07.08.2017 ►Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt ►News

Published: 07.08.2017
Updated: 08.08.2017

Update

#राहुल_गाँधी_ले रहे #जैन_धर्म का ज्ञान

कॉंग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी इन दिनों जैन धर्म दर्शन,कर्म सिद्धांत का ज्ञान ले रहे है, जैन समाज के ख्यातिप्राप्त विद्वान समाजसेवी दानवीर पंडित श्री रतनलाल जी बैनाड़ा लगातार रोज दिन में 2.00 से 3.30 बजे तक राहुल गाँधी जी को जैन दर्शन का ज्ञान देंगे आज प्रथम दिन था, प्रस्तुत चित्र में प्रारंभ से खड़े प.रतनलाल बैनाड़ा जी आगरा श्री हुकुम काका कोटा श्री राहुल गाँधी व श्री प्रदीप जैन आदित्य #RahulGandhi #Congress #Jainism #PradeepJainAditya

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Update

If you carry Proud, Just because you born in Jain Family, then you need to rectify your ideology! Cause, Dharma is more than still you reached. -आप जिस धर्मं/जाति में पैदा हुए इसलिए Proud करते है तो जरा एक बार और सोच ले.. Must Read #share

महावीर स्वामी के समय में जैन शब्द नहीं था, जो जिन के अनुयायी होते थे बस, तब लोग जानते और मानते थे की जिन को मानने वाला सम्यक-मार्गी है क्यों??? क्योकि देव का सम्यक स्वरुप, धर्मं का सम्यक स्वरुप बिना किसी भेदभाव और निष्पक्ष रूप से जहा बताया गया तथा अहिंसा का Live जिन में और जिन का लघुनंदन मतलब निर्ग्रन्थ मुनिराज में मिलता था, महावीर कौन थे, प्रकृति के सम्यक रूप मतलब नग्न रहे और अहिंसा ही परम धर्मं है ऐसा अपनी लाइफ में जिए और जो कर्म उनकी आत्मा से लगे थे उनको हटा दिया और केवलज्ञान प्राप्त किया और जो उन्होंने केवलज्ञान से जाना वही सबको बताया, उनके पास ना तो झूट बोलने का कारन था, न राग था, ना द्वेष था, तो लालच के कारन उपदेश देने का कोई कारन ही नहीं बचता, उनको ना भूख, ना पसीना, ना मृत्यु का दर, न आश्चर्य, ना डर था, उनको कोई हतियार रखने की जरुरत नहीं थी क्योकि उनके पास जब कर्म ही नहीं रहे तो कोई कैसे कुछ बिगाड़ सकेगा, इस बात को जैन धर्मं के मानने वाले क्या विश्व की कोई भी धर्मं/पंथ अस्वीकार नहीं कर सकता की यदि अशुभ कर्म का उदय ना हो तो कोई कुछ नहीं कर सकता जबकि यहाँ तो कर्म ही नहीं बचे |

विश्व के बड़े बड़े विद्वान् और अन्य प्रचलित धर्मं के मानने वाले व्यक्तियों ने अहिंसा का उपदेश तो दिया लेकिन जहा अहिंसा सत्य रूप से साक्षात पाई गयी वो निर्ग्रन्थ साधू होते थे, जो जैन साधू नहीं थे, प्रकृति के वास्तविक रूप और स्वरुप वाले होते थे, अन्दर से वासना से रहित और बाहर से भी वासना से रहित | आज भी बहुत से ऐसे सज्जन पुरुष है जो हिन्दू हो या कोई और मान्यता वाले लेकिन स्वीकार करते है की दिगंबर साधू की चर्या और महानता का कोई मूल्याङ्कन नहीं किया जा सकता है, और सही मायने में जैसा मैंने समझा तो पाया की धर्मं तो जैन या हिन्दू या मुस्लिम या सिख...कोई भी हो इन सबसे उपर है....बस उस धर्मं के मानने वालो को वर्तमान में जैन कहा जाता है, इसमें दोष हम जैन लोगो का भी है की हम धर्म के वास्तविक स्वरुप को नहीं समझते और जैन धर्मं को भी पंथ और जाति विशेष मानते है |

