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*22/04/2018 मुनि वृन्द एवं साध्वी वृन्द के दक्षिण भारत में सम्भावित विहार/ प्रवास सबंधित सूचना*
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🔹 *आचार्य श्री महाश्रमण जी के आज्ञानुवर्ती मुनि श्री धर्मरूचि जी ठाणा 4* का प्रवास
*तेरापंथ सभा भवन*
*साहूकारपेट, चेन्नई*
☎8910991981,
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🔹 *आचार्य श्री महाश्रमण जी के आज्ञानुवर्ति मुनिश्री मुनिसुव्रत कुमार जी ठाणा* 2 का प्रवास
*Chezhian College of Education*
Thenpallipattu Village, Kalasapakkam, Thiruvannamalai Kalasapakkam, Tamil Nadu 606751
https://goo.gl/maps/NohfU67MMj52
☎9602007283,9443237458
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🔹 *आचार्य श्री महाश्रमण जी के आज्ञानुवर्ती मुनि श्री रणजीत कुमार जी ठाणा २* का प्रवास
*गोतमचन्द जी सेठीया के निवास स्थान लक्ष्मी रोड शान्तिनगर* Bangalore (कर्नाटक)
☎9448385582
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🔹 *आचार्य श्री महाश्रमण जी के सुशिष्य मुनि श्री ज्ञानेन्द्र कुमार जी ठाणा 5* का प्रवास
*नेमीचन्द जी गादिया*
98,Ennaikara Street
*कांचीपुरम*
☎8107033307,9944779573
9940491599
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🔹 *आचार्य श्री महाश्रमण जी के सुशिष्य डॉ *मुनि श्री अमृत कुमार जी ठाणा २* का प्रवास
*तेरापंथ भवन*
*गुडियातम*
(वेलूर- गुडियातम रोड)
☎9566296874,
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🔹 *आचार्य श्री महाश्रमण जी के सुशिष्य मुनि श्री रमेश कुमार जी ठाणा 2* का प्रवास
*सुबह का प्रवास*
11.5 km का विहार करके पदमावती स्पोर्स मुसनुरू पधारेगे
*शाम एंव रात्री प्रवास*
6 km का विहार करके कृष्ण रेडी सांईबाबा गोरावरम पधारेगे
(विजयवाड़ा -चेन्नई रोड)
☎8085400108,7000790899
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🔹 *आचार्य श्री महाश्रमण जी के सुशिष्य मुनि श्री प्रशान्त कुमार जी ठाणा २* का प्रवास
*तेरापंथ भवन*
*Coimbatore*
☎9629588016,9894733461
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🔸 *आचार्य श्री महाश्रमण जी की सुशिष्या 'शासन श्री' साध्वी श्री विद्यावती जी 'द्वितीय' ठाणा ५* का प्रवास
*मूलचन्द जी नितिन जी रांका के निवास स्थान*
**1B, Vikrant Samarpan, No. 2 &3, Dolly Street, Near Doveton Hot chips, Choolai,Chennai-112*
☎8890788494,9282167555
9003097775
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🔸 *आचार्य श्री महाश्रमण जी की सुशिष्या "शासन श्री" साध्वी श्री यशोमती जी ठाणा 4* का प्रवास
*Villa No 10*
*Binnay mill, Chennai*
☎9290516171,7044937375
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*संघ संवाद*+ *संघ संवाद*
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🔸 *आचार्य श्री महाश्रमण जी की सुशिष्या 'शासन श्री' साध्वी श्री कंचनप्रभा जी ठाणा ५ का प्रवास*
*तेरापंथ सभा भवन*
*यशवंतपुर बैगलौर*,
☎9784755524,9845545358
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*संघ संवाद*+ *संघ संवाद*
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🔸 *आचार्य श्री महाश्रमण जी की सुशिष्या साध्वी श्री विमलप्रज्ञा जी ठाणा 6* का प्रवास
पदमावती कल्याण मंण्डप(नेल्लूर) से11.6 कि.मी. का विहार करके SRIDS
Function holl छतरम Chemudugunta Nellor
शाम एंव रात्री प्रवास
