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29 अक्टूबर का संकल्प
*तिथि:- कार्तिक शुक्ला नवमी*
मनुष्य जीवन है दुर्लभ विस्मृत न हो जाए यह चिंतन ।
कदम बढ़े उसी दिशा में जहाँ बन सकें हम अकिंचन ।।
📝 धर्म संघ की तटस्थ एवं सटीक जानकारी आप तक पहुंचाए
🌻 तेरापंथ *संघ संवाद* 🌻
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👉 अध्यात्म साधना केन्द्र, महरौली (दिल्ली)
📍 *अणुव्रत महासमिति 2017-19 कार्यसमिति की प्रथम बैठक का आयोजन*
प्रसारक 🌻तेरापंथ *संघ संवाद*🌻
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दिनांक 28-10-2017 राजरहाट, कोलकत्ता में पूज्य प्रवर के आज के प्रवचन का संक्षिप्त विडियो..
प्रस्तुति - अमृतवाणी
सम्प्रेषण -👇
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🌻 तेरापंथ *संघ संवाद* 🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙
📝 *श्रंखला -- 184* 📝
*आगम-पिटक-आचार्य*
*स्कन्दिल, हिमवन्त, नागार्जुन*
आचार्य हिमवंत का जीवन परिचय चूर्णिकार के शब्दों में इस प्रकार है—
*हिमवंतपव्वतेण महंतत्तणं तुल्लं जस्स सो हिमवंतमहंतो इह भरहे णत्थि अण्णो तत्तुल्लो त्ति, एस थुतिवादो। उत्तरतो वा हिमवंतेण सेसदिसासु य समुद्देण निवारितो जसो, हिमवंत निवारणो जसो महंतो त्ति अतो हिमवंत महंतो। महंतक्किमो कहं? उच्येत-सामत्थतो, महंते वि कुल-गण-संघप्पयोयणे तरति त्ति परंपवदिजएण वा तवविसेसे वा धितिबलेण परक्कमंतो महंतो। अणंतगम-पज्जवत्तणतो अणंतधरो तं, महंतं हिमवंतणामं वंदे सेसं कंठं।*
*(नंदी चूर्णि, पृष्ठ 10)*
चूर्णिकार ने आचार्य हिमवंत के यश को आसमुद्रांत विस्तृत बताया है।
नागार्जुन का जन्म वीर निर्वाण 793 (विक्रम सम्वत् 323), दीक्षा वीर निर्वाण 807 (विक्रम सम्वत् 337) और आचार्य पद वीर निर्वाण 826 (विक्रम सम्वत् 356) बताया गया। आचार्य पदारोहण के समय नागार्जुन 33 वर्ष के युवा थे।
*आगम वाचना* जैन निर्युक्ति, भाष्य, टीका आदि ग्रंथों में तीर्थंकर महावीर के निर्वाणोत्तर काल से अब तक चार आगम वाचनाओं का उल्लेख है। उनमें प्रथम वाचना वीर निर्वाण की द्वितीय शताब्दी के उत्तरार्द्ध में संपन्न हुई। उस समय दुष्काल के प्रभाव से श्रुतधर मुनियों की क्षति होने पर भी श्रुतधारा सर्वथा विच्छिन्न नहीं हुई थी। चौदह पूर्वों के ज्ञाता भवाब्धि पतवार आचार्य भद्रबाहु एवं श्रुतसागर का समग्रता से पान करने में सक्षम प्रतिभासंपन्न स्थूलभद्र जैसे श्रमण विद्यमान थे।
वीर निर्वाण की नौवीं शताब्दी में द्वादश वर्षीय दुष्काल का श्रुत विनाशकारी भीषण आघात पुनः जैन शासन को लगा। साधु जीवन की मर्यादा के अनुकूल आहार की प्राप्ति दुर्लभ हो गई। अनेक श्रुत संपन्न मुनि काल के अंक में समा गए। सूत्रार्थ ग्रहण-परावर्तन के अभाव में श्रुत-सरिता सूखने लगी। जैन शासन के सामने विषम स्थिति थी। बहुसंख्यक मुनिजन सुदूर प्रदेशों में विहरण करने के लिए प्रस्थान कर गए थे।
दुष्काल की समाप्ति के बाद अवशिष्ट श्रुत-संकलना के उद्देश्य से मथुरा में श्रमण सम्मेलन हुआ। सम्मेलन का नेतृत्व आचार्य स्कंदिल ने किया। श्रुत संपन्न मुनियों की उपस्थिति सम्मेलन की अनन्य शोभा थी। श्रमणों की स्मृति के आधार पर आगम पाठों का व्यवस्थित संकलन हुआ। इस द्वितीय आगम वाचना का समय वीर निर्वाण 827 से 840 (विक्रम सम्वत् 357 से 370) का मध्यकाल है। यह आगम वाचना मथुरा में होने के कारण माथुरी वाचना कहलाई। आचार्य स्कंदिल की अध्यक्षता होने के कारण इसे स्कंदिली वाचना के नाम से अभिहित किया गया।
