Update
*पूज्यवर का प्रेरणा पाथेय*
👉 लगभग चैदह किलोमीटर का विहार कर धवल सेना के साथ मल्लारपुर पहुंचे शांतिदूत
👉 साध्वीप्रमुखाजी और मुख्यनियोजिकाजी के वचनों से भी श्रद्धालु हुए लाभान्वित
👉 गुरु चरणों में श्रद्धालुओं ने भी अर्पित किए भावनाओं के सुमन, लिया आशीर्वाद
दिनांक 15-05-2017
📝 धर्म संघ की तटस्थ एवं सटीक जानकारी आप तक पहुंचाए
🌻 *तेरापंथ संघ संवाद* 🌻
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👉 *पूज्य प्रवर का आज का लगभग 13.5 किमी का विहार..*
👉 *आज का प्रवास - मल्लारपुए (पश्चिम बंगाल)*
👉 *आज के विहार के दृश्य..*
दिनांक - 15/05/2017
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*प्रस्तुति - 🌻 तेरापंथ संघ संवाद* 🌻
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Update
👉 जयपुर - टूटते परिवार बिखरते रिश्ते कार्यशाला
👉 राउरकेला - स्वागत समारोह का आयोजन
👉 बारडोली - सेवा कार्यक्रम
👉 दिवेर - पंच दिवसीय स्नेह मिलन संपन्न
👉 नोखा - "आचार्य तुलसी" व्यक्तित्व कृतव्य कार्यशाला का आयोजन
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*प्रेक्षाध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ*
अनुक्रम - *भीतर की ओर*
*परिवर्तन की प्रक्रिया - [ 2 ]*
परिवर्तन दृश्य होता है । उसकी प्रक्रिया अदृश्य होती है । व्यवहार बदल गया है --- इसका हमें पता चलता है । कैसे बदला---- इसका हमें पता नहीं चलता ।
एक आदमी अपने व्यवहार को बदलना चाहता है पर वह बदल नहीं सकता ।
एक आदमी व्यवहार को बदलने का उपदेश सुनाता है फिर भी नहीं बदलता ।
बहुत बार प्रश्न होता है--- इतना सुना, फिर भी परिवर्तन क्यों नहीं हुआ? इस विषय में हम वास्तविक्ता की उपेक्षा करते हैं ।
व्यवहार को बदलने का संदेश या निर्देश जब तक सूक्ष्मतर शरीर तक नहीं पहुंचता तब तक व्यवहार में परिवर्तन नहीं होता ।
परिवर्तन के लिए परिवर्तन की प्रक्रिया को जानना जरूरी है ।
15 मई 2000
प्रसारक - *प्रेक्षा फ़ाउंडेशन*
प्रस्तुति - 🌻 *तेरापंथ संघ संवाद* 🌻
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आचार्य श्री तुलसी की कृति आचार बोध, संस्कार बोध और व्यवहार बोध की बोधत्रयी
📕सम्बोध📕
📝श्रृंखला -- 55📝
*संस्कार-बोध*
*प्रेरक व्यक्तित्व*
(सोरठा)
*50.*
सतीदास सोल्लास,
सखा स्थान जय से मिला।
सम रस सरस हुलास,
गण-गौरव जिन से बढ़ा।।
*अर्थ*
*22. सतीदास सोल्लास...*
मुनि सतीदासजी गोगुंदा (मेवाड़) के रहने वाले थे। वे बचपन से ही शांत और कोमल प्रकृति के थे। छोटी उम्र में ही उनकी रावलिया गांव में मंगनी कर दी गई। रावलिया, गोगुंदा आदि गांवों में साधु-साध्वियों का आवागमन रहता था। उनके संपर्क से सतीदासजी के परिवार में धर्म के प्रति श्रद्धा हो गई। विक्रम संवत 1876 में आचार्यश्री भारिमालजी गोगुंदा पधारे। सतीदासजी उस समय बालक थे। फिर भी वे उनसे प्रभावित हुए और मुनि पीथलजी से तत्त्वज्ञान सीखने लगे। विक्रम संवत 1874 में मुनि हेमराजजी का चातुर्मास्य वहां हुआ। जीत मुनि उनके साथ थे। सती दास जी ने उनके पास अपना तत्त्वज्ञान बढ़ाया। वे संसार से विरक्त हो गए। उन्होंने प्रच्छन्न रूप में अब्रह्मचर्य सेवन और व्यापार का त्याग कर दिया।