जूनियर काँलेज वैकेट चालेम पध़ारेंगें
(विजयवाड़ा- चेन्नई रोड)
☎9051582096,9123032136
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*संघ संवाद* + *संघ संवाद*
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🔸 *आचार्य श्री महाश्रमण जी की सुशिष्या साध्वी श्री काव्यलता जी ठाणा 4* का प्रवास
*कंकरिया भवन*
आयशा हॉस्पिटल के पास गली
*पुरुषवाकम*, *चेन्नैइ*
☎8428020772,
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*संघ संवाद*+ *संघ संवाद*
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🔸 *आचार्य श्री महाश्रमण जी की सुशिष्या साध्वी श्री प्रज्ञा श्री जी ठाणा 4* का प्रवास
*वाणियम्वाडी से विहार करके Periyangkuppam Govt High School near Ashok mahal पघारेगे*
(बेंगलुरु- चेन्नई रोड)
☎9443235611
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*संघ संवाद*+ *संघ संवाद*
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🔸 *आचार्य श्री महाश्रमण जी की सुशिस्या साध्वी श्री सुर्दशना श्री जी ठाणा 4* का प्रवास
*तेरापंथ भवन*
*पारस गार्डन रायचुर*
☎9845123211,8830043723
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*संघ संवाद + संघ संवाद*
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🔸 *आचार्य श्री महाश्रमण जी की सुशिष्या साध्वी श्री लब्धि श्री जी ठाणा 3* का प्रवास
*पंकज जी दक के निवास स्थान पर*
*नंजनगुड*
(ऊटी - मैसूर रोड)
☎9900451231
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*संध संवाद*+ *संध संवाद*
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🔸 *आचार्य श्री महाश्रमण जी की सुशिष्या साध्वी श्री मधुस्मिता जी ठाणा 6* का प्रवास
*सुरेश जी भुतेडा के निवास स्थान पर*
*Upahar Darshini Hotel Ke Samne*
*3RD Block Jaynager*
*Bangalore* (कर्नाटक)
☎7798028703
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Sangh Samvad
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त्याग, बलिदान, सेवा और समर्पण भाव के उत्तम उदाहरण तेरापंथ धर्मसंघ के श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।
📙 *'नींव के पत्थर'* 📙
📝 *श्रंखला -- 133* 📝
*जेठमलजी गधैया*
*प्रथम समागम*
मुनि कालूजी अनेक बार सरदारशहर आ चुके थे। वहां के अधिकांश व्यक्तियों को जानते थे। अनेक को उन्होंने सम्यक् श्रद्धा प्रदान की थी। जेठमलजी से बात करने की भी उनकी भावना थी, परंतु वे कभी मिले ही नहीं। मुनिश्री इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कि स्थान पर आने को वे तैयार नहीं होंगे। उन्होंने अपने साथ के मुनि छबीलजी से कहा— "गोचरी आदि के समय यदि मार्ग में कहीं जेठमलजी मिले तो उनसे बातचीत करनी चाहिए। हो सके तो यहां मेरे से बात करने के लिए उन्हें प्रेरित करना चाहिए।" मुनि छबीलजी उसी दिन से उस विषय में ध्यान रखने लगे।
एक दिन वे गोचरी के लिए गए हुए थे कि मार्ग में जेठमलजी मिल गए। मुनि श्री ने पैर रोककर उनसे बातचीत की। उन्होंने मुनि चतुर्भुजजी तथा मुनि छोगजी के संबंध में जयाचार्य द्वारा प्रस्तुत किए गए तर्कों से उन्हें अवगत कराते हुए पूछा कि तेरापंथ में साधुता समझने संबंधी उन दोनों के मंतव्यों में परस्पर सात वर्षों का अंतर है, तब उनमें से किसे सत्य माना जाए? उन्होंने यह भी पूछा कि तेरापंथ से पृथक् होने के पश्चात् नई साधुता लिए बिना ही वे परस्पर संभोगिक बने हैं, इस स्थिति में यदि तेरापंथी असाधु हैं तो वे साधु कैसे हुए?
