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#must_Read #SharePlease -प्रकाश और विकास छाबड़ा, दोनों सगे भाई। विदेश में पढ़े। 45-45 लाख रुपए के पैकेज पर #अमेरिका में #माइक्रोसॉफ्ट कंपनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर। पांच साल तक जॉब भी किया, लेकिन धर्म की ऐसी आस्था जागी कि दोनों भाइयों ने नौकरी छोड़ दी। दोनों की पत्नियों ने भी इसलिए छोड़ दी नौकरी...
- अब पाठशाला में बच्चों, युवाओं को जैन धर्म की शिक्षा, नैतिक शिक्षा दे रहे हैं और सुखी जीवन जीने की कला सिखा रहे हैं। वह भी बिना शुल्क लिए। साल में चार संस्कार शिविर का आयोजन करते हैं।
- यही अब उनकी दिनचर्या बन गई है। पहले बड़े भाई प्रकाश और बाद में छोटे भाई विकास ने धर्म के मार्ग पर चलने के लिए नौकरी छोड़ी और वापस वतन लौट आए।
- दोनों भाइयों की शादी भी हो चुकी है। पत्नियां भी अमेरिका में ही नौकरी कर रही थी, लेकिन उन्होंने भी नौकरी छोड़ दी।
- प्रकाश की पत्नी पूजा सीए हैं। वहीं विकास की पत्नी सारिका सॉफ्टवेयर इंजीनियर।
बच्चों की पढ़ाई का खर्च भी उठाते
- प्रकाश बताते हैं कि गांधी नगर में जैन मंदिर है, जिसकी देखरेख हमारे परिवार के लोग ही करते हैं।
- वहां पर पाठशाला संचालित करने के अलावा आसपास के जरूरतमंद बच्चों के स्कूल की फीस से लेकर कॉपी-किताबें का खर्च भी उठाते हैं।
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#must_read क्या आप जाने है विश्व प्रसिद्ध चन्द्र गुप्त मोर्य ने दिगम्बरी दीक्षा ली थी.. @ #ChandraguptMorya 🔥🙂 #share
उत्तर: जब बारह वर्ष का दुर्भिक्ष काल पड़ा तो उस के कारण से आचार्य भद्रबाहु दक्षिण भारत की तरह चले लेकिन बीच में ही उनकी सल्लेखना का समय आगया और वन देवता ने आकाशवाणी कि आपका समय अल्प है इसलिए आप इतना दीर्ध विहार न करे फिर वही एक गुफा में उन्होंने सल्लेखना धारण करली तथा चन्द्रगुप्त मुनि उनकी सेवा में रहे, और उन्होंने विशाखाचार्य जी [ ये आचार्य श्री - ग्यारह अंग, दस पूर्व के पाठी थे ] को उन्होंने आचार्य पद देदिया और संघ जाकर चौल देश में चातुर्मास करता है, फिर समय व्यतीत करके विशाखाचार्य जी ससंघ लोट कर आते है उज्जैनी कि तरफ, तो रस्ते में गुरु के चरण मिलते है जहा पर सल्लेखना हुई थी, वह पर चन्द्रगुप्त मुनि ने चरण चिन्हित किये थे, लेकिन चन्द्रगुप्त मुनि से वंदना-प्रतिवंदना नहीं करते क्योकि विशाखाचार्य जी को लगता है कि गुरु महाराज ने तो सल्लेखना कि है लेकिन इतने घने जंगल में ये चन्द्रगुप्त मुनि बारह साल से कैसे जीवित है, यहाँ तो कोई श्रावक नहीं रहते, ये मुनि चर्या से कैसे जीवित रह सकते है तो इस तरह उन्होंने प्रतिवंदना नहीं कि,
इसके पश्चात् चन्द्रगुप्त मुनि बोले कि यहाँ पास में एक नगर है वही हमारी आहार चर्या होती है और आप भी आहार के लिए उठिए, तो फिर पूरा संघ आहार के लिए जाता है तो जब वापस आजाते है तो संघ में जो ब्रम्हचारी थे, उनका कमण्डलु नगरी में छुट गया था, तो गुरु से आज्ञा लेकर वापस कमण्डलु लेने जाते है तो देखते है कि उनका कमण्डलु एक वृक्ष पर टंगा हुआ है पर वह कोई नगरी दिखाई नहीं देती, अब ये घटना ब्रम्हचारी जी आचार्य महाराज को सुनाते है, तो आचार्य मन में विचार करते है अहो! हम इनकी प्रतिवंदना नहीं कर रहे थे जबकि ये चन्द्रगुप्त मुनि वास्तव में निर्मल चरित्र के धारक है कि जिनकी सेवा में बारह वर्षो तक देवताओ ने श्रावको कि व्यवस्था करके इनको आहार दान दिया है, धन्य है! तो इस तरह सभी मुनिराज ने चन्द्रगुप्त मुनिराज से प्रतिवंदना कि फिर विशाखाचार्य जी बताते है कि देवताओ से बनाया गया आहार साधुओ के लिए अयोग्य होता है इसलिए हम सबल लोगो ने आहार लिया है तो इसका प्रयाश्चित लेना होगा, इस तरह मुनि चन्द्रगुप्त जी ने बारह वर्षो तक देवताओ का आहार लिया था तो उन्होंने अपना प्रायश्चित लिया और सबने प्रयाश्चित लिया और विहार करके उज्जयनी पहुचते है!
►SOURCE - Content sharing by Nipun Jain
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