10.02.2018 ►Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt ►News

Published: 10.02.2018
Updated: 13.02.2018

Update

जिस प्रकार लैंस के माध्यम से सूर्य की किरणों को केंद्रित करके कागज को जलाया जाता हैं,उसी प्रकार वीतराग एकाग्रता (ध्यान)से कर्मो की निर्जरा होती हैं।(ध्यान में उपयोग की केन्द्रीयकरणता से कर्म जल जाते हैं)

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देशी संस्कृति हें विदेशी संस्कृति नहींः आचार्य श्री विद्यासागरजी @ Raipur... Latest Pravachan!!:) #AcharyaVidyasagar

किसी भी पदार्थ को जो हमारे पास प़त्यक्ष नहीं हैं उनका आभास हम कर सकते हें श्रद्धा के माध्यम से उसे प्रत्यक्ष भी देखा जा सकता हैं!उपरोक्त उदगार आचार्य भगवन् विद्यासागरजी महाराज ने रायपुर की रविवारीय धर्म सभा में व्यक्त किये!उन्होने कहा कि भारत में आज भी संस्कार जीवित हैं और उनही संस्कारों के कारण आज तापमान को सहन करने की शक्ती हमारे पास हें! साधन के माध्यम से अनुमान किया जाता हें वर्ण व्यवस्थानुसार हम अपनी इन्द़ियां के माध्यम से हम भले ही प्रभू को न देख पाए लेकिन अपने अनुभव के माध्यम से हम उसकी संवेदना को महसूस कर सकते हें!उन्होंने कहा कि भगवान महावीर का सिद्धांत वहूत दूर तक फैला था यह आज भी विदित हो रहा हैं!यह देसी संस्कृति हैं विदेशी नहीं!उन्होंने अपने रायपुर के पूर्व स्मरण को सुनाते हुये कहा कि तीन साल पहले हम जिस स्थान पर आए थे, आज वंहा पर नगर वस गया और इमारतें खडी हो गई! उन्होंने नगर की तीन आवशकताओं पर अपने विचार प्रगट करते हुये कहा कि हवा पानी और देवदर्शन जंहा होते हैं,आप कितनी भी दूर चले जाओ वंहा पर आपको घर छूटने की तकलीफ नहीं होती! जैसे वृक्ष जितना ऊपर से दिखाई देता हैं उसकी जडे़ उतनी ही गहराइयों में लिये होती हैं! उन्होंने कहा कि जैसे वृक्ष की जडे़ जंहा उसको खाना पानी मिलता हें वंहा तक फैल जाया करती हें उसी प्रकार जो व्यक्ति धर्म से जूडा होता हें वह अपना स्थान खोज ही लेता हैं! धर्म साधना में साधना करने वालों की कमी नहीं हैं! स्थान की आवशक्ता होती हैं! और जंहा पर देव दर्शन सुलभ हों वह स्थान खाली रह ही नहीं सकता! उन्होंने संस्कारों की वात करते हुये कहा लोकतंत्र में आप अपने आपको अपने तक नहीं रखो अआपका समर्पण राष्ट के प्रति भी होंना चाहिये!अपना अडोस पडोस भी ऐसा रखो जिससे आप अपने कर्तव्य से विमुख न हों! सोमवार से पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव प्रातः ७ वजे से प्रारंभ हो जाएगा! प्रतिष्ठाचार्य श्री जय कुमार जी शास्त्री के द्वारा संचालन किया गया! इस अवसर पर भगवान के माता पिता एवं सौ धर्म इन्द़ की वग्गी से शोभायात्रा निकाली गई! एवं पंचकल्याणक महोत्सव के सभी पात्रों ने आचार्य श्री को श्री फल अर्पित कर आशीर्वाद प्राप्त किया! इस अवसर पर आचार्य श्री के गृहस्थ आश्रम के वडे़ भाई श्री महावीर भैया जी सदलगा से आये हुये हें उन्होंने भी आचार्य श्री के पाद प्रक्षालन कर आशीर्वाद प्राप्त किया! रविवार होंने से वडी़ संख्या में आज भारत वर्ष के विभिन्न नगरों से भक्त जन पधारे हुये थे! उपरोक्त जानकारी दयोदय महासंघ के राष्ट्रीय प्रवक्ता अविनाश जैन ने दी

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रायपुर -@ पंच कल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव में दिखाई जाने वाली घटनाएँ काल्पनिक नहीं, प्रतीकात्मक हैं, हमारी आँख कितनी भी शक्तिशाली हो जाए, लेकिन वह काल की पर्तों को लांघकर ऋषभ काल में नहीं देख सकतीं,उन घटनाओं को पंचकल्याणक महोत्सव के माध्यम से तीर्थंकर काल की घटनाओं को दिखाया जा रहा हैं लाभान्डी रायपुर का उपरोक्त क्षेत्र अपनी विशुद्धि को लिये इस युग के महान संत शिरोमणी आचार्य गुरूवर श्री विद्यासागरजी महाराज के संघ सानिध्य में पाषाण से भगवान वनाने की क़ियाओं को किया जा रहा हैं!