जेठमलजी इन प्रश्नों के विषय में जनता में चले ऊहापोह को जानते तो थे, परंतु उन्होंने कभी गंभीरता से उधर ध्यान नहीं दिया। अब जब सीधा उन्हीं से प्रश्न किया गया तब उत्तर देने के लिए उस विषय में उन्हें सोचने को बाध्य होना पड़ा। तत्काल कोई निर्णायक उत्तर दे पाना सहज नहीं था, अतः उन्होंने कहा— "मैं इस विषय में पूरी तरह से सोच लेने तथा पूछताछ कर लेने के पश्चात् ही कुछ कह सकता हूं।"
मुनिश्री उनकी जिज्ञासा को प्रेरित करना ही चाहते थे। गोचरी के समय मार्ग में खड़े होकर अधिक लंबे वार्तालाप का अवसर भी नहीं था। अतः बात को वही समाप्त करके वे स्थान पर आ गए। गधैयाजी के उस प्रथम समागम की पूरी बात से उन्होंने मुनि कालूजी को अवगत कर दिया।
*उत्तर नहीं*
जेठमल जी मुनि चतुर्भुजजी के पास गए और उक्त विषय पर पूछताछ की, परंतु उन्हें वहां से कोई संतोषप्रद उत्तर प्राप्त नहीं हो पाया। बतलाने की अपेक्षा वे उस अनपेक्षित प्रश्न को टाल जाने का प्रयास ही अधिक करते रहे। जेठमलजी से उनकी वह प्रवृत्ति छिपी नहीं रही। वे उससे निराश ही हुए।
दूसरे दिन मुनि छबील जी उनसे मार्ग में फिर मिले और पूछा— "मेरे प्रश्नों का उत्तर ले आए?"
जेठमल जी ने बिना किसी हिचकिचाहट के स्पष्ट कहा— "वहां से तो कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिल पाया।"
*एक प्रेरणा: एक बाधा*
मुनि छबीलजी ने उपयुक्त अवसर समझकर एक प्रेरणा देते हुए जेठमलजी से कहा— "इस विषय में मुनि कालूजी से पूरी जानकारी मिल सकती है। एक बार के लिए बातचीत करने का कोई समय निकालो तो ठीक रहे।"
जेठमलजी ने अपनी स्थिति का स्पष्टीकरण करते हुए कहा— "आपने मार्ग में मुझे बतला लिया इसलिए मैंने इतनी देर आपसे बातचीत कर ली। अन्यथा न मैं किसी अन्यतीर्थी से पहल करके बोलता हूं और न उसके स्थान पर ही जाता हूं।"
मुनि छबीलजी ने मध्यम मार्ग निकालते हुए कहा— "मैं मुनि कालूजी से निवेदन कर दूंगा। अतः वे स्थान से बाहर आ जाएंगे तथा अपनी ओर से बात प्रारंभ कर देंगे। इससे न तुम्हारे त्याग में कोई बाधा आएगी और न वस्तुस्थिति को जानने में ही कोई रुकावट रहेगी।"
मुनिश्री के काफी कहने तथा दबाव देने पर उन्होंने भोजन के पश्चात् ठिकाने वाली गली में आना स्वीकार कर लिया।
*श्रावक जेठमलजी मुनि कालूजी से गली में प्रारंभ हुई तत्त्वचर्चा ठिकाने तक कैसे पहुंची...?* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रंखला -- 309* 📝
*वरिष्ठ विद्वान् आचार्य बप्पभट्टि*
*जीवन-वृत्त*
गतांक से आगे...
आम के पुत्र का नाम दुन्दुक था। आम के स्वर्गवास के बाद दुन्दुक ने राजसिंहासन ग्रहण किया। बप्पभट्टि को दुन्दुक द्वारा भी पर्याप्त सम्मान मिला। दुन्दुक के पुत्र का नाम भोज था। पंडितों ने बताया दुन्दुक को मारकर भोज राजसिंहासन ग्रहण करेगा। कंटी नाम की एक वेश्या की सलाह से नरेश दुन्दुक ने राजकुमार भोज को मारने की योजना बनाई। नरेश बनने के बाद दुन्दुक को कंटी ने पूरी तरह से अपने मोहजाल में फंसा लिया। कंटी नरेश दुन्दुक के कार्यों में मुख्य सलाहकार बन गई। राजकुमार भोज की माता को इस षड्यंत्र की सूचना मिल गई। उसने बालक भोज को किसी तरह पाटलिपुत्र ननिहाल भेज दिया। ननिहाल से भोज के न लौटने पर दुन्दुक ने बप्पभट्टिसूरि से कहा "आप पाटलिपुत्र जाओ और भोज को यहां आने के लिए तैयार करो या अपने साथ उसे ले आओ।"
