02.05.2018 ►Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt ►News

Published: 02.05.2018
Updated: 03.05.2018

Update

#रात्रि_भोजन_का_भगवान_महावीर_ने_निषेध_क्यों_किया
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सूर्योदय के साथ ही जीवन फैलता है। सुबह होती है, सोये हुए पक्षी जग जाते है, सोये हुए पौधे जग जाते है, फूल खिलने लगते है, पक्षी गीत गाने लगते हैं, आकाश में उड़ान शुरू हो जाती है। सारा जीवन फैलने लगता है। सूर्योदय का अर्थ है, सिर्फ सूरज का निकलना नहीं, जीवन का जागना जीवन का फैलना। सूर्यास्त का अर्थ है, जीवन का सिमटना, विश्राम में लीन हो जाना। दिन जागरण है, रात्रि निद्रा है। दिन फैलाव है, रात्रि विश्राम है। दिन श्रम है, रात्रि श्रम से वापस लौट आना है। सूर्योदय की इस घटना को समझ लें तो खयाल में आयेगा कि रात्रि—भोजन के लिए महावीर का निषेध क्यों है? क्योंकि भोजन है जीवन का फैलाव। तो सूर्योदय के साथ तो भोजन की सार्थकता है। शक्ति की जरूरत है। लेकिन सूर्यास्त के बाद भोजन की जरा भी आवश्यकता नहीं है। सूर्यास्त के बाद किया गया भोजन बाधा बनेगा, सिकुड़ाव में, विश्राम में। क्योंकि भोजन भी एक श्रम है।
आप भोजन ले लेते है तो आप सोचते हैं, काम समाप्त हो गया। गले के नीचे भोजन गया तो आप समझे कि काम समाप्त हो गया। गले तक तो काम शुरू ही नहीं होता, गले के नीचे ही काम शुरू होता है। शरीर श्रम में लीन होता है। भोजन देने का अर्थ है शरीर को भीतरी श्रम में लगा देना। भोजन देने का अर्थ है कि अब शरीर का रोया—रोया इसको पचाने में लग जायेगा।
तो अगर आपकी निद्रा क्षीण हो गयी है, अगर रात विश्राम नहीं मिलता, नींद नहीं मालूम पड़ती, स्‍वप्‍न ही स्‍वप्‍न मालूम पड़ते है, करवट ही करवट बदलनी पड़ती है, उसमें से अस्सी प्रतिशत कारण तो शरीर को दिया गया काम है जो रात में नहीं दिया जाना चाहिए। तो एक तो भोजन देने का अर्थ है, शरीर को श्रम देना। लेकिन जब सूरज उगता है तो आक्सीजन की, प्राणवायु की मात्रा बढ़ती है। प्राण वायु जरूरी है श्रम को करने के लिए। जब रात्रि आती है, सूर्य डूब जाता है तो प्राण वायु का औसत गिर जाता है हवा में। जीवन को अब कोई जरूरत नहीं है। कार्बन डाइआक्साइड़ का, कार्बन डायाक्साईड की मात्रा बढ़ जाती है जो कि विश्राम के लिए जरूरी है। जानकर आप हैरान होंगे कि आक्सिजन जरूरी है भोजन को पचाने के लिए। कार्बन डायक्साईड के साथ भोजन मुश्किल से पचेगा।
मनोवैज्ञानिक अब कहते है कि हमारे अधिकतर दुख स्वप्‍नों का कारण हमारे पेट में पड़ा हुआ भोजन है। हमारी निद्रा की जो अस्त—व्यस्तता है, अराजकता है, उसका कारण पेट में पड़ा हुआ भोजन है। आपके सपने अधिक मात्रा में आपके भोजन से पैदा हुए है। आपका पेट परेशान है। काम में लीन है। दिन भर चुक गया। काम का समय बीत गया और अब भी आपका पेट काम में लीन है। बाकी हम तो अदभुत लोग हैं। हमारा असली भोजन रात में होता है, बाकी तो दिन भर हम काम चला लेते है। जो असली भोजन है, बडा भोजन डिनर, वह हम रात में लेते हैं। उससे ज्यादा दुष्टता शरीर के साथ दूसरी नहीं हो सकती।
इसलिए अगर महावीर ने रात्रि भोजन को हिंसा कहां है तो मै कहता हूं कीड़े—मकोड़ों के मरने के कारण नहीं, अपने साथ हिंसा करने के कारण आत्म—हिंसा है। आप अपने शरीर के साथ दुर्व्यवहार कर रहे हैं। स्व—अवैज्ञानिक है। भोजन की जरूरत है सुबह, सूर्य के उगने के साथ। जीवन की आवश्यकता है, शक्ति की आवश्यकता है। श्रम होगा, शक्ति चाहिए। विश्राम होगा, शक्ति नहीं चाहिए। पेट सांझ होते—होते, होते—होते मुक्त हो जाये भोजन से, तो रात्रि शांत होगी, मौन होगी, गहरी होगी। निद्रा एक सुख होगी और सुबह आप ताजे उठेंगे, रात्रि भर भी आपके पेट को श्रम करना पड़े तो सुबह आप थके मांदे उठेंगे।
इसके और भी गहरे कारण हैं। आपने खयाल किया होगा, जैसे ही पेट में भोजन पड़ जाता है वैसे ही आपका मस्तिष्क ढीला हो जाता है। इसलिए भोजन के बाद नींद सताने लगती है। लगता है लेट जाओ। लेट जाने का मतलब यह है कि कुछ मत करो अब। क्यों? क्योंकि सारी ऊर्जा शरीर की पेट को पचाने के लिए दौड़ जाती है। मस्तिष्क बहुत दूर है पेट से। जैसे ही पेट में भोजन पड़ता है, मस्तिष्क की सारी ऊर्जा पेट में पचाने को आ जाती है। ये वैज्ञानिक तथ्य है। इसलिए आंख झपकने लगती है और नींद मालूम होने लगती है। इसलिए उपवासे आदमी को रात में नींद नहीं आती। दिन भर उपवास किया हो तो रात में नींद नहीं आती। क्योंकि सारी ऊर्जा मस्तिष्क की तरफ दौड़ती रहती है तो नींद नहीं आ पाती। इसलिए, जैसे ही आप पेट भर लेते हैं तत्काल नींद मालूम होने लगती है। यह भरे पेट में नींद इसलिए मालूम होती है कि मस्तिष्क को जो ऊर्जा दी गयी थी, वह पेट ने वापस ले ली।
पेट जड़ है। पेट पहली जरूरत है। मस्तिष्क विलास है, लक्ज़री है। जब पेट के पास ज्यादा ऊर्जा होती है तब वह मस्तिष्क को दे देता है। नहीं तो पेट में ही मस्तिष्क की ऊर्जा घूमती रहती है।
महावीर ने कहां है, दिन है श्रम, रात्रि है विश्राम, ध्यान भी है विश्राम। इसलिए पूरी रात्रि ध्यान बन सकती है, अगर थोड़ा—सा शरीर के साथ समझ का उपयोग किया जाये। अगर रात्रि पेट में भोजन पड़ा है तो रात्रि ध्यान नहीं बन सकती, निद्रा ही रह जायेगी। - with वैभव जैन सम्यक् and 6 others.