अगर हमने जैन धर्मं से सम्बंधित फॅमिली में जन्म लिया तो ये proud होने वाली इतनी बात नहीं बल्कि धर्मं को समझने वाली बात है, धर्मं को समझने का अवसर है, लेकिन हम बाहर से ही बस जैन धर्मं में पैदा होना proud नहीं, बल्कि जिन द्वारा प्रतिपादित धर्मं से अपने ह्रदय को सम्यक-दर्शन से पवित्र बना लेना है...जैसा मैंने जिनवाणी से पढ़ा और समझा तो जाना की सही में अगर धर्मं का वास्तविक स्वरुप समझमे आजाये तो जैन, हिन्दू, मुस्लिम, सिख आदि में लड़ाई तभी ख़तम हो जाए, जिनने जैन धर्मं में जन्म लिया तो धर्मं उसकी संपत्ति नहीं होगई और सिर्फ जैन धर्मं में जन्म लेने से कोई धर्म का स्वरुप समझने वाला नहीं हो सकता लेकिन हा...अगर किसी का जैन धर्मं वाली फॅमिली में जन्म होता है तो उसका कुछ पुण्य तो होता है क्योकि जैन धर्मं की फॅमिली में जन्म होने से वो व्यक्ति अपने आप बहुत सारे पापो से बच जाता है, जैसे शाकाहारी रहता है, स्थूल हिंसा से बचता है, जिमीकंद आदि कम खाता है, फॅमिली में धर्मं हो तो रात्री भोजान आदि भी नहीं खाता, व्यभिचार या काम वासना आदि से सम्बंधित काम नहीं करता, मैंने एक बार बड़ा सोचा की जैन धर्मं मध्य प्रदेश की तरफ है और साथ में एक बात और भी है की अगर बड़े शहरो से तुलना करो तो मध्य प्रदेश में रहन-सहन काफी simple है, और लोग भी काफी भोले -भाले और धर्मं की भावना सहित है, तो ऐसे देखने में आज की हम Generation को लग सकता है की दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु आदि की लाइफ क्या लाइफ है...एकदम बिंदास |

लेकिन अगर सोचो तो यहाँ की जिंदगी जिंदगी नहीं है, सही में तो मध्य-प्रदेश की और जाओ तो यहाँ व्यक्ति बड़ा शांत और उनके जीवन में ज्यादा भाग-दोड नहीं है तो उसका कर्म बंधन भी कम है, कषाय कम है, धन कमाने की होड़ भी कम है, धर्मं करने का समय भी है, और काम वासना और विषय कषाय और attract करने वाली वस्तु भी कम है, खान पा पवित्र है और मर्यादा से सहित है, धर्मं की जीवंत स्वरुप आपको वह मिल सकता है, ये बहुत बड़ा कारण है की साधू वही पर रहे है....बड़े बड़े धर्मं शास्त्र उठाकर देखो तो समझ में आजाता है, एक आचार्य भक्ति की आदर्श स्वरुप को दिखाने के लिए मेंढक का उदाहरण लेते है क्या वो जैन था??? दूसरी और दुसरे आचार्य चंडाल का उदहारण लेते है जिसकी देवो में रक्षा की और उस पर फुल वर्षा और उसका यथायोग्य आदर किया वो चंडाल क्या जैन था??? अरे रोज लोगो को सूली पर लटकाता था और फिर भी उसका नाम सब से पहले लिया और जन्म से जिन का उपासक ना होते हुए भी सिर्फ नाम के जैन लोगो के उपर था, क्या जैन फॅमिली में जैन पैदा होने से आप जिन धर्मं के मानने वाले हो गए? अगर बिना चर्या और आचरण के काम होना होता तो कब का हो गया होता, लेकिन भैया जब तब जीवन में सम्यक-दर्शन, ज्ञान को चारित्र को समझना होगा क्या होता है,...हजारो उदाहरण है, अगर हम सही से जिनवाणी का अध्यन करे तो आंखे खुल जाए.....और धर्मं की विषय इतना गंभीर और व्यापक है की उसको समझा तो जा सकता है लेकिन दुसरो को समझाना बहुत मुश्किल है क्योकि हम लोगो की बुद्धि में जिस color का चश्मा लगा होता है चीज़ वैसे ही दिखती है....अगर धर्मं/पंथ के नाम पर लड़े तो बस फिर हम पंथ के नेता तो बन सकेंगे लेकिन धर्मं के real स्वरुप को लाइफ में आनंद नहीं कर सकते या उसको समझ नहीं सकते |

जिनेन्द्र वर्णी जी ने आंखे खोल देने वाली बात कही और पढने वाले को हिला कर रख दिया है ऐसे धर्मं का स्वरुप और वर्णन किया की कोई पढ़े तो फिर वो कितना भी अपने को ज्ञानवान या बुद्धि वाला समझता हो उसकी अक्कल ठिकाने आजाये, वे कहते है व्यक्ति जीवन में अच्छी जॉब के लिए प्रथम क्लास से UP, PG और master पता नी क्या क्या करता है और कितने कितने वर्ष जीवन के लगाता है जो उसको उस जीवन में आगे अच्छा career देगा लेकिन जो आगे हजारो जीवन में आपको अच्छा जीवन और दुःख, द्वेष आदि से हटा सकता है आपको Ultimate शांति दे सकता है, जीवन मृत्यु के चक्कर से हटा कर मोक्ष दे सकता है ऐसे धर्मं का स्वरुप आप सिर्फ 10 मिनट में समझना चाहते है और short में समझना चाहते है जो की सम्भव नहीं और सबसे बड़ा आश्चर्य है |

Written As per my understanding of dharma and all things - Nipun Jain

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News in Hindi

#RakshaBandhan से Related Important Topic!!

