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प्रसारक -🌻 तेरापंथ *संघ संवाद* 🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙
📝 *श्रंखला -- 158* 📝
*अक्षयकोष आचार्य आर्यरक्षित*
*जीवन-वृत्त*
गतांक से आगे...
राजसम्मान पाने पर भी मां के आशीर्वाद के बिना जननी-वत्सल रक्षित खिन्न था। उसने सोचा अनेक शास्त्र पढ़ने पर भी मैं मां को तोष नहीं दे सका। सुत के उदासीन मुख को देखकर सामायिक संपन्नता के बाद रुद्रसोमा बोली "पुत्र! जो विद्या तुझे आत्मबोध नहीं करा सकी उससे क्या? मेरे मन को प्रसन्न करने के लिए आत्म-कल्याणकारी जिनोपदिष्ट दृष्टिवाद का अध्ययन करो।" रक्षित ने चिंतन किया दृष्टिवाद का नाम सुंदर है। मुझे इसका अध्ययन अवश्य करना चाहिए। मां से रक्षित ने दृष्टिवाद के अध्यापनार्थ अध्यापक का नाम जानना चाहा। रुद्रसोमा ने बताया "पुत्र! अगाध ज्ञान के निधि, दृष्टिवाद के ज्ञाता तोषलिपुत्र नामक आचार्य इक्षुवाटिका में विराज रहे हैं। उनके पास जाकर अध्ययन प्रारंभ करो। तुम्हारी इस प्रवृत्ति से मुझे शांति की अनुभूति होगी।"
मां का आशीर्वाद प्राप्त कर दूसरे दिन प्रातःकाल रक्षित ने इक्षुवाटिका की ओर प्रस्थान किया। नगर के बहिर्भूभाग में उसे पिता का मित्र वृद्ध ब्राह्मण मिला। उसके हाथ में 9 इक्षुदण्ड पूर्ण थे। दसवां आधा था। इक्षु का यह उपहार लेकर वह रक्षित से मिलने आ रहा था। संयोगवश मित्र के पुत्र को मार्ग में पाकर वह प्रसन्न हुआ। रक्षित ने उनका अभिवादन किया। पिता के मित्र वृद्ध ब्राह्मण ने प्रीतिवश उसे गाढ़ आलिंगन में बांध लिया। रक्षित ने कहा "मैं अध्ययन करने के लिए जा रहा हूं। आप मेरे बंधुजनों की प्रसन्नता के लिए उनसे घर पर मिलें।" रक्षित ने अनुमान लगाया इक्षुवाटिका की ओर जाते हुए मुझे साढ़े नौ इक्षुदण्ड का उपहार मिला। इस आधार पर मुझे दृष्टिवाद के सार्ध नौ परिच्छेदों की प्राप्ति होगी।
उल्लास के साथ रक्षित इक्षुवाटिका में पहुंचा। ढड्ढर श्रावक को वंदन करते हुए देखकर रक्षित ने उसी भांती आचार्य तोषलिपुत्र को वंदन किया। श्रावकोचित क्रिया से अनभिज्ञ नवागंतुक व्यक्ति को विधियुक्त वंदन करते हुए देखकर आचार्य तोषलिपुत्र ने पूछा "वत्स! तुमने यह विधि कहां से सीखी?" रक्षित ने ढड्ढर श्रावक की ओर संकेत किया और अपने आने का प्रयोजन बताया। आचार्य तोषलिपुत्र ने ज्ञानोपयोग से जाना "वज्रस्वामी के बाद यह बालक प्रभावी होगा।" उन्होंने रक्षित को संबोधित करते हुए कहा "वत्स! दृष्टिवाद का अध्ययन करने के लिए मुनि बनना आवश्यक है।" रक्षित में ज्ञानपिपासा प्रबल थी। वह श्रमण दीक्षा स्वीकार करने के लिए उद्यत हो गया। आचार्य तोषलिपुत्र ने संयम मार्ग पर बढ़ने के लिए उत्सुक रक्षित को वीर निर्वाण 544 (विक्रम संवत 74, ईस्वी सन् 17) में भगवती दीक्षा प्रदान की। दीक्षा लेने के बाद मुनि रक्षित ने निवेदन किया "गुरुदेव! मैं राजपुरोहित सोमदेव का पुत्र हूं। राजपुरोहित का पुत्र होने के कारण दशपुर नरेश उदायन का और वहां के नागरिकों का मेरे प्रति अनुराग है। मेरे प्रायः पारिवारिक जन जैन संस्कारों से अनभिज्ञ हैं। उनका मोहानुबंध सघन है। मेरे मुनि बनने की बात ज्ञात होने पर राजा द्वारा अथवा पारिवारिक जनों द्वारा बलपूर्वक मुझे घर ले जाने को विवश किया जा सकता है। प्रभो! मेरे कारण किसी प्रकार से जैन शासन की अवमानना न हो, अतः आप शीघ्र अन्यत्र किसी दूसरे क्षेत्र में प्रस्थान करें, यही मेरे लिए, आपके लिए श्रेयस्कर है।"
