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प्रस्तुति: 🌻 *तेरापंथ संघ संवाद*🌻
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आचार्य श्री तुलसी की कृति आचार बोध, संस्कार बोध और व्यवहार बोध की बोधत्रयी
📕सम्बोध📕
📝श्रृंखला -- 91📝
*व्यवहार-बोध*
*भाषा*
*1. विष-भावित तलवार जीभ है...*
गतांक से आगे...
एक बार कई दिनों तक वह आदमी नहीं आया। शेर को उसकी याद सताने लगी। दो सप्ताह के बाद अचानक आदमी आया। शेर ने इतने दिन न आने का कारण पूछा। आदमी ने उसको अपनी पीठ दिखाई। वहां बहुत बड़ा फोड़ा था। आदमी ने कहा— 'इस फोड़े ने मुझे परेशान कर रखा है। आज तुम्हारी बहुत याद आई तो आ गया।' शेर बोला— 'चिंता मत कर, इसे मैं अभी ठीक कर देता हूं।' शेर ने अपने नाखूनों से फोड़े को चीरा। मुंह से चूसकर उसकी सारी मवाद निकाल दी। आदमी को काफी राहत मिली। वह घर गया और घाव भरने के बाद नियमित रूप से जंगल आने लगा। एक दिन शेर ने पूछा— 'क्यों भाई! अब तो ठीक हो?' आदमी बोला— 'और तो सब ठीक है, पर एक बात मन में आती है।' शेर ने जिज्ञासा की— 'वह क्या बात है?' आदमी ने बात को टालना चाहा। शेर ने आग्रह किया तो वह बोला— 'बात कहने जैसी नहीं है।'
निषेध से आकर्षण बढ़ता है, यह सिद्धांत केवल मनुष्य पर ही लागू क्यों हो? शेर की जिज्ञासा भी प्रबल से प्रबलतर हो गई। उसने कहा— 'मित्र! ऐसी क्या बात है? बताओ तो सही।' इस बार आदमी बात को पचा नहीं सका। वह बोला— 'मन में रह-रहकर एक विचार उठता है कि गाय को खाने वाले का मुंह मेरी पीठ पर लग गया।' यह कथन शेर को बहुत बुरा लगा। उसकी आकृति बदल गई। उसने अनुभव किया कि उसे एक भद्दी गाली दी गई है। फिर भी वह शांत रहा। उसकी भावभंगिमा देखकर आदमी भी समझ गया कि उसकी बात शेर को बुरी लगी है।
आदमी जब भी जंगल आता, अपनी कुल्हाड़ी साथ जाता था। शेर ने कुल्हाड़ी की ओर संकेत करते हुए कहा— 'इस कुल्हाड़ी से मेरी पीठ पर वार करो।' आदमी सहमकर बोला— 'मित्र! यह क्या कह रहे हो? ऐसा काम मुझसे नहीं होगा।' आदमी ने बहुत आनाकानी की। किंतु शेर अपनी बात पर अड़ा रहा। आखिर आदमी को कुल्हाड़ी हाथ में लेकर वार करना पड़ा। शेर की पीठ पर घाव हो गया।
आदमी दुःख और आश्चर्य से शेर की ओर देखने लगा। शेर ने उससे कहा— 'तुमने मेरी पीठ पर वार किया, उस से घाव हुआ है। यह घाव कुछ दिनों में भर जाएगा और मैं इस घटना को भी भूल जाऊंगा। किंतु तुमने वचन का जो घाव मेरे दिल पर किया है, वह कभी नहीं भरेगा। तुम अपने घर जाओ। आज से हमारी दोस्ती समाप्त। अब कभी जंगल में आ गए तो जिंदा नहीं छोड़ूंगा।
यह कहानी प्रमाणित करती है कि आदमी की जीभ विषभावित तलवार का काम कर सकती है। किसी ने ठीक ही तो कहा है— 'लोह तणी तलवार न लागत जीह तणी तलवार इसी।'
*युवराज जयसिंह की मधुर वाणी ने बादशाह औरंगजेब के मन की आत्मीयता का भाव कैसे जगा दिया...?* जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙
📝 *श्रंखला -- 91* 📝
*आगम युग के आचार्य*
*सद्धर्म-धुरीण आचार्य सुहस्ती*
*जीवन-वृत्त*
गतांक से आगे...