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आचार्य श्री विद्यासागर जी.. ऋषभदेव के दीक्षा संस्कार करते हुए... @ today clip 🙂 shared by balika mandal of Raipur..

"जैनदर्शन" ध्यान को आध्यात्मिकता प्रदान करते गोम्मटेश बाहुबली - नवभारत टाइम्स #Precious_Article #MustRead - #sharePls

कर्नाटक की राजधानी बेंगलूर से करीब 185 किलोमीटर दूर श्रवणबेलगोल नगर में विन्ध्यगिरि पहाड़ी पर भगवान गोम्मटेश बाहुबली की प्रतिमा पिछले 1025 वर्षों से अविचल खड़ी है। अपनी भव्यता और सौम्यता में यह प्रतिमा अनुपम और अद्वितीय है। हिमालय के पर्वत-शिखर जैसी ऊँचाई, पिरामिडों जैसी भव्यता और ताजमहल जैसी सुन्दरता को अभिव्यक्त करते भगवान बाहुबली का यह बिंब संसार के अद्भुत आश्चर्यों में एक माना जा सकता है। एक हजार वर्ष से अधिक समय से यह प्रतिमा खुले आकाश में प्रचंड धूप, धूल, हवा, तूफान, वर्षा के थपेड़े सहन करती हुई अडिग खड़ी है। समुद्र स्तर से 3288फीट तथा जमीन से 438 फीट ऊँचे पर्वत पर स्थित इस प्रतिमा के ऊपरी भाग को 15 किलोमीटर दूर से देखा जा सकता है। चेहरे का बालसुलभ भोलापन, झुकी हुई आत्मीय पलकें, मोहक मुस्कान और किसी योगी जैसी प्रशान्तता धारण किएयह प्रतिमा किसी भी व्यक्ति के ध्यान को आध्यात्मिक ऊँचाइयों तक ले जाने के लिए प्रेरित करती है। पर्वत का अभिन्न अंग होने के कारण यह प्रतिमा सजीव प्रतीत होती है। वैसे तो इससे विशाल प्रतिमाएं संसार में और भी हैं, किन्तु एक समूचे ग्रेनाइटके शिलाखंड से निर्मित और बिना किसी सहारे के खड़ी ऐसी दिव्य प्रतिमा दुनियामें केवल गोम्मटेश बाहुबली की ही है। अफगानिस्तान में बमियान की बुद्ध प्रतिमाएं 120 और 175 फीट ऊँची अवश्य थीं, किन्तु वे एक ही शिलाखंड से नहीं बनाई गई थीं। मिस की रयाम्सीज-2 वमेम्नान की प्रतिमा तथा स्फिंक्स या तो एक ही पाषाण खंड से नहीं बने हैंअथवा बिना किसी आधार के नहीं खड़े हैं। बाहुबली की प्रतिमा इतनी समानुपातिक है कि देखने के बाद किसी को भी उसकी विशालता का बोध नहीं होता। श्रवणबेलगोल की इस प्रतिमा जैसा सामंजस्य संसार में अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। बालक, युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरुष, कलाकार, विचारक, दार्शनिक तथा संन्यासी सभी अपनी-अपनी रुचि के अनुसार इसके चुंबकीय आकर्षण से प्रभावित हुए बिना नहीं रहते।

