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*श्रावक सन्देशिका*
👉 पूज्यवर के इंगितानुसार श्रावक सन्देशिका पुस्तक का सिलसिलेवार प्रसारण
👉 श्रृंखला - 66 - *धार्मिक-आराधना*
*सचित्त-अचित्त-मर्यादा क्रमशः...* क्रमशः हमारे अगले पोस्ट में....
📝 धर्म संघ की तटस्थ एवं सटीक जानकारी आप तक पहुंचाए
🌻 *तेरापंथ संघ संवाद* 🌻
Source: © Facebook
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙
📝 *श्रंखला -- 41* 📝
*आगम युग के आचार्य*
*युगप्रहरी आचार्य यशोभद्र*
आचार्य शय्यंभव के बाद आचार्य यशोभद्र हुए। वे तीर्थंकर महावीर के पांचवे पट्टधर थे। वे श्रुतधर आचार्यों की परंपरा में तृतीय श्रुतकेवली थे। जैन शासन में यशोभद्र परम यशस्वी आचार्य थे। उन्होंने अर्धशतक पर्यंत युगप्रधानाचार्य पद को सुशोभित किया एवं दीर्घ संयम पर्याय का पालन कर अपने अमृतोपम मधुर वचनों से जन-जन को मार्गदर्शन दिया। उनके विशद ज्ञानालोक से अंग, मगध और विदेह का कण-कण आलोकित था।
*गुरु-परंपरा*
आचार्य यशोभद्र के गुरु शय्यंभव थे। आचार्य शय्यंभव चतुर्दश पूर्वधर थे और श्रुतधर आचार्य प्रभव के शिष्य एवं उत्तराधिकारी थे। आचार्य यशोभद्र का दीक्षा-संस्कार आचार्य शय्यंभव के द्वारा हुआ। आगमों एवं पूर्वों का गंभीर अध्ययन भी आचार्य यशोभद्र को अपने दीक्षा-गुरु से प्राप्त हुआ।
*जन्म एवं परिवार*
आचार्य यशोभद्र का जन्म ब्राह्मण परिवार में वी. नि. 62 (वि. पू. 408, ई. पू. 465) में हुआ। तुंगीकायन उनका गोत्र था। देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण ने नंदी में यशोभद्र को तुंगीकायन गोत्रीय कहकर वंदन किया है *'जस्स भद्दं तुंगियं वंदे।'* आचार्य यशोभद्र के वंश, जन्म आदि की संक्षिप्त सामग्री ही ग्रंथों में है।
*जीवन-वृत्त*
यशोभद्र कर्मकांडी ब्राह्मण थे। वे विशाल यज्ञों का सफलतापूर्वक संचालन करते थे। ब्राह्मण समाज पर उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व की छाप थी। उन्हें एक बार श्रुतधर आचार्य शय्यंभव के प्रभावक प्रवचन को सुनने का अवसर मिला। उनके मंगलकारी आध्यात्मिक उपदेश से ब्राह्मण यशोभद्र की जीवन धारा बदल गई। उन्हें सांसारिक भोग नीरस लगने लगे। उनका मन संयम की ओर झुका। विरक्ति की धारा प्रबल हो गई।
वैराग्य भावना से भावित होकर ब्राह्मण विद्वान यशोभद्र ने 22 वर्ष की युवावस्था में श्रमण नायक शय्यंभव के पास वी. नि. 84 (वि. पू. 386, ई. पू. 443) में जैन मुनि दीक्षा ग्रहण की। जो जाति से ब्राह्मण थे, वे गुणों से ब्राह्मण बने और त्याग एवं तप का पथ स्वीकार कर जगत्पूज्य श्रमण बने। संयमी जीवन में श्रुतसंपन्न आचार्य शय्यंभव का पावन सानिध्य यशोभद्र के लिए लाभकारी था। वे 14 वर्ष तक गुरु के पास रहे। उन्होंने संयम साधनोपयोगी विभिन्न योग्यताओं का अर्जन करने के साथ पूर्वश्रुत और आगमश्रुत का गहन अध्ययन आचार्य शय्यंभव से किया। ज्ञानगुण संपन्न श्रवण यशोभद्र आचार्य शय्यंभव के बाद वी. नि. 98 (वि. पू. 372, ई. पू. 429) में आचार्य पद पर आसीन हुए। उन्होंने कुशलतापूर्वक वीर शासन के दायित्व को संभाला। आचार्य पद ग्रहण के समय श्रुतधर यशोभद्र की अवस्था 36 वर्ष की थी। मगध, अंग और विदेह ये तीनों क्षेत्र आचार्य यशोभद्र के धर्म प्रचार के प्रमुख प्रदेश थे।
*आचार्य यशोभद्र के समकालीन राजवंश, समय-संकेत और आचार्य-काल* के बारे में जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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आचार्य श्री तुलसी की कृति आचार बोध, संस्कार बोध और व्यवहार बोध की बोधत्रयी
📕सम्बोध📕
📝श्रृंखला -- 41📝
*संस्कार-बोध*
*प्रेरक व्यक्तित्व*
*36.*
सुनें पढ़ें बोलें लिखें, ऐसे वृत्त चरित्र।
मिले सहज ही प्रेरणा, जीवन बने पवित्र।।
*37.*
संस्कारी मुनि साध्वियां, हैं अनुपम आदर्श।
सदा सामने रख उन्हें, वरें स्वयं उत्कर्ष।।
*38.*
पद जाए आए भले, रहें सहज मध्यस्थ।
साधें बनकर सतयुगी, सदा साधुता स्वस्थ।।
*39.*
कोटा के महाराज की, सुन मिलने की चाह।
नरभिमान मुनि युगल ने, ली आगे की राह।।
*40.*
जान और अनजाने में, सुना न गुरु आह्वान।
बन विनम्र वेणी मुनि, रखें स्वयं की शान।।
*41.*
नियमित दिनचर्या रहे, नियमित सारे काम।
श्रमण भीम से सीख ले, सजग रहें हरयाम।।
*42.*
संघ-विमुख अविनीत से, जोड़ें कभी न प्रीत।
भोप संत बन साहसी, करदें उसे अतीत।।
*43.*
सह्य नहीं होता कभी, अनुशासन में छेद।
पानी का क्या मापना? हुआ संघ-विच्छेद।।
*तेरापंथ धर्मसंघ के प्रेरक व्यक्तित्वों* के बारे में जानेंगे-समझेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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*प्रेक्षाध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ*
अनुक्रम - *भीतर की ओर*
*नियंत्रण स्वतः चालित क्रिया पर*
क्रिया के दो प्रकार है ------
1) प्रयोगजनित - इच्छाचालित (Voluntary)
2) विस्त्रसाजनित -- स्वतःचालित (Lnvoluntary)
साधना करने वाला प्रारंभ में इच्छाचालित क्रिया पर नियंत्रण करता है ।स्वतः चालित क्रिया पर उसका नियंत्रण नही होता । साधना की उच्च भूमिका वह है जहां साधक का स्वतः चालित क्रिया पर नियंत्रण हो जाता है ।
साधक में धैर्य की जरुरत है । वह सीधा स्वतः चालित क्रिया पर नियंत्रण करने की बात न सोचे ।
28 अप्रैल 2000
प्रसारक - *प्रेक्षा फ़ाउंडेशन*
प्रस्तुति - 🌻 *तेरापंथ संघ संवाद* 🌻
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