नंदी चूर्णि के आधार पर प्रस्तुत घटना चक्र का दूसरा पक्ष भी है। दुष्काल के इस क्रूर आघात से श्रुत नष्ट नहीं हुआ। सहस्रों श्रुतधर मुनि काल कलवित हो गए। अनुयोगधर मुनियों में संपूर्ण अनुयोग के धारक एक स्कंदिल बच गए। उन्होंने मथुरा में अनुयोग का प्रवर्तन किया। अतः यह वाचना स्कंदिल वाचना के नाम से विश्रुत हुई। इसी समय के आस-पास एक आगम वाचना वल्लभी में आचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता में संपन्न हुई। इसे वल्लभी वाचना एवं नागार्जुनीय वाचना की संज्ञा मिली। स्मृति के आधार पर सूत्र संकलना होने के कारण वाचना भेद रह जाना स्वाभाविक था। आचार्य देवर्द्धिगणी के समय में आगम वाचना का महत्त्वपूर्ण कार्य वल्लभी में हुआ। अतः वर्तमान में आचार्य नागार्जुन की आगम वाचना को प्रथम वल्लभी वाचना के नाम से जानते हैं।
*आचार्य देवरद्धिगणी ने इन दोनों आचार्यों की किस प्रकार स्तुति की है...?* जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ *संघ संवाद*🌻
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त्याग, बलिदान, सेवा और समर्पण भाव के उत्तम उदाहरण तेरापंथ धर्मसंघ के श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।
📙 *'नींव के पत्थर'* 📙
📝 *श्रंखला -- 8* 📝
*गेरूलालजी व्यास*
*कच्छ में बीज-वपन*
कच्छ में तेरापंथ का बीज वपन करने का श्रेय व्यासजी को ही है। सम्वत् 1851 की बात है। मठ की सम्मति के आय-व्यय का विवरण प्रस्तुत करने तथा तत्संबंधी कई समस्याओं पर विचार विमर्श करने के लिए वे मांडवी गए। महंतजी की संपत्ति का कार्य टीकमजी डोसी देखा करते थे। वे ही उनके सर्वाधिकार संपन्न मुनीम थे। धार्मिक दृष्टि से वे स्थानकवासी जैन थे। धर्म प्रेमी होने के साथ ही वे तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में भी पूरा अधिकार रखते थे। अपने पास आने-जाने वालों के साथ वह बहुधा धर्म चर्चा किया करते थे। धार्मिक उत्तर-प्रत्युत्तरों में उन्हें आनंद आता था। इधर व्यासजी भी इसी अभिरुचि के व्यक्ति थे। एक दिन भोजन आदि से निवृत्त होने के पश्चात दोनों व्यक्ति धार्मिक चर्चा करने लगे। डोसीजी को यह जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि व्यासजी जैन धर्म को मानने वाले हैं। उनके शास्त्रीय ज्ञान ने तो उन्हें और भी अधिक चकित कर दिया। ज्यों-ज्यों चर्चा का विषय आगे बढ़ा त्यों-त्यों व्यास जी के ज्ञान का प्रभाव डोसीजी पर छाने लगा।
मठ की ओर से मांडवी में एक 'अन्नसत्र' चलाया जाता था। उसमें ब्राह्मणों तथा निर्धन व्यक्तियों को निःशुल्क भोजन देने की व्यवस्था थी। डोसीजी के साथ व्यासजी की चर्चा इसी प्रसंग पर चल रही थी। डोसीजी अन्नसत्र के माध्यम से किए जाने वाले उक्त अन्नदान को पुण्य का हेतु बतला रहे थे तो व्यासजी उसे लौकिक सहयोग मात्र बतलाकर संसार पक्ष कह रहे थे। बहुत देर तक दोनों ओर से तर्क-वितर्क चलते रहे। व्यासजी ने अनेक शास्त्रीय उदाहरणों के साथ स्वामी भीखणजी के विचार उनके सम्मुख रखे। डोसीजी एक अच्छे आगमवेत्ता श्रावक थे, अतः