बप्पभट्टिसूरि स्थिति को टालते रहे। इसी क्रम में इनके पांच वर्ष व्यतीत हो गए। एक दिन राजा दुन्दुक द्वारा अत्यंत बाधित किए जाने पर राजपुरुषों के साथ बप्पभट्टि ने वहां से विहार किया। मार्ग में उन्होंने सोचा यह धर्मसंकट है। भोज द्वारा दुन्दुक की मृत्यु निश्चित है, अतः वह मेरे साथ आए या न आए, मैं दोनों ओर से सुरक्षित नहीं हूं। भोज के न आने पर राजा दुन्दुक मेरे पर क्रुद्ध होगा। उसके आने पर दुन्दुक का असमय में प्राणान्त होगा। मेरा हित किसी प्रकार से निरापद नहीं है। इधर व्याघ्र से उधर नदी की धार। मेरा आयुष्य भी दो दिन का अवशिष्ट है। कार्य के परिणाम का गंभीरता से चिंतन कर बप्पभट्टि ने अनशन स्वीकार कर लिया। नन्नसूरि, गोविंदसूरि आदि श्रमणों के लिए उन्होंने हित कामना की। सबको अनित्य भावना का उपदेश दिया। महाव्रतों में जाने-अनजाने लगे दोषों की आलोचना की। वे अदीन भाव से 89 वर्ष तक संयम पर्याय का पालन कर वीर निर्वाण 1365 (विक्रम संवत् 895) श्रावण शुक्ला अष्टमी के दिन स्वाति नक्षत्र में 95 वर्ष की अवस्था में स्वर्गवासी बने।
बप्पभट्टि के बाद राजा दुन्दुक का जल्दी देहावसान हो गया। दुन्दुक की मृत्यु भोज के योग से हुई। इस घटना के बचाव के लिए दुन्दुक ने बहुत प्रयत्न किए, पर स्थिति टल नहीं सकी। दुन्दुक के बाद कन्नौज के सिंहासन पर राजकुमार भोज का राज्याभिषेक हुआ।
प्रभावक चरित्र के अनुसार जैन शासन की प्रभावना में राजा भोज ने आम से अधिक महनीय कार्य किए। राजा दुन्दुक द्वारा जैन धर्म की प्रभावना का कोई कार्य संपन्न हुआ हो ऐसा उल्लेख नहीं मिलता।
बप्पभट्टि के समय में मुनि जीवन की आजीवन पाद विहार की मर्यादाएं शिथिल हो रही थीं। मुनि सवारी का प्रयोग करने लगे थे। बप्पभट्टि ने भी आम राजा के आग्रह पर गज और ऊंट के वाहन का उपयोग कन्नौज नगर में आगमन के समय किया था।
*'ओसवाल' जाति के अभ्युदय और बप्पभट्टिसूरि के आचार्य-काल के समय-संकेत* के बारे में जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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त्याग, बलिदान, सेवा और समर्पण भाव के उत्तम उदाहरण तेरापंथ धर्मसंघ के श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।
📙 *'नींव के पत्थर'* 📙
📝 *श्रंखला -- 132* 📝
*जेठमलजी गधैया*
*कन्घा और उस्तरा*
सरदारशहर में तेरापंथी साधु-साध्वियों का व्यवस्थित विहरण कुछ विलंब से प्रारंभ हुआ। पहले कुछ वर्षों तक केवल साध्वियों का ही आगमन होता रहा, अतः मुख्यतः बहनें ही समझीं। भाइयों पर बहुत कम प्रभाव पड़ा। कालांतर में मुनिजनों का आगमन होने लगा। परंतु तब तक वहां मुनि चतुर्भुजजी आदि का प्रभाव प्रबल हो चुका था। प्रायः सभी भाइयों का झुकाव उन्हीं की ओर था। तेरापंथ के लिए उस समय सरदारशहर केवल बहनों का क्षेत्र माना जाता था। मुनि कालूजी जैसे विद्वान् संतों के अनेक प्रयासों के बाद भी स्थिति में कोई विशेष अंतर नहीं आ पाया। जयाचार्य ने वहां की उलझी हुई स्थिति को 'जोगी की जटा' से उपमित किया। जोगी की जटा कंघे से नहीं उस्तरे से ही सुलझ पाती है। हुआ भी वैसा ही।