*क्या आचार्य तोषलिपुत्र ने मुनि रक्षित का निवेदन स्वीकार किया...?* जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ *संघ संवाद*🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙
📝 *श्रंखला -- 157* 📝
*अक्षयकोष आचार्य आर्यरक्षित*
अनुयोग व्यवस्थापक आर्यरक्षित की गणना युगप्रधान आचार्यों में है। वल्लभी युगप्रधान स्थविरावली के अनुसार आर्यरक्षित 19वें युगप्रधान आचार्य हैं। माथुरी स्थविरावली में उनका 20वां कर्म है। पूर्वधर आचार्यों में उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। आर्य रक्षित अंतिम सार्ध नौ पूर्वधर थे। उन्होंने जैन शासन में कई नई प्रवृत्तियों की स्थापना की और विकास के अनेक द्वार खोले।
*गुरु-परंपरा*
आर्यरक्षित के दीक्षा गुरु आर्य तोषलिपुत्र थे। आचार्य तोषलिपुत्र किस गण, कुल, शाखा से संबंधित थे, इसका उल्लेख न तो आचार्य आर्यरक्षित ने स्वयं किया है और न प्रभावक चरित्र आदि ग्रंथों में है।
आर्यरक्षित ने दीक्षा प्रदाता गुरु तोषलिपुत्र से आगमों का अध्ययन किया तथा पूर्वों का अध्ययन दशपूर्वधर वज्रस्वामी के पास किया, अतः तोषलिपुत्र आर्यरक्षित के दीक्षा गुरु और विद्या गुरु भी थे। आचार्य वज्रस्वामी उनके पूर्वज्ञान प्रदाता थे।
*जन्म एवं परिवार*
आर्यरक्षित का जन्म मध्यप्रदेश अंतर्गत (मालव) दशपुर (मंदसौर) निवासी ब्राह्मण परिवार में वीर निर्वाण 522 (विक्रम संवत 52, ईस्वी पूर्व 5) में हुआ। आर्यरक्षित के पिता का नाम सोमदेव और माता का नाम रुद्रसोमा एवं लघुभ्राता का नाम फल्गुरक्षित था।
*जीवन-वृत्त*
आर्यरक्षित के पिता सोमदेव दशपुर नरेश उदायन के राज्य में राजपुरोहित थे। ऐतिहासिक संदर्भ में नरेश उदायन का किसी प्रकार का प्रसंग प्राप्त नहीं है। राजपुरोहित सोमदेव की पत्नी रुद्रसोमा उदारहृदया और प्रियभाषिणी महिला थी। वह जैन धर्म की उपासिका थी।
वर्णज्येष्ठ, कुलज्येष्ठ, क्रियानिष्ठ, कलानिधि सोमदेव का नागरिकों में विशेष आदर था। उसके दो पुत्र थे रक्षित और फल्गुरक्षित। दोनों पुत्र सूर्याश्व की भांति कुल की धुरा को वहन करने में सक्षम थे। पुरोहित ने दोनों पुत्रों को वेदों का सांगोपांग अध्ययन करवाया। रक्षित को अपने अध्ययन से संतोष नहीं था। उसमें उच्च शिक्षा पाने की तीव्र उत्कंठा थी। पुत्र की भावना को समझकर पिता ने विशिष्ट अध्ययन के लिए उसे पाटलिपुत्र भेजा। पाटलिपुत्र उच्च शिक्षा का केंद्र था। रक्षित ने वहां रहकर वेद-वेदांग आदि चतुर्दश विद्याओं का गहन अध्ययन किया। यथेप्सित अध्ययन कर लेने के बाद उपाध्याय का आदेश प्राप्त कर विद्वान रक्षित दशपुर लौटा। राजपुरोहित पुत्र होने के कारण रक्षित को राज सम्मान प्राप्त हुआ तथा नागरिकों ने हार्दिक स्वागत किया। सभी का भव्य स्वागत स्वीकार करता हुआ रक्षित मां के पास पहुंचा। रुद्रसोमा उस समय सामायिक कर रही थी। उसने आशीर्वाद देकर अपने पुत्र का वर्धापन नहीं किया।
*इतना सम्मान पाने पर भी मां से आशीर्वाद नहीं मिलने पर रक्षित के मन में क्या विचार उठे...?* जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ *संघ संवाद*🌻
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👉 प्रेक्षा ध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ
प्रकाशक - प्रेक्षा फाउंडेसन
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