25.01.2018 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 25.01.2018
Updated: 26.01.2018

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👉 पॉन्डिचेरी - *उपराज्यपाल श्रीमती किरण बेदी ने मर्यादा महोत्सव कार्यक्रम का किया ट्वीट*

प्रस्तुति: 🌻 *संघ संवाद*🌻

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🎖 *जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूँ* को *नोलेज रिव्यू* मैगजीन की देश भर के *सर्वाधिक प्रशंसनीय 20 विश्वविद्यालयों की गौरवपूर्ण सूची* में स्थान प्राप्त हुआ है।
📍 *संघ संवाद* परिवार की तरफ से इस उपलब्धि पर संस्थान को हार्दिक बधाई❗
🌻 *संघ संवाद* 🌻

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙

📝 *श्रंखला -- 244* 📝

*दिव्य विभूति आचार्य देवनन्दी (पूज्यपाद)*

*राजवंश*

आचार्य देवनन्दी पूज्यपाद का गङ्ग राजवंश से विशेष संबंध रहा है। मुक्त हस्तदानी, धर्म तथा संस्कृति के संरक्षक, जिनेश्वर देव के प्रति अचल मेरु की तरह सुदृढ़ आस्थाशील जैन शासक अविनीत कोंगुणी आचार्य पूज्यपाद के समय में गङ्ग वंश के प्रतापी नरेश थे। वे दीर्घजीवी शासक थे। शिलालेखों में उन्हें शतजीवी कहा है।

अतुल पराक्रमी, धर्मानुरागी गङ्ग नरेश अविनीत कोंगुणी के गुरु जैनाचार्य विजयकीर्ति थे। गुरु के मार्गदर्शन में नरेश ने जीवन-विज्ञान का प्रशिक्षण पाया। अविनीत कोंगुणी के पिता गङ्ग नरेश माधव तृतीय भी जिनेश्वर देव के परम भक्त थे। जैन धर्म के संस्कार अविनीत कोंगुणी को अपने पिता से प्राप्त थे।

धर्म की इस गंगा का प्रभाव आगे से आगे गतिशील रखने हेतु नरेश अविनीत कोंगुणी ने अपने महत्त्वाकांक्षी पुत्र युवराज दुर्विनीत कोंगुणी को शिक्षा प्राप्त करने के लिए जैनाचार्य देवनन्दी पूज्यपाद के पास रखा। बालवय में राजकुमार दुर्विनीत कोंगुणी ने अनेक विषयों की शिक्षा आचार्य देवनन्दी से प्राप्त की।

दुर्विनीत कोंगुणी की गणना दक्षिण भारत के प्रत्यापी नरेशों में हुई। अपने पिता की भांति जैन धर्म के प्रति उसकी आस्था अडोल थी। गुरु पूज्यपाद को पाकर वे अपने आप को धन्य मानते और गर्व की अनुभूति करते।

नरेश दुर्विनीत कोंगुणी साहित्य प्रेमी थे और सफल अनुवादक थे। उन्होंने अपने गुरु पूज्यपाद द्वारा रचित 'शब्दावतार न्यास' का कन्नड़ अनुवाद किया तथा 'प्राकृत वृहद् कथा' का संस्कृत अनुवाद भी इनका बताया जाता है।

नरेश दुर्विनीत कोंगुणी के द्वितीय पुत्र गंग नरेश मुष्कर भी जैन धर्म के प्रति सुदृढ़ आस्थावान् थे। उनके समय में जैन धर्म गंगवंश का राज-धर्म बन गया था। इस नरेश के सामंत भी जैन थे। जैनाचार्यों को अपने धर्म प्रचार कार्यों में गंग नरेशों का प्रबल प्रोत्साहन था। आचार्य देवनन्दी पूज्यपाद को अपने कार्य क्षेत्र में गंग नरेश दुर्विनीत कोंगुणी का यथेप्सित सहयोग मिल पाया था।

*आचार्य देवनन्दी पूज्यपाद द्वारा रचित साहित्य* के बारे में जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻तेरापंथ *संघ संवाद*🌻
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त्याग, बलिदान, सेवा और समर्पण भाव के उत्तम उदाहरण तेरापंथ धर्मसंघ के श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