मुनि चतुर्भुजजी संवत् 1920 में तेरापंथ संघ से पृथक् हुए थे। अपने समय तक वे तेरापंथ में साधुता मानते थे, बाद में नहीं। एक बार संवत् 1924 के शीतकाल में जयाचार्य सुजानगढ़ विराज रहे थे। उसी समय चतुर्भुजजी के प्रमुख श्रावक जैतरूपजी आंचलिया किसी कार्यवश सरदारशहर से सुजानगढ़ आए। वे जयाचार्य के पास भी आए। वार्तालाप के समय आचार्यश्री ने पूछा— "तुम मुनि फतेहचंदजी को क्या समझते हो?" उन्होंने कहा— "असली साधु।" जयाचार्य ने फिर पूछा— "और मुनि चतुर्भुजजी को?" उन्होंने फिर वही उत्तर दिया— "असली साधु।" जयाचार्य ने तब अपने तर्क को पैना करते हुए कहा— "तुम महाजन हो। लाखों रुपयों का लेखा-जोखा करते हो। क्या इतने भी नहीं समझ पाते कि मुनि चतुर्भुजजी पृथक् होने से पूर्व तक हमारी ही तरह मुनि फतहचंदजी को असाधु मानते थे। मुनि फतेहचंदजी भी हम लोगों को असाधु मानते थे। हमारे से पृथक् होने के पश्चात् मुनि चतुर्भुजजी ने नई साधुता नहीं ली है। तब मुनि फतेहचंदजी उनकी दृष्टि में साधु कैसे हो गए?" जैतरूपजी ने बात के हार्द को समझते हुए कहा— "आप ठीक कह रहे हैं। हम तो 'इत के रहे ना उत के' मैं अब जाकर इस बात की खोज करूंगा।"
जैतरूपजी ने सरदारशहर जाकर मुनि चतुर्भुजजी के सम्मुख उक्त प्रश्न उठाया। पहले तो उन्होंने उत्तर देने का प्रयास किया, परंतु बात जम नहीं पाई। जनता में भी काफी ऊहापोह चलने लगा। आखिर उन्हें कहना पड़ा— "यह तो हमारी बहुत बड़ी भूल हो गई।" उस भूल का शोधन करने के लिए उन्होंने सम्वत् 1924 में नई दीक्षा ग्रहण की। तब कहीं जनता में वह प्रश्न शांत हुआ।
चतुर्भुजजी का वह क्रम कई वर्षों तक जमा हुआ चलता रहा, परंतु उनके छोटे भाई मुनि छोगजी के आ जाने से उसमें फिर गड़बड़ हो गई। मुनि छोगजी संवत् 1927 में संघ से पृथक् हुए, परंतु सात प्रहर के बाद ही वे पुनः गण में सम्मिलित हो गए। संवत् 1936 (चैत्रादि) में पुनः पृथक् होकर मुनि चतुर्भुजजी के पास आ गए। उन्होंने संवत् 1927 तक तेरापंथ में साधुता की घोषणा की। मुनि चतुर्भुजजी संवत् 1920 तक तेरापंथ में साधुता मानते थे, इसलिए दोनों भाइयों के मंतव्यों में सात वर्ष का प्रत्यक्ष अंतर था। वे उस समस्या को समाहित करना चाहते थे परंतु अपने घोषित निर्णयों में परिवर्तन करने को कोई उद्यत नहीं था। इसलिए वह प्रश्न काफी समय तक ज्यों का त्यों लटका रहा। सरदारशहर के श्रावकों में उक्त विषय को लेकर एक बार पुनः ऊहापोह ने जोर पकड़ा, परंतु मुनि चतुर्भुजजी और मुनि छोगजी के पास उस विषय को टाल देने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था। उनकी उस वैचारिक दुर्बलता को समझने में लोगों को अधिक देर नहीं लगी। फलस्वरूप काफी लोगों का झुकाव तेरापंथ की ओर हो गया। यद्यपि जोगी की जटा के समान उलझी हुई वहां की स्थिति उपर्युक्त घटना के उस्तरे से सुलझने लगी थी, फिर भी जेठमलजी गधैया जैसे उनके विशिष्ट और प्रभावशाली श्रावकों पर उसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। श्रद्धातिरेक में उन लोगों ने उसे एक विरोधी प्रचार मात्र ही माना।
*श्रावक जेठमल जी गधैया का तेरापंथी साधु समाज से समागम कैसे हुआ...?* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रंखला -- 308* 📝
*वरिष्ठ विद्वान् आचार्य बप्पभट्टि*
*जीवन-वृत्त*
गतांक से आगे...
