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Published: 16.02.2018
Updated: 18.02.2018

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स्थिरता और अनुशासन के प्रतीक गोमटेश्वर भगवान बाहुबली
By-डॉ.सुनील जैन संचय, ललितपुर
1037 साल पुरानी परंपरा पूरे गौरव के साथ हम सब के समक्ष श्रवणबेलगोला में शुरू हो गई है । लाखों श्रद्धालुओं की उपस्थिति में नई इमारत यहां लिखी जा रही है।
कर्नाटक के श्रवणबेलगोला में स्थित विंध्यगिरि पहाड़ी पर भगवान बाहुबली के महामस्तकाभिषेक का भव्य और ऐतिहासिक आयोजन का शुभारंभ देश के राष्ट्रपति महामहिम रामनाथ जी कोविंद के कर कमलों से हो चुका है। भारत गणराज्य के उपराष्ट्रपति महामहिम वैंकैया नायडू ने भी 10 फरवरी को श्रवणबेलगोला पहुँचकर राज्याभिषेक किया ।यह आयोजन हर 12 साल पर होता है। इस बार 7-26 फरवरी तक महोत्सव चलेगा। इस मौके पर 1037 साल पुरानी इस विशाल मूर्ति का दूध, दही, घी, केसर, जल समेत कई पवित्र वस्तुओं से अभिषेक किया जाता है। उक्त विशेष तिथियों के बाद भी 6 माह तक महामस्तकाभिषेक चलता रहेगा। पिछला अभिषेक 2006 में हुआ था। जिसका शुभारंभ तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल कलाम जी ने किया था। पूरा आयोजन पूज्य कर्मयोगी स्वस्ति श्री चारुकीर्ति भट्‌टारक स्वामी जी करा रहे हैं। ये उनके नेतृत्व में लगातार चौथा महामस्तकाभिषेक है। वहीं परम पूज्य आचार्य श्री वर्द्धमान सागर जी भी तीसरी बार अपना मङ्गल सान्निध्य प्रदान कर रहे हैं।
इस मूर्ति का सौन्दर्य अपने आप में इतना विशेष है कि वर्तमान में उपलब्ध सभी मूर्तियों में यह अनुपमेय ही है। शिल्पी ने मूर्ति को सर्वांगीण सुन्दर बनाने में कोई कमी नहीं रखी है। गोम्मटेश्वर द्वार के बाई तरफ एक पाषाण पर एक शिलालेख है जो कि शक् सं. ११०२ का है। उसमें कन्नड़कवि पं. वोप्पण ने मूर्ति की महिमा को प्रगट करते हुए एक काव्य कहा है जिसका अर्थ यह है-
‘जब मूर्ति आकार में बहुत ऊँची और बड़ी होती है तब उसमें प्रायः सौन्दर्य का अभाव रहता है। यदि मूर्ति बड़ी भी हुई और उसमें सौन्दर्य भी रहा तो भी उसमें दैवी चमत्कार का होना असम्भव-सा है किन्तु आश्चर्य है कि यहाँ इस गोम्मटेश्वर की मूर्ति में तीनों का मेल दिख रहा है। अर्थात् यह मूर्ति ५७ फूट ऊँची होने से बहुत बड़ी है, सौन्दर्य में बेजोड़ है और दैवी चमत्कार को प्रकट करने वाली है। अतः यह प्रतिबिम्ब सम्पूर्ण विश्व के द्वारा पूजित होने से अपूर्व ही है।’
गोमटेश्वर के दर्शन से शांति और उल्लास की अनुभूति होती है:
श्रवणबेलगोला हमें अपने खोए हुए अस्तित्व के पास ले जाता है । भगवान बाहुबली की प्रतिमा देखकर आत्मा मंत्रमुग्ध हो जाती है और इसके आगे सिर श्रद्धा से झुक जाता है। यहां के आध्यात्मिक वातावरण से मन जुड़ता जाता है, शांति का आत्मिक आनंद यहां जो मिलता है वह शब्दों में नहीं कहा जा सकता। यहां आये दर्शनार्थियों को इस प्रतिमा के दर्शन मात्र से शांति और उल्लास की अनुभूति होती है। स्थिरता और अनुशासन के प्रतीक गोमटेश्वर भगवान बाहुबली आज के युग में अपनी शांति, त्याग और अहिंसा के संदेश के साथ और भी प्रासंगिक होते जा रहे हैं। श्रवणबेलगोला आने का मतलब है अपने स्वर्णिम इतिहास से जुड़ना महामस्तकाभिषेक के दौरान श्रवणबेलगोला चमक उठता है।श्रवणबेलगोला में हजारों-लाखों श्रद्धालुओं का विशाल सैलाव अपने आप में देखने योग्य है। परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की गोमटेश अष्टक में गोमटेश्वर की छवि दर्शाती यह पंक्तियां मनोहारी हैं-