📙 *'नींव के पत्थर'* 📙

📝 *श्रंखला -- 68* 📝

*विरधोजी कोठारी*

*सिक्के की खरीद*

विरधोजी तथा उनके साथियों ने 'नया नगर' बसा तो लिया परंतु फिर भी वह निश्चिंत नहीं हो पाए। ठाकुर का भय सदा बना रहता था। न जाने कब आक्रमण कर दे या लूटपाट करवा दे। इस समस्या का स्थाई हल यही हो सकता था कि महाराणा से निवेदन करके सुरक्षा की कोई व्यवस्था करवा ली जाए। विरधोजी इस कार्य के लिए उदयपुर गए। महाराणा से मिलने का प्रयास किया, परंतु वे उसमें सफल नहीं हो सके। गोगुंदा के ठाकुर की प्रेरणा से बिचौलिए व्यक्ति उसमें बाधा उपस्थित करते रहे। कई दिनों तक वहां रहने के पश्चात् विरधोजी को यह भली-भांति ज्ञात हो गया कि अब सीधे तरीके से महाराणा से बातचीत करने का अवसर मिलना कठिन है।

उन्होंने तब एक दूसरा उपाय सोचा। बाजार में जाकर मेवाड़ी सिक्के की रेजगी खरीदनी प्रारंभ की। हजारों रुपयों की 'रेजगी' की खरीद लेने पर बाजार में उनकी तंगी आ गई और भाव बढ़ गए। विरधोजी ऊंचे भावों में भी उसे खरीदने गए। यह बात महाराणा के पास पहुंची कि एक व्यक्ति ऊंचे भाव में भी रेजगी खरीदे जा रहा है। महाराणा ने अपना 'हलकारा' भेजकर विरधोजी को बुलवाया। उन्हें यही तो चाहिए था। वे तत्काल महाराणा की सेवा में उपस्थित हो गए। महाराणा ने इस प्रकार रेजगी खरीदने का कारण पूछा तो अपना परिचय देते हुए उन्होंने कहा— 'यह सब तो मुझे अन्नदाता के दर्शन करने के लिए ही करना पड़ा है। मुझे अपनी प्रार्थना आपके चरणों तक पहुंचाने से रोका जा रहा है।'

महाराणा ने उन्हें आश्वस्त करते हुए पूछा— 'कहो, क्या प्रार्थना लेकर आए हो?'

विरधोजी ने तब अपनी सारी राम-कहानी महाराणा को सुना दी और नए बसाए गांव की सुरक्षा के लिए राज्य की ओर से व्यवस्था करने की मांग की।

महाराणा ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार करते हुए राज्य की ओर से वहां की सुरक्षा के लिए कुछ आदमी भेज दिए। विरधोजी भी कृतकार्य होकर पुनः अपने घर लौट आए।

*ठाकुर झुके*

गोगुंदा के ठाकुर विरधोजी से कोई बदला नहीं ले सके। उन्हें उस झगड़े से लाभ के स्थान पर हानि ही उठानी पड़ी। अनेक धनिक परिवारों के चले जाने से गांव की शोभा को घटी ही, साथ ही उनसे प्राप्त होने वाले कर आदि से राज्य को जो आय होती थी, वह भी समाप्त हो गई। इस प्रकार लगातार सात वर्षों तक हानि उठाने के पश्चात् अंततः ठाकुर को ही झुकना पड़ा। वे स्वयं मनाने के लिए उनके पास गए और माफी मांग कर उन्हें फिर से गोगुंदा में बसने के लिए राजी कर लिया। सात वर्षों की लंबी अवधि के पश्चात् सारे परिवार पुनः अपने-अपने मकानों में आकर रहने लगे।

*अविचल वृत्ति वाले धर्म परायण श्रावक हेमजी बोल्या के प्रेरणादायी जीवन-वृत्त* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻तेरापंथ *संघ संवाद*🌻
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News in Hindi

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙

📝 *श्रंखला -- 245* 📝

*दिव्य विभूति आचार्य देवनन्दी (पूज्यपाद)*

*साहित्य*

आचार्य देवनन्दी पूज्यपाद बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे शास्त्रज्ञ, समीक्षक, दार्शनिक, कवि, वैयाकरण तथा ग्रंथ रचनाकार थे। वे अपने प्रतिपाद्य को प्रस्तुत करने में निर्भीक मनोवृत्ति के थे। हरिवंश पुराण एवं आदि पुराण के कर्ता जिनसेनद्वय, जिनेन्द्र प्रक्रिया के रचनाकार गुणनन्दी, ज्ञानार्णव के रचनाकार शुभचन्द्र आदि आचार्यों ने विद्वान् आचार्य देवनन्दी पूज्यपाद के बुद्धिबल की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। श्रवणबेलगोला आदि के शिलालेखों में भी उनकी प्रशस्तियां अंकित हैं।