आचार्य सुहस्ती तक आचार्य परंपरा विभक्त नहीं थी। गण की सारणा-वारणा एवं शैक्षणिक व्यवस्था दोनों दायित्वों का संचालन एक ही आचार्य की अनुशासना में संपन्न होता था। आचार्य सुहस्ती के बाद यह व्यवस्था विभक्त हो गई। गण के दायित्व को संभालने वाले गणाचार्य, आगम वाचना प्रदान करने वाले वाचनाचार्य एवं सार्वजनीन अध्यात्म प्रवृतियों से युग चेतना को दिशा बोध देने वाले युगप्रधानाचार्य कहलाए।
तीनों दायित्व उत्तरोतर एक दूसरे से व्यापक हैं। गणाचार्य का संबंध अपने गण से होता है। वाचनाचार्य भिन्न गण को भी वाचना प्रदान करते हैं। युगप्रधान का कार्यक्षेत्र सार्वभौम होता है। जैन जैनेतर सभी प्रकार के लोग उनसे लाभान्वित होते हैं।
गणधर वंश की परंपरा गुरु शिष्य की परंपरा थी। वाचनाचार्य और युगप्रधानाचार्य परंपरा किसी एक गण या शाखा से संबंधित नहीं थी। किसी भी गण, कुल और शाखा में एक के बाद दूसरे जो भी प्रभावी वाचनाचार्य एवं युगप्रभावी प्रधानाचार्य हुए उनका नामक्रम इन युगप्रधान एवं वाचक परंपराओं के साथ जोड़ा गया है।
आचार्य सुहस्ती के बाद तीनों परंपराएं विभक्त रूप से प्रारंभ हो जाने के बाद भी कई आचार्य ऐसे भी हुए हैं जो गणाचार्य एवं वाचनाचार्य दोनों पदों के संवाहक रहे हैं। युगप्रधानाचार्य भी गणाचार्य और वाचनाचार्य दोनों में से ही बनते रहे हैं।
आचार्य सुहस्ती का शिष्य समुदाय आचार्य महागिरि की अपेक्षा विशाल था। कल्पसूत्र में आचार्य सुहस्ती के 12 प्रभावशाली शिष्यों का उल्लेख है। उनके नाम इस प्रकार हैं
*(1)* आर्य रोहण, *(2)* यशोभद्र,
*(3)* मेघगणी, *(4)* कामर्द्धिगणी,
*(5)* सुस्थित *(6)* सुप्रतिबुद्ध,
*(7)* रक्षित, *(8)* रोहगुप्त,
*(9)* ऋषिगुप्त, *(10)* श्रीगुप्त,
*(11)* ब्रह्मगणी, *(12)* सोमगणी।
स्थविर आर्य रोहण से उद्देहगण, यशोभद्र से उदुपाटितगण, कामर्द्धि से वेशपाटितगण, सुस्थित, सुप्रतिबुद्ध से कोटिकगण, ऋषिगुप्तसूरी से माणवगण, श्रीगुप्तसूरी से चारणगण का विकास हुआ। अवशिष्ट शिष्यों से संबंधित गण का उल्लेख नहीं मिलता।
आर्य सुहस्ती दशपूर्व की ज्ञानराशि से संपन्न प्रभावशाली आचार्य थे एवं धर्म धूरा के सफल संवाहक थे। उनके आचार्य काल में जैन धर्म के प्रसार की सीमा अधिक विस्तृत हुई।
मगध की भांति सौराष्ट्र और अवंति देश भी जैन धर्म के केंद्र बन गए।
*समय-संकेत*
आचार्य सुहस्ती लगभग 23 वर्ष गृहस्थ जीवन में रहे। उन्होंने 77 वर्ष के कुल चारित्र पर्याय में 46 वर्ष तक युगप्रधान पद को अलंकृत किया। आचार्य महागिरि की भांति उनकी कुल आयु 100 वर्ष थी। सद्धर्म-धुरीण आचार्य सुहस्ती का वी. नि. 291 (वि. पू. 179, ई. पू. 236) में स्वर्गवास हुआ।
*आचार्य-काल*
(वी. नि. 245 से 291)
(वि. पू. 225 से 179)
(ई. पू. 282 से 236)
*विश्वबंधु आचार्य बलिस्सह के प्रभावशाली व्यक्तित्व* के बारे में जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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