नील कमल के दल-सम जिन के युगल-सुलोचन विकसित हैं,
शशि-सम मनहर सुखकर जिनका मुख-मण्डल मृदु प्रमुदित है।
चम्पक की छवि शोभा जिनकी नम्र नासिका ने जीती,
गोमटेश जिन-पाद-पद्म की पराग नित मम मति पीती॥
चंद्रगुप्त मौर्य और उनके गुरु भद्रबाहु:
इस क्षेत्र के ज्ञात इतिहास से लेकर श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु से लेकर आगे तक अनेक महान आचार्य हो चुके हैं। पूरे विश्व में एक ही पत्थर से निर्मित इस विशालकाय मूर्ति का निर्माण 983 ई. में गंगा राजा के एक मंत्री चामुण्डराय ने करवाया था। श्रवणबेलगोला में जहां बाहुबली की विश्व प्रसिद्ध प्रतिमा जैनों की आस्था का केंद्र है, वहीं चंद्रगिरि पर्वत पर मौर्य वंश के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य और उनके गुरु भद्रबाहु की समाधि और गुफा भी है। यहीं पर इन लोगों ने अपने जीवन का आखिरी समय भगवान को याद करते हुए बिताया था।
चंद्रगुप्त ने अपना साम्राज्य पुत्र बिंदुसार को सौंप दिया और जैन मुनि भद्रबाहु के साथ श्रवणबेलगोला आ गए। यहां आकर तपस्या करते हुए सल्लेखना पूर्वक प्राण त्याग दिया।
तीर्थंकर नहीं होते हुए भी बाहुबली भगवान की विशाल मूर्तियों की स्थापना की गई।
कहा जाता है कि चंद्रगिरि पर्वत से चामुण्डराय ने बाण छोड़ा था जो कि सामने के पर्वत के शिखर से टकराया था। वही शिलाखंड १००० वर्षों से भगवान् बाहुबली के प्रतिबिंब रूप से असंख्य प्राणियों को आत्मशांति का अनुभव करा रहा है। चामुंडराय ने अपनी मां की इच्छापूर्ति के लिए विंध्यगिरि पर इस विशाल प्रतिमा का निर्माण कराया था। विंध्यगिरि के सामने स्थित चंद्रगिरि पर्वत का प्राचीन नाम ‘कटवप्र’ है।
अहिंसक युद्ध के सूत्रधार बाहुबली:
बाहुबली भगवान के प्रति आम जनता में अकाट्य श्रद्धा और विश्वास है। बाहुबली का व्यक्तित्व कुछ ऐसा ही था, जिन्होंने सर्वप्रथम अहिंसा युद्ध का समर्थन किया और अहिंसा युद्ध करने को तत्पर हो गए।कहा जाता है की साम्राज्य को लेकर और आपसी मतभेद के चलते भरत और बाहुबली के बीच कुल तीन प्रतियोगिताये हुई थी, पहला नयन-युद्ध, जल-युद्ध और मल्ल युद्ध। लेकिन बाहुबली ने अपने बड़े भाई भरत से तीनो युद्ध जीत लिये थे। अहिंसा युद्ध में अपने बड़े भाई भरत से विजय होने के बाद सब कुछ छोड़ संन्यास मार्ग को अपना कर ध्यानस्थ हो गए। एक वर्ष तक कठोर साधना की।
जैन धर्म में पहले मोक्षगामी:
कर्नाटक के श्रवणबेलगोला में स्थित भगवान बाहुबली की विशाल प्रतिमा भारत के अद्भुत स्मारकों में शुमार है। श्रवणबेलगोला में मुख्य आकर्षण का केंद्र बाहुबली की विशाल प्रतिमा ही है। धार्मिक रूप से यह अत्यधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि जैनियों का मानना है कि मोक्ष (जीवन-मरण के चक्र से छुटकारा) की प्राप्ति सर्वप्रथम बाहुबली को हुई थी। बाहुबली की यह प्रतिमा दसवीं शताब्दी की है पर आज भी जिस शान से पर्वत शिखर पर विराजमान है, वह दुनिया भर से आने वाले श्रद्धालुओं और सैलानियों को चकित करती है।