सारी बातें सहज ही उनके मन में बैठती चली गईं। उन्हें लगा कि वे अंधेरे से प्रकाश की ओर अग्रसर हो रहे हैं। उन्होंने व्यासजी के साथ अनुकम्पा, धर्म-अधर्म व्रत-अव्रत आदि अन्य अनेक विषयों पर भी तत्त्व चर्चा की। जब उनके मन में पूर्ण रूप से स्वामीजी की श्रद्धा जम गई, तब उन्होंने व्यासजी से कहा कि आपने मेरी आंखें खोल दी हैं। मैं आज से स्वामी भीखणजी को अपना गुरु मानता हूं। उनकी यह गुरुधारणा अप्रत्यक्ष थी। कालांतर में सम्वत् 1853 में वे मारवाड़ गए और पाली में प्रथम बार स्वामीजी के दर्शन किए। वहीं पर उन्होंने खड़े होकर प्रत्यक्ष रुप से स्वामीजी को गुरु धारण किया। उन्होंने कच्छ में अनेक परिवारों को श्रद्धालु बनाया।
*गेरू-पन्थी*
गेरूलालजी ने डोसीजी के अतिरिक्त कच्छ के अनेक व्यक्तियों को भी तत्त्व-श्रद्धा प्रदान की। वहां के लोग उन सबको 'गेरूपन्थी' कह कर पुकारने लगे। सम्वत् 1889 में तेरापंथ के तृतीयाचार्य श्री ऋषिराय जब कच्छ में पधारे तब स्थानीय लोगों ने उनका प्रथम परिचय 'गेरूलालजी के गुरु' रूप में ही प्राप्त किया। जयाचार्य ने गेरूलालजी के विषय में लिखा है—
गेरूलालजी व्यास रे, श्रावक तेरा मांहिलो।
ते कच्छ देशे गयो तास रे, टीकम ने समझावियो।।
व्यासजी तथा डोसीजी के पश्चात् श्रावक पुरुषोत्तमजी पारख ने भी कच्छ के क्षेत्रों में अनेक व्यक्तियों को श्रावक बनाया था। इस प्रकार व्यासजी डोसीजी और पारखजी के द्वारा समझे हुए अनेक परिवार ऋषिराय को उस यात्रा के समय विभिन्न नगरों में मिले थे। उनमें से अधिकांश के लिए ऋषिराय के दर्शन ही प्रथम गुरु दर्शन थे। उससे पूर्व तेरापंथी होते हुए भी तेरापंथ उनके लिए केवल कल्पना का ही विषय था। 'गेरूपंथी' तथा 'टीकमजी के श्रावक' कहलाने वालों को ऋषिराय की उस यात्रा के समय से ही स्वयं को तेरापंथी समझने तथा कहने की प्रेरणा मिली। अन्य लोगों ने भी उन सबको तभी से तेरापंथियों के रूप से जानना प्रारंभ किया। व्यासजी का वह आद्य उपक्रम वस्तुतः श्रावकों के लिए एक मार्गदर्शन है।
*केलवा के श्रावक मूणदासजी* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
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👉 अध्यात्म साधना केन्द्र, महरौली (दिल्ली)
📍अणुव्रत महासमिति कार्यसमिति की प्रथम बैठक शुभारम्भ
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👉 अध्यात्म साधना केन्द्र, महरौली (दिल्ली)
📍अणुव्रत महासमिति द्वारा कार्यशाला का आयोजन
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*आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी* द्वारा प्रदत प्रवचन का विडियो:
👉 *विषय - ध्यान के प्रकार, भाग 2*
👉 *खुद सुने व अन्यों को सुनायें*
*- Preksha Foundation*
Helpline No. 8233344482
संप्रेषक: 🌻 तेरापंथ *संघ संवाद* 🌻
*प्रेक्षाध्यान जिज्ञासा समाधान श्रृंखला*
उद्देश्य - साधकों के मन में उठने वाली जिज्ञासाओं का समाधान ।
*स्वयं प्रेक्षा ध्यान प्रयोग से लाभान्वित हो व अन्यो को भी लाभान्वित करे ।*
🙏🏼
*प्रेक्षा फाउंडेशन*
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👉 प्रेक्षा ध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ
प्रकाशक - प्रेक्षा फाउंडेसन
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