24.06.2017 ►TSS ►Terapanth Sangh Samvad News

Published: 24.06.2017
Updated: 24.06.2017

Update

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आचार्य श्री तुलसी की कृति आचार बोध, संस्कार बोध और व्यवहार बोध की बोधत्रयी

📕सम्बोध📕
📝श्रृंखला -- 89📝

*व्यवहार-बोध*

*मंगल वचन*

*1.*
अहिंसा संयम तपोमय
धर्म है उत्कृष्ट मंगल।
देवता भी प्रणत उसको
धर्म में जिसका सदा मन।।

*अभिधेय*

(दोहा)

*2.*
सम्यक् दर्शन ज्ञानमय, वर चारित्र प्रकाश।
मिला सहज सौभाग्य से, गण-नंदनवन वास।।

*3.*
आराधक पद के लिए, करें सघन पुरुषार्थ।
निर्विचार चारित्र हो, सध जाए परमार्थ।।

(लावणी)

*4.*
आचार-बोध संस्कार-बोध संगम है,
व्यवहार-बोध-संरचना का अब क्रम है।
संघीय साधना में अनन्य सहयोगी,
व्यवहार-कुशलता पग-पग पर उपयोगी।।

*समणोऽहम्*

लय— देव तुम्हारे...

*5.*
सदा सुरक्षित संयम का रथ,
पथ उसका निर्बाध बहे।
कोऽहं? समणोऽहं समणोऽहं,
क्षण-क्षण अन्तर्नाद रहे।।

*6.*
श्रमण संयमी महाव्रती हैं,
संयम ही उनका धन है।
समिति गुप्ति माताएं करती,
संरक्षण संवर्धन है।।

*ईर्या*

*7.*
धीमे-धीमे देख-देखकर,
तन्मय होकर गमन करें।
वार्तालाप हास्य का वर्जन,
आवेगों का शमन करें।।

*भाषा समिति* के बारे में पढ़ेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙

📝 *श्रंखला -- 89* 📝

*आगम युग के आचार्य*

*सद्धर्म-धुरीण आचार्य सुहस्ती*

*जीवन-वृत्त*

गतांक से आगे...

आधुनिक शोध के आधार पर यह घटना सम्राट बिंदुसार के समय की मानी गई है। आचार्य महागिरि का स्वर्गवास वी. नि. 245 में हुआ। सम्राट संप्रति के राज्याभिषेक का समय वी. नि. 295 है। आचार्य महागिरि के स्वर्गवास के समय सम्राट संप्रति का जन्म भी संभव नहीं है। यह घटना उस दुष्काल की परिकल्पना मानी गई है। संप्रति ने क्षुधा से आक्रांत होकर आचार्य सुहस्ती के पास दीक्षा ग्रहण की।

उस दुष्काल के समय मगध का शासक सम्राट बिंदुसार था। वह महादानी एवं उदारचेता था। उसने जनता को सहायता प्रदान करने के लिए अन्न के भंडार खोल दिए। श्रमणों को भी सम्राट की इस प्रवृत्ति से भिक्षाचरी सुलभ हो गई। सम्राट संप्रति के अत्यधिक प्रभाव के कारण बिंदुसार के युग की यह घटना संप्रति के युग के साथ संयुक्त हुई प्रतीत होती है।

सम्राट अशोक की भांति सम्राट संप्रति भी महान धर्म प्रचारक था। उसे आंध्र आदि अनार्य देशों में जैन धर्म को प्रसारित करने का श्रेय है। आर्य सुहस्ती के सम्यक्त्व बोध एवं श्रावक व्रत दीक्षा स्वीकार करने के बाद सम्राट संप्रति ने अपने सामंत वर्ग को भी जैन संस्कार दिए तथा राजकर्मचारियों को मुनि वेश पहनाकर द्रविड़, महाराष्ट्र, आंध्र आदि देशो में भेजा। जैन विहित साधु मुद्रा में विभूषित राजसुभट अपरिचित अनार्य देशों में घूमे तथा उन लोगों को साधुचर्या से अवगत कराने हेतु आधाकर्मादि दोष विवर्जित आहार को ग्रहण कर जैन मुनियों की विहारचर्या योग्य भूमिका प्रशस्त की। धर्म प्रचारक आचार्य सुहस्ति ने सम्राट संप्रति की प्रार्थना पर अपने शिष्यों को अनार्य देशों में भी भेजा। मिथ्यात्वतिमिराछन्न उन क्षेत्रों में अध्यात्म का दीप प्रज्वलित कर श्रमण लौटे। उस समय आचार्य सुहस्ती ने उनसे अनार्य लोगों के विभिन्न अनुभव सुने।

एक बार आचार्य सुहस्ती श्रेष्ठी पत्नी भद्रा के 'वाहक कुट्टी' स्थान में विराजे। रात्रि के प्रथम प्रहर में 'नलिनी-गुल्म' नामक अध्ययन का परावर्तन (स्वाध्याय) कर रहे थे। निशा का नीरव वातावरण था। भद्रा पुत्र अवंती सुकुमाल अपनी बत्तीस पत्नियों के साथ उपरितन साप्तभौमिक प्रासाद में आमोद-प्रमोद कर रहा था। स्वाध्यायरत आचार्य सुहस्ती की मधुर शब्द तरंगे अवंती सुकुमाल के कानों से टकराईं। उसका ध्यान शास्त्रीय वाणी पर केंद्रित हुआ। नलिनी गुल्म अध्ययन में वर्णित नलिनी गुल्म विमान का स्वरूप से परिचित लगा। ऊहापोह करते-करते भद्रा पुत्र को जाती स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। उसने अपना पूर्व भव देखा और एक नया रहस्य उद्घाटित हुआ। अवंती सुकुमाल अपने पूर्व भव में नलिनी गुल्म विमान का देव था।

नलिनी गुल्म विमान को पुनः प्राप्त करने की उत्कट भावना ने उसे मुनि बनने के लिए प्रेरित किया। आचार्य सुहस्ती के पास पहुंचकर अवंति सुकुमाल ने अपनी भावना प्रस्तुत की। साधु जीवन के कठोर चर्या का बोध देते हुए आचार्य सुहस्ती ने कहा "वत्स! तुम सुकुमाल हो। मुनि जीवन मोम के दांतो से लोहे के चने चबाने के समान दुष्कर है।"

अवंति सुकुमाल अपने निर्णय पर दृढ़ था। उसे न मुनि जीवन की कठोरता का बोध अपने लक्ष्य से विचलित कर सका, न रूपवती बत्तीस पत्नियों का आकर्षण एवं न मां भद्रा की ममता निर्णीत पद से हटा सकी। भद्रा द्वारा अनुमति नहीं मिलने पर भी मुनि परिधान को पहनकर आचार्य सुहस्ती के सामने भद्रापुत्र उपस्थित हुआ। अपने ही द्वारा गृहीत साधुवेश में अवंती सुकुमाल को आचार्य सुहस्ती ने देखा और उसकी वैराग्यमयी तीव्र विचारधारा को परखा। साधना सोपान पर चढ़ने के लिए उत्तरोत्तर उत्कर्ष भाव को प्राप्त अवंति सुकुमाल को परम कारुणिक आचार्य सुहस्ती ने श्रमण दीक्षा प्रदान की।

*अवंति सुकुमाल के जीवन में आगे क्या घटित हुआ...?* जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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दिनांक - 24/06/2017

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