ऐतिहासिक हैं चंद्रगिरि और विंध्यगिरि पर्वत:
इस श्रवणबेलगोल तीर्थ में आमने-सामने दो पर्वत हैं। जिसे कन्नड भाषा में एक पर्वत को ‘चिक्कवेट्ट’ दूसरे को ‘दोदुबेट्ट’ कहते हैं। हिन्दी में इसे छोटा पर्वत और बड़ा पर्वत कहते हैं। यही पर्वत चन्द्रगिरि और विंध्यगिरि के नाम से वर्तमान में प्रसिद्धि को प्राप्त हैं। सम्राट चंद्रगुप्त से सम्बन्ध रखने के कारण ही इस पर्वत का नाम चंद्रगिरि पड़ गया है। इसका वर्णन यहाँ के अनेक शिलालेखों में उत्कीर्ण है। यहाँ पर सल्लेखना व्रत लेकर समाधिमरण करने वाले त्यागियों की संख्या सैकड़ों-हजारों में बतलाई जाती है। ५५५ ऐसे शिलालेख मिलते हैं जिसमें इन सभी तथ्यों का उल्लेख है। इसके अतिरिक्त पता नहीं कितने शिलालेख नष्ट हो गये हैं। इस तीर्थ के आस-पास ३०-४० मील की दूरी तक प्राचीन कन्नड़ भाषा के सैकड़ों शिलालेख बिखरे पड़े हैं जिनमें अतीत युग का जैन इतिहास उत्कीर्ण पड़ा है। मैसूर विश्वविद्यालय ने यहाँ के प्रमुख शिलालेखों का संकलन भी किया है।
विंध्यगिरि पर्वत पर स्थित गोमटेश्वर बाहुबली की यह मूर्ति 30 किलोमीटर दूर से भी दिखाई देती है। इस प्रतिमा के बारे में मान्यता है कि इस मूर्ति में शक्ति, साधुत्व, बल तथा उदारवादी भावनाओं का अद्भुत प्रदर्शन होता है। यह मूर्ति मध्यकालीन कर्नाटक की शिल्पकला का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।
हर 12 वर्ष के अंतराल में महामस्तकाभिषेक क्यों?
विश्व की सबसे बड़ी एक शिला से निर्मित बाहुबली की ध्यानस्थ दिगंबर प्रतिमा का 12 वर्ष के अंतराल पर ही महामस्तकाभिषेक किया जाता है,जो जैन समुदाय का महाकुंभ माना जाता है। कहा जाता है कि बाहुबली ने अपने बड़े भाई भरतेश्वर के साथ युद्ध करने के बाद विराग भाव से 12 वर्ष की तपस्या की थी। श्रवणबेलगोला की विंध्यगिरि पहाड़ी पर स्थित बाहुबली की प्रतिमा को गढ़ने के लिए 12 वर्षों का समय लगा था। गंग वंश के प्रधानमंत्री चामुंडराय ने अपनी मां की इच्छा पूर्ति के लिए इस प्रतिमा की स्थापना की थी। इन 12 अंकों को ध्यान में रखते हुए बाहुबली का प्रति 12 वर्ष के अंतराल में महामस्तकाभिषेक किया जाता है।
विश्व भर में आश्चर्य और श्रद्धा का केंद्र रहे, दक्षिण में बिराजे गोम्टेश बाहुबली एकमात्र ऐसे भगवान हैं, जो संपूर्ण दुनिया में जैन-धर्म के गौरव को बढ़ाते हैं। शिल्पकला में इनके जैसा कोई नहीं है। चेहरे का अद्वितीय सौन्दर्य और अतिशय कद की वजह से इनकी प्रसिद्धि बहुत ज्यादा है। खुली पहाड़ी पर उत्तर मुखी, खुले में खड़े होने के बाबजूद, किसी भी पंछी का शरीर पर ना बैठना भी गोम्टेश बाहुबली को अलग प्रसिद्धि दिलाता है।इस आयोजन में कई सारे जैनाचार्यों, एवं मुनियों की उपस्थिति भी कार्यक्रम की सफलता को सुनिश्चित करती है। आचार्य श्री वर्धमान सागर जी महाराज एवं पूज्य स्वस्ति श्री चारुकीर्ति जी स्वामी के अथक प्रयासों से यह आयोजन सफलतम, सफल होता हुआ अभूतपूर्व ऊंचाइयों को प्राप्त होगा, यह सुनिश्चित है।

Source: © Facebook

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