विक्रम संवत 1876 में मुनि हेमराज जी का पुनः गोगुंदा आगमन हुआ। मुनि जीतमलजी ने सतीदासजी को सुझाव दिया कि वे अपने त्याग प्रकट कर दें। इससे उनकी दीक्षा की भावना ज्ञात हो जाएगी। सतीदासजी ने साहस कर रात्रिकालीन व्याख्यान के समय अपने दोनों त्याग दोहरा दिए। इससे उनके ज्ञातिजनों को बड़ा आघात लगा। उन्होंने कहा-- 'यह बालक है। इतने बड़े नियमों को यह क्या समझता है?' बहुत चेष्टा करने पर भी उन्हें दीक्षा की आज्ञा नहीं मिली।
एक दिन सतीदासजी की मां ने मोहवश कहा-- 'तू शादी नहीं करेगा तो मैं कुएं में गिरकर मर जाऊंगी।' इतना कहकर वह कुएं की ओर बढ़ने लगी। इच्छा न होते हुए भी सतीदासजी ने विवाह की स्वीकृति दी। उन्होंने विवाह के एक बरनौले में पारिवारिक जनों के घर भोजन भी किया। उसके बाद उनका मानस बदल गया। उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि वे विवाह नहीं करेंगे। परिवार के तीव्र विरोध के बावजूद वे अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहे। विक्रम संवत 1877 माघ शुक्ला 5 को 16 वर्ष की अवस्था में उन्होंने मुनि हेमराजजी के पास दीक्षा ग्रहण की। दीक्षित होने के बाद सतीदासजी *'शांति'* नाम से पुकारे जाने लगे। वे मुनि हेमराजजी के साथ 27 वर्षों तक रहे। उन्हें मुनि जीतमलजी के साथ रहने का भी अवसर मिला। दोनों मुनियों में परस्पर विशेष सौहार्द था। इनका सौहार्द मैत्री में परिणत हुआ। मैत्री का भाव कितना पुष्ट था की जीतमुनि ने आचार्य बनने के बाद भी उसे विस्मृत नहीं किया। मुनि हेमराजजी ने भी उनको विनीत, सुयोग्य समझकर अच्छा अध्ययन कराया। मुनि हेमराजजी के दिवंगत होने के बाद आचार्य रायचंदजी ने उनको अग्रगण्य बना दिया।
जयाचार्य के आचार्य पद पर आसीन होने के समय मुनि सतीदासजी मारवाड़ में थे। उन्होंने लाडनू में जयाचार्य के दर्शन किए। उस दिन जयाचार्य ने एक साधू को अपने पास रखकर स्वरूपचंदजी आदि सब साधुओं को उनकी अगवानी में भेज दिया। मुनि सतीदासजी ने दर्शन किए। जयाचार्य ने उनको हाथ पकड़कर पट्ट पर अपने बराबर बिठा लिया। उस समय का दृश्य देखने वाले हर्षविभोर हो गए। लाडनू से विहार कर जयाचार्य सुजानगढ़ पधारे। वहां प्रातःकालीन प्रवचन में जयाचार्य ने मुनि सतीदासजी के बारे में कहा-- 'जिस प्रकार इंद्र के समीप दोगुन्दक देव होते हैं, उसी प्रकार हमारे सामने शांति मुनि हैं।' जयाचार्य ने समय-समय पर अपने परम मित्र के रूप में उनका उल्लेख किया है।
*उग्रतपस्वी मुनि हुलासमलजी व पूज्य कालूगणीराज की साधु-साध्वियों को शिक्षा* के बारे में जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙
📝 *श्रंखला -- 55* 📝
*आगम युग के आचार्य*
*भवाब्धिपोत आचार्य भद्रबाहु*
*जीवन-वृत्त*
गतांक से आगे...