बप्पभट्टिसूरि का काव्य-कौशल विलक्षण था। काव्य के माध्यम से वे आम नरेश को कभी अत्यंत तीखी बात कह देते और उन्हें अपनी गलती का भान करवा देते।
किसी समय कान्यकुब्ज (कन्नौज) में नट मंडली आई। उनके साथ सुमधुर गायिका थी। आम नरेश गायिका की संगीत कला पर आकृष्ट हुए और रात्रि में वहीं रह गए। आचार्य बप्पभट्टि को नरेश का यह आचरण अभद्र और अनुचित लगा। राजा आम को अपनी गलती का बोध कराने के लिए उन्होंने एक श्लोक की रचना की। इस श्लोक को उन्होंने ऐसे स्थान पर लिख दिया जहां प्रभात के समय राजा की दृष्टि अवश्य केंद्रित हो। रात बीती, सूर्योदय हुआ। गायिका के भवन से बाहर आते ही भूपाल की दृष्टि भित्ति पर लिखित श्लोक पर पहुंची। वह श्लोक इस प्रकार था—
*शैत्यं नाम गुणस्त्वैव तदनुस्वाभाविकी स्वच्छता।*
*किं ब्रूमः शुचितां भवन्त्यशुचयस्त्वत्सङ्गतोऽन्ये यतः।*
*किंवाऽतः परमस्ति ते स्तुतिपदं त्वं जीवितं देहिनां,*
*त्वं चेन्नीचपथेन गच्छसि पयः कस्त्वां निरोद्धुं क्षमः।।52।।*
*(प्रबंध कोश, पृष्ठ 38)*
श्लोक को पढ़ते ही राजा के मन में विवेक का दीपक जल गया। उसे अपनी भूल का भान हुआ। नरेश आम आगे के लिए पूर्णतः सावधान हो गया।
मथुरा के वाक्पति नामक सांख्ययोगी के मंत्र प्रयोग से आम राजा पहले से ही विस्मयाभिभूत था। एक बार बप्पभट्टि ने आम राजा को जैन धर्म स्वीकार करने की प्रेरणा दी। उत्तर में आम राजा ने बप्पभट्टि से कहा "आपने अपनी विद्या से मेरे जैसे व्यक्तियों को प्रभावित करने का कार्य किया है। मैं आपके सामर्थ्य को तब पहचान पाऊंगा, जब आप मथुरा के वाक्पतियोगी को बोध देकर उन्हें जैन बना सकें।" राजा आम के इस वचन पर बप्पभट्टि वहां से उठे और मथुरा की ओर प्रस्थित हुए। वहां पहुंचकर ध्यानस्थ वाक्पति के सामने कई श्लोक पढ़े। श्लोकों की भावमयी शब्दावली सुनकर वाक्पति ने नयन खोले। दोनों ने धर्म चर्चा की। बप्पभट्टिसूरि ने जिनेश्वर प्रभु का स्वरूप समझाया और विभिन्न प्रकार से अध्यात्म बोध देकर उन्हें जैन दीक्षा प्रदान की।
बप्पभट्टिसूरि के गुरुबंधु गोविंदसूरि और नन्नसूरि के व्यक्तित्व से भी राजा आम अत्यधिक प्रभावित था। इसमें मुख्य निमित्त आचार्य बप्पभट्टि ही थे।
आम ने जब बप्पभट्टि के सामने उनके बौद्धिक बल की प्रशंसा की उस समय बप्पभट्टि ने अपने को सामान्य बताते हुए गुरुबंधु गोविंदसूरि एवं नन्नसूरि का नाम राजा के सम्मुख प्रस्तुत किया एवं उनके पांडित्य की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। इस घटना से बप्पभट्टिसूरि का निराभिमानी रूप प्रकट होता है।
जीवन के संध्याकाल में आम राजा ने बप्पभट्टि से जैन दीक्षा ग्रहण की। जीवन के अंतिम समय में भी बप्पभट्टिसूरि से प्रेरणा प्राप्त कर उच्च परिणामों के साथ नमस्कार महामंत्र का जप करते-करते आम राजा का वीर निर्वाण 1360 (विक्रम संवत् 890) भाद्रव शुक्ला 9 शुक्रवार को देहावसान हुआ।
*क्या राजा आम के देहावसान के बाद उनके उत्तराधिकारी के द्वारा भी बप्पभट्टिसूरि को पर्याप्त सम्मान मिला...?* जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
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