"मेरे यहाँ जो आहार बने वो ऐसा भोजन हो जिसमे से मैं साधु को दे सकू" ऐसे ऐसी भावना श्रावक के है तो वो महान पुण्य कमालेता है, और यदि श्रावक की ये भावना है की आज मैं स्पेशल महाराज जी ने लिए तैयारी करू, तो महाराज जी के संकल्प से आप भोजन तैयार करते है तो उसमे आपको भी दोष लगेगा और महाराज जी को भी दोष लगेगा, क्योकि महाराज जी को संकल्पित भोजन लेने का निषेध है, सहज जो श्रावक ने अपने लिए भोजन बनाया है उसमे से अगर देता है तो वो तो स्वीकार है, अगर कोई हमसे पूछे आहार वाले दिन की ये आप क्या कर रहे है तो आप बोलते है आज महाराज जी का आहार है हम उनके लिए ये सब घी, दूध, की व्यवस्था कर रहे है जबकि आपका भाव होना चाहिए मैं भोजन ऐसा बनाऊ अगर महाराज जी आये तो वो भी लेसके नहीं तो मैं तो भोजन करूँगा ही, क्योकि साधु का दोष तो हो सकता है साधु तपस्या से ख़तम भी करदे, लेकिन सही पुण्य का जो उपार्जन होता है वो सिर्फ अपने विचारो का खेल है, साड़ी व्यवस्था दोनों के करते है एक का विचार है "महाराज के लिए" दुसरे का विचार है "इसमें से महाराज को दिया जा सके" जिनवाणी बोलती है पुण्य तब लगता है जब अपनी चीज़ आप दान दो, एक बार ऐसी भावना के साथ आहार दे कर देखो तब आपको पता चलेगा, क्योकि सारी बाते सुनने से अनुभव में नहीं आसकती है, इधर भावना है की अपने आहार में से मैं साधु को आहार दू और दूसरी तरफ भावना ये है की साधु के लिए मैं आहार बना रहा हूँ!

हमें यहाँ पर विवेक से भी कार्य करना चाहिए, क्योकि यहाँ पर सिर्फ वैसा ही मान लिया की "सहज जो श्रावक ने अपने लिए भोजन बनाया है उसमे से अगर देता है तो वो तो स्वीकार है" तो औषधिदान की व्यवस्था नहीं बन पायेगी क्योकि परिस्थिति के कारण हमें विवेक को प्रयोग करना चाहिए, इसका सबसे अच्छा उदाहरण विष्णुकुमार मुनि की कथा ही है, पूरी हस्तिनापुर नगरी में आहार के चोके लगे थे, सबको पता था यही मुनिराज आएंगे, और सबने वही खीर का आहार तैयार किया था...तो भी उनके कोई दोष नहीं था, फिर इसी तरह अगर कोई महाराज जी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है तो उनको उनके स्वास्थ्य के अनुकूल ही आहार देना चाहिए, और ऐसी भावना में तो मुनि के रत्न-त्रय के सुरक्षा की भावना ही है, तो इसमें उन् मुनिराज के निमित से औषधि को भोजन रूप में देने पर भी दोष नहीं लगेगा, फिर अगर कोई महाराज जी नमक नहीं लेते तो फिर कैसे होगा और सोचो अगर किसी मुनिराज को बुखार आगया तो हम उनके लिए औषधि के साथ उनके स्वास्थ्य के लिए संगत आहार तैयार करेंगे, तो दशा में उस आहार को भी दोषित मानना पड़ेगा क्योकि वो उन एक मुनिराज के लिए ही तैयार किया गया था लेकिन ऐसा नहीं होता....तो इस तरह हमें विवेक से ही कार्य करना चाहिए!