गोम्मटेश बाहुबली की यह दिगम्बर प्रतिमा भारतीय श्रमण संस्कृति और दिगम्बर जैन परम्परा का प्रतीक है। यह प्रतिमा सभी बाहरी अलंकरणों और आयुधों (शस्त्र आदि) से रहित है। दिगम्बर जैन प्रतिमाएं वीतराग ध्यानस्थ मुदा में ही स्थित होती हैं। कुछ लोग ऐसा सोच सकते हैं कि वस्त्र रहित होना भद्देपनका सूचक है, किंतु यह नग्नता तो बालकों जैसी निश्छलता और पवित्रता की प्रतीक है। वस्त्र उतारनेमें वासना की बू आ सकती है, किंतु नग्न रहना पूर्णत्याग और अपरिग्रह का द्योतक है। पूर्ण अपरिग्रह (आंतरिक और बाह्य) दिगम्बर जैन दर्शन, संस्कृति तथा जीवन शैली का प्रतिबिम्ब है। गोम्मटेश बाहुबली का यह बिम्ब ध्यानारूढ़ अवस्था में आत्मावलोकन की उस स्थिति में है, जहाँ उन्हें अपने शरीर का भान ही समाप्त हो गया है। बेलें (लताएं) शरीर के ऊपरचढ़ गई हैं। जीव जन्तुओं ने अपने बिल बना लिए हैं। फिर भी भगवान अडिग और शरीरसे बाहर होने वाली गतिविधियों से अनभिज्ञ, आत्मचिंतन में स्थित परम पुरुषार्थ की साधना में निमग्न हैं। इस प्रतिमा का निर्माण और स्थापना गंग वंश के नरेश राचमल्ल के चौथे सेनापति और प्रधानमंत्री चामुण्डराय ने कराई थी। हालांकि इसकी स्थापना की तिथि और समय को लेकर विद्वानों में मतभेद रहे हैं। बहरहाल, यहाँ इतना हीजानना पर्याप्त है कि विद्वानों ने काफी विचार-विमर्श के बाद और 'बाहुबलीचरित' में दिए हुए नक्षत्रीय संकेतों को ध्यान में रखते हुए श्रवणबेलगोल में प्रतिमा की प्रतिष्ठा के लिए 13 मार्च, 981 की तिथि को सर्वाधिक अनुकूल माना। इसी आधार पर सन 1981 में सहस्त्राब्दि महामस्ताभिषेक सम्पन्न हुआ था। तब से यही समय प्रामाणिक माना जा रहा है। श्रवणबेलगोल का 'श्रवण' शब्द स्पष्ट रूप से 'श्रमण' यानी भगवान बाहुबली (जो स्वयं महाश्रमण थे) से सम्बन्धित है। कन्नड़ में'बेल' और 'गोल' शब्दों का अर्थ है 'श्वेत सरोवर' अथवा 'धवल सरोवर।' नगर के मध्य कल्याणी तालाब मूल 'श्वेत सरोवर' की जगह स्थित माना जाता है। एक महत्वपूर्ण शिलालेख में केवल 'बेलगोल' शब्द का उल्लेख है, 'श्रवणबेलगोल' का नहीं। अत: नगर का नाम 'श्रवणबेलगोल' अवश्य ही श्रमण भगवान् बाहुबली की प्रतिमा की स्थापना के बाद ही प्रसिद्ध हुआ है। (' अनेकान्त' से साभार) ~ नवभारत टाइम्स

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Director - Arihant Kumar Jain 'Anuraagi' Shravanabelagola/Sravanabelagola is one of the most important Jain tirth (a sacred place) of the Jains in South Indi...

#Research #Documentary Film on the real #Bahubali [ Directed by - Arihant Kumar Jain 'Anuraagi', Mumbai ] https://youtu.be/aiiuA0sd8Sc

After running successfully in National & International film Festivals... to know more about importance of Ancient Prakrit Language, Ancient Indian Heritage and the History of 57 feet Highest Monolith of the World.. watch it and share it. #Jai_Gommatesh_Bahubali

Shravanabelagola/Sravanabelagola is one of the most important Jain tirth (a sacred place) of the Jains in South India. It is a place of great importance from the point of pilgrimage, ancient Prakrit Language and also archeological and religious heritage. Shravanabelagola, nestled by the Vindhyagiri and Chandragiri Hills, protected by the monolith Bhagwan Bahubali, and home to over 2,300 years of Jain heritage, is a veritable picture postcard of our history and heritage spanning the centuries. In the town of Shravanabelagola, stands a colossal rock-cut statue of Lord Gommateshwara Shri Bahubali.

This 57 feet tall statue is the most magnificent among all Jain works of art. It was built in circa 982. The Bahubali statue is described as one of the mightiest achievements of ancient Karnataka in the realm of sculptural art. The statue stands upright in the posture of meditation known as kayotsarga, reaching a height of nearly 57 feet atop the Vindyagiri Hills - accessible through a flight of 500 steps.

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