आचार्य देवनन्दी ने अपनी विकासशील बुद्धि का उपयोग साहित्य रचना की दिशा में भी किया। उन्होंने उत्तम कोटि के ग्रंथ रचे। उनके ग्रंथों का परिचय इस प्रकार है—

*तत्त्वार्थवृत्ति (सर्वार्थसिद्धि)* आचार्य देवनन्दी पूज्यपाद कि यह गद्यात्मक संस्कृत टीका है। तत्त्वार्थ के मूल सूत्रों पर इसकी रचना हुई है। इसके दस अध्याय हैं। यह ग्रंथ दार्शनिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इस ग्रंथ में जीव, अजीव आदि सात तत्त्वों का विस्तृत विवेचन है। पुण्य और पाप तत्त्व को बंध तत्त्व के अंतर्गत ही मान लिया गया है।

तत्त्वार्थ सूत्र के प्रत्येक पद की विशद व्याख्या होने के कारण वृत्ति के लक्षण इसमें सम्यक्तया घटित हैं। रचनाकार ने स्वयं अपनी इस रचना को वृत्ति कहा है और वृत्ति का नाम सर्वार्थसिद्धि दिया है। ग्रंथांतर्गत प्रत्येक अध्याय के समाप्ति प्रसंग पर वे लिखते हैं

*इति सर्वार्थसिद्धिसंज्ञायां तत्त्वार्थ वृत्तौ*
*प्रथमोऽध्यायः समाप्तः.....*

यह टीका सुखकर एवं परमार्थ सिद्धि का हेतु है। परमार्थ के साथ जीवन के अन्य समस्त अर्थ स्वतः सिद्ध होते हैं, अतः इस टीका का नाम सर्वार्थसिद्धि उपयुक्त है। प्रस्तुत वृत्ति ग्रंथ की रचनाशैली संक्षिप्त, मर्मस्पर्शी एवं अर्थ गरिमा से परिपूर्ण है। ग्रंथ की समुचित शब्द संयोजना और प्रवाहमयी भाषा ग्रंथकार के वैदुष्य को प्रकट करती है।

स्वर्ग और अपवर्ग के अभिलाषी व्यक्ति को मनोयोगपूर्वक अहर्निश इस ग्रंथ का स्वाध्याय करना चाहिए। ऐसा इस वृत्ति की प्रशस्ति में बताया गया है।

आचार्य उमास्वाति के तत्त्वार्थ सूत्र पर दिगंबर संप्रदाय की उपलब्धि टीकाओं में यह टीका सर्वप्रथम है। तत्त्वार्थ सूत्र की अन्य टीकाएं इसी आधार पर रची गई हैं।

*समाधि तन्त्र* यह अध्यात्म विषयक उच्च कोटि का गंभीर ग्रंथ है। ग्रंथ का दूसरा नाम समाधिशतक भी है। ग्रंथ की शैली मनोरम और हृदयस्पर्शी है। ग्रंथगत विषय का प्रतिपादन मनोमुग्धकारी है। ग्रंथकार ने मानो स्थितप्रज्ञ जैसी स्थिति में पहुंचकर इस अध्यात्म के गूढ़ ग्रंथ की रचना की है। अध्यात्म सुधारस से ओतप्रोत यह कृति पाठक के लिए माननीय एवं पठनीय है। इस पर कई संस्कृत टीकाएं हैं।

*इष्टोपदेश* यह ग्रंथकार की लघु रचना है। इसके 51 पद्य हैं। समाधितन्त्र की तरह इस ग्रंथ में भी अध्यात्म का सरस विवेचन है। अध्यात्म साधक के लिए आत्मस्वरूप का बोध ही परम इष्ट होता है, इसका मर्मस्पर्शी उपदेश होने के कारण कृति का इष्टोपदेश नाम सार्थक है। पंडित आशाधरजी कि इस पर संस्कृत टीका है। वर्तमान में टीका सहित यह ग्रंथ प्रकाशित है।

*आचार्य देवनन्दी पूज्यपाद द्वारा रचित जैनेन्द्र व्याकरण* के बारे में जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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त्याग, बलिदान, सेवा और समर्पण भाव के उत्तम उदाहरण तेरापंथ धर्मसंघ के श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

