है तेरापंथ। कैसे हुआ तेरापंथ ध्रुव तारे का उदय...?* इसके बारे में विस्तार से जानने-समझने के लिए पढ़ें… हमारी अगली पोस्ट... क्रमशः कल।

प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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