महान् यशस्वी आचार्य भद्रबाहु इस अकीर्तिकर प्रवृति से संभल गए। उन्होंने सबको संतोष देते हुए कहा "मैं संघ की आज्ञा का सम्मान करता हूं। मैं महाप्राण-ध्यान साधना में प्रवृत्त हूं। इस ध्यान साधना से 14 पूर्व की पूर्ण ज्ञान-राशि का मुहूर्त्त मात्र में परावर्तन कर लेने की क्षमता आ जाती है। अभी इसकी संपन्नता में कुछ समय अवशेष है। इससे मैं वहां आने में असमर्थ हूं। संघ मेधावी श्रमणों को यहां प्रेषित करें, मैं उन्हें सात वाचना देने का प्रयत्न करूंगा।"
तित्थोगालिय पइन्ना के अनुसार आचार्य भद्रबाहु का उत्तर था
*एक्केण कारणेणं, इच्छं भे वायणं दाउं।।34।।*
मैं एक अपवाद के साथ वाचना देने को प्रस्तुत होता हूं।
*अप्पट्ठे आउत्तो, परमट्ठे सुट्ठु दाइं उज्जुत्तो।*
*नविहं वायरियव्वो, अहंपि नवि वायरिस्सामि।।35।।*
आत्महितार्थ में युक्त, परमार्थ में प्रवृत्त मैं वाचना ग्रहणार्थ आने वाले श्रमण संघ के कार्य में बाधा उत्पन्न नहीं करूंगा, वे भी मेरे कार्य में विघ्न न बनें।
*पारियकाउस्सग्गो, भत्तट्ठितो व अहव सेज्जाए।*
*निंतो व अइंतो वा, एवं भे वायणं दाहं।।36।।*
कायोत्सर्ग संपन्न कर भिक्षार्थ आते-जाते समय और निशा में शयन-काल से पूर्व मैं उन्हें वाचना प्रदान करता रहूंगा।
श्रमणों ने आचार्य भद्रबाहु के निर्देश को विनयपूर्वक स्वीकार किया और उन्हें वंदन कर वहां से चले, संघ को संवाद सुनाया, इससे मुनियों को प्रसन्नता हुई।
मेधावी, उद्यमवंत, स्थूलभद्र आदि 500 श्रमण संघ का आदेश प्राप्त कर आचार्य भद्रबाहु के पास दृष्टिवाद की वाचना ग्रहण करने के लिए पहुंचे। आचार्य भद्रबाहु प्रतिदिन उन्हें सात वाचनाएं प्रदान करते थे। एक वाचना भिक्षाचर्या से आते समय, तीन वाचनएं विकास बेला में और तीन वाचनएं प्रतिक्रमण के बाद रात्रिकाल में प्रदान करते थे।
दृष्टिवाद का ग्रहण बहुत कठिन था। वाचना प्रदान का क्रम बहुत मंद गति से चल रहा था। मेधावी मुनियों का धैर्य डोल गया। एक-एक करके 499 शिक्षार्थी मुनि वाचना क्रम को छोड़कर चले गए। स्थूलभद्र मुनि यथार्थ में ही उचित पात्र थे। उनकी धृति अगाध थी। स्थिर योग था। वे एकनिष्ठा अध्ययन में लगे रहे। उन्हें कभी एक पद, कभी अर्ध पद सीखने को मिलता, परंतु वे निराश नहीं हुए। आठ वर्ष में उन्होंने आठ पूर्वों का अध्ययन कर लिया।
आठ वर्षों की लंबी अवधि में आचार्य भद्रबाहु और स्थूलभद्र के बीच अध्ययन के अतिरिक्त अन्य किसी भी वार्तालाप का उल्लेख प्राप्त नहीं है।
*प्राचीन ग्रंथों में आचार्य भद्रबाहु और स्थूलभद्र के बीच एक संवाद का उल्लेख है।* वह पढ़ेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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