अब वहा पे जो आहर दान दिए तो उस आहार से मुनि महाराजो के गले में शांति हुई. तो वोह आहर में खीर दे गया जिससे उनके कंठो में आराम मिला... तो यहाँ पे तैय्यारी तो पूरी नगरी ने की थी तो सब घरो में मुनि के चोके हो सके ऐसा तो मुमकिन नहीं था तो वहा पे सब घरवालो ने एक दुसरे को भोजन का आमंत्रण दिया और एक दम वात्सल्य, भावुक वातावरण बन गया. अंत में लोगो ने एक दुसरे के हाथो में पतला सा धागा सूत्र बांधा और संकल्प, कसम खायी की कभी भी देव शास्त्र गुरु पे संकट आयेगा तो सब मिलकर उनका सामना करेगे. तो विष्णुकुमार मुनि उनके गुरु के पास जाते हे और उनको बोलते है मैंने रूप भी बदला है तो प्रायश्चित लेते हे. और अंत में वो उसी भव में धातिया और अधातिया कर्मो के नाश कर कर उसी भव में मोक्ष जाते हे.. तो उस लिए यहाँ पे मोक्षगामी विष्णुकुमार मुनि की कथा वात्सल्य अंग में आती हे!

"कोई भोजन विशेष रूप से किसी महाराज की लिए बनाया जाये और वो उनको पता चल जाये या उनकी अनुमोदना हो तब ही वो दोष-पूर्ण है", आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने एक बार बताया था की "बहुत से प्राचीन ग्रंथो में आया है की जिस मुनिराजो को अवधिज्ञान रहता है उनको आहार के समय या उससे पहले अवधिज्ञान लगाने से मना किया है, क्योकि अगर वो उस समय अवधिज्ञान लगाए तो उनको सब पता चल जायेगा आहार के बारे में, तब ये आहार दोषपूर्ण हो जायेगा"

आज काफी लोग को मानना हे की विष्णु कुमार ने जो भी किया था वोह उचित नहीं था. वोह 6 वे 7 वे गुणस्थान वाले मुनि थे.अब जब क्षुल्लक जी ने समाचार दिए की 700 मुनि पर उपसर्ग हो रहा हे. तब उन्होंनेजो वेश धारण किया था उसके कारण से वो 5 वे गुणस्थान में आगये थे तो वो उचित काम नहीं था ऐसा आज के कई विद्वान लोग का मानना हे. अगर विष्णुकुमार मुनि यह जानने पर भी कुछ न करते और ऐसा सोचते की मेरे को ध्यान में ही बेठने दो जो भी होगा वो उनके पाप कर्मोदय के अनुसार होगा ऐसा मानकर चले होते तो वो सोचो उस समय उनकी आत्मा का क्या होता, उनका गुणस्थान 7 वे से सीधा 1 [मिथ्यात्व] पे आजाता तो ज्यादा कोनसा उचित है 7 वे में से 5 में आना या 1 गुनास्थान में आना. फिर ये जान लेने के बाद की मेरे में क्षमता है उपचार करने की... धवला की चोथी पुस्तक में आया है की उस समय जब वो वामन के रूप में थे उस समय उनका पंचम गुणस्थान था तथा आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज भी यही बोलते है और हदय में वात्सल्य भाव था इसी लिए ही गए उनको बचाने में... तो उससे बहेतर और अनुचित बात यह हे की इतने बड़े बड़े महान मुनि के किये अपनी जबान न चलाओ वो अच्छा हे.... तो वो महान पुरुष को खाली नमन करो..और आचार्य जिनसेन ने लिखा हे की ऋद्धिधारी साधु में इतनी ताकत होती हे की वो चाहे तो सूर्य और चन्द्रमा को भी आकाश में विचलित कर सकते हे. समुद्र को हथेली के प्रहार से खाली कर सकते हे. अकाल में प्रलय उत्पन्न कर सकते हे और जिसमे मोक्ष की पात्रता नहीं हे उससे भी मोक्ष पात्र बना सकते है. तो सोचो की कितनी महान हस्ती हे ऋद्धिधारी मुनि....... वो तो जरा सा ज्ञान क्या बढ़ जाता है इस प्राणी का तो वो बडबडाना चालू कर देता है और अपने से ज्यादा किसी को समझता नहीं, और कुछ भी मुनिओ के बारे में भी बोलने लगता है, आचार्य कुंद-कुंद स्वामी साक्षात् बोल रहे है पंचम काल के अंत तक भाव लिंगी मुनि होंगे, "भाव लिंग आपके ज्ञान का विषय ही नहीं है" इस तरह अगर कभी देव-शास्त्र-गुरु पर कभी कोई संकट आये और उस भक्त में क्षमता है तो अपनी विवेक बुद्धि के अनुसार कदाचित रक्षा कर सकता है! अगर आप देव-शास्त्र-गुरु की रक्षा करेंगे तो आपकी रक्षा होगी संसार सागर से डूबने से बचने में! ॐ शांति ॐ

ये रक्षा बंधन [वात्सल्य अंग कथा] लेख - क्षुल्लक ध्यानसागर जी महाराज (आचार्य विद्यासागर जी महाराज से दीक्षित शिष्य) के प्रवचनों से पर लिखा गया है! - Nipun Jain

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