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We Dr Gangwal k & Dr MRS Gangwal are on Viatnam & Combodia tour in search of roots of Jainism in these countries. Today we visited Archiology Meusium in Phnom Penh catitol Of Cambodia. I was surprised to see old Pratimas Of Parshwanath. #AncientJainism • #Jainism_Combodia_Viatnam

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#अशरण_भावना

*दल बल, देवी-देवता, मात-पिता परिवार।*
*मरती विरियां जीव को, कोई न राखनहार।।*

दूसरी भावना अशरण भावना है। इस भावना में संयोगों की अशरणता और आत्मा ही शरण भूत है इसका चिंतन किया जाता है।
कवि कहते हैं सेना. मंत्र-तंत्र, देवी-देवता, माता पिता, चिकित्सक सब कोई हमारे पास ही हों पर जब यह पर्याय छूटने अर्थात मृत्यु का समय आ जाये तो कोई नहीं बचा सकता।

जो स्वयं विशेषज्ञ चिकित्सक थे, पैसों की कमी नहीं थी. मित्रों और साधनों की कमी नहीं थी वह भी देखते देखते ही इस दुनिया से चले जाते हैं। मांत्रिक-तांत्रिक भी स्वयं को नहीं बचा पाते तो अन्य को क्या बचा पायेंगे।

जिस तरह मृत्यु को कोई शरण नहीं दे सकता उसी प्रकार लाभ. यश, परिवार आदि संयोग भी अशरण ही हैं उन्हें कोई शरण नहीं दे सकता अर्थात जाते हुए कोई नहीं रोक सकता। करोड़पति को रोड़पति बनते देर नहीं लगती।

जितने भी संयोग हैं वे सब कर्मोदय से प्राप्त हैं परिश्रम या बुद्धि से नहीं। जिस समय समझ व पूंजी कम होती है पर पुण्योदय होता है तो अपरिचित स्थान पर भी कमाई कर लेता है और जब परिचय पूंजी अनुभव सब होता है पर पापोदय आता है तो दिवाला निकल जाता है।

दुनिया में इस प्रकार के अनेक उदाहरण हैं, स्वयं के जीवन में भी ऐसा ही घटित होता हुआ दिखते हैं।
संयोग तो अशरण हैं ही पर संयोगी भाव भी अशरण हैं। जिस समय क्रोध कर्म का उदय हो तो क्रोध न चाहने पर भी हो जाता है और जब कर्म का उदय न हो तो कैसे भी प्रसंग मिलने पर क्रोध /राग नहीं आता।

व्यवहार नय से देव-शास्त्र-गुरु और निश्चय नय से मुझे मेरा आत्मा ही शरण भूत है परन्तु इसका ज्ञान न होने से अपनी भलाई के लिए. व्यापार चलाने के लिए, जीवित रहने, यश और पूंजी बचाये रखने के लिए मंत्र तंत्र, देवी-देवता को पूजते हैं, अंधविश्वास का पोषण कर मिथ्यात्व का बंध करते हैं।

यदि ऐसा समझ में आ जाये कि जब तक पुण्योदय है तब तक कोई भी संयोग हट नहीं सकता और पापोदय में रुक नहीं सकता। बाह्य पदार्थों /संयोगों को कोई शरण नहीं और आत्मा को तो कोई छू नहीं सकता. मार नहीं सकता अतः शरण की आवश्यकता नहीं है। *मेरा आत्मा ही मेरा शरण है।*

*मंत्र तंत्र न शरण है, शरण है आतम राम।*
*निज आतम को भूलकर, भ्रमता जगत तमाम।।*

🙏🏻🙏🏻🙏🏻28/04/