📙 *'नींव के पत्थर'* 📙

📝 *श्रंखला -- 69* 📝

*हेमजी बोल्या*

*धर्म परायण*

हेमजी बोल्या लावा सरदारगढ़ के निवासी थे। वे ऋषिराय के शासनकाल के स्थानीय श्रावकों में प्रमुख होने के साथ एक दृढ़धर्मी और निर्भीक व्यक्ति थे। जब भी अवसर मिलता वे साधु-साध्वियों की सेवा में अपना समय लगाते। मुनिजनों के संपर्क में उन्होंने अच्छा धार्मिक ज्ञान अर्जित कर लिया था। त्याग व तपस्या में भी अच्छी रुचि रखा करते थे। प्रतिदिन सामायिक किया करते थे। ध्यान और जप में जब वे बैठते तब उसी में पूरे तल्लीन हो जाया करते थे। योगों की स्थिरता बहुत अच्छी थी। पच्चीस वर्ष की पूर्ण युवावस्था में उन्होंने सपत्नीक ब्रम्हचर्य व्रत स्वीकार कर लिया था। पाप का पूरा-पूरा बचाव किया करते। आजीविका के लिए मुख्यतया ब्याज का कार्य था। अधिकांश रकम किसानों और चरवाहों में दी हुई थी। ब्याज उगाहने में कोमलता का ही व्यवहार किया करते थे। किसी से लड़ना-झगड़ना, अपशब्द बोलना आदि कार्यों से वे बहुत दूर रहा करते थे।

*मृत्यु का स्पर्श*

एक बार पश्चिम रात्रि के समय वे सामायिक कर रहे थे। स्थिरासन होकर जब वे ध्यानमग्न हुए तभी उनके शरीर पर कहीं से एक सर्प चढ़ आया। उन्होंने उसके लिजलिजे शरीर का स्पर्श होते ही जान लिया कि शरीर पर कोई सांप रेंग रहा है, फिर भी वे साहसपूर्वक ज्यों के त्यों फिर बैठे रहे। उस समय जरा सा हिलना भी मृत्यु को आह्वान करना होता, परंतु ऐसे समय में स्थिरता रखना भी तो कोई साधारण काम नहीं था। सांप ऊपर चढ़ा सिर तक पहुंचने पर जब आगे चढ़ने के लिए कोई आलंबन नहीं मिला तब गले में आंटी लगाई और अपने सिर को आगे बढ़ाते हुए इधर-उधर टटोलकर आगे का मार्ग खोजने लगा। इस क्रिया में उसने उनके मुख को भी अनेक बार अपने मुख से स्पर्श करके देखा। आखिर आगे मार्ग के अभाव में वह नीचे उतरा और अन्यत्र चला गया। श्रावक हेमजी ने ध्यान के उन क्षणों में एक प्रकार से साक्षात् मृत्यु का ही स्पर्श किया था। वह स्पर्श कोमल होते हुए भी कितना भयंकर होता है, उसे हेमजी की तरह कोई प्रत्यक्षानुभूति करके ही जान सकता है।

*अविचल वृत्ति*

एक बार श्रावक हेमजी ने बाजार में अपनी दुकान पर सामायिक कर रखी थी उसी समय किसी ने आकर सूचना दी कि तुम्हारे घर पर आग लग गई है। घर में काफी कपास रखा हुआ था। ऐसी स्थिति में आग लगने के समाचार किसी भी व्यक्ति के मन में उथल-पुथल मचा देने को पर्याप्त होते हैं, परंतु हेमजी उससे विचलित नहीं हुए। सामायिक को बीच में छोड़ने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। सामायिक पूर्ण करके वे घर पहुंचे तब तक आग बुझाई जा चुकी थी। कोई विशेष हानि नहीं हुई, यह तो एक संयोग की बात थी, वह हो भी सकती थी, फिर भी उनकी अविचल वृत्ति तो कसौटी पर खरी उतर ही चुकी थी।

*श्रावक हेमजी बोल्या के प्रेरणादायी जीवन-वृत्त में व्यापार में भी उदारता की वृत्ति* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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📝 *कटक, उड़ीसा से..*

👉 *पूज्यप्रवर आचार्य श्री महाश्रमण के सान्निध्य में "सर्व धर्म सम्मेलन" का आयोजन*


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Sangh Samvad
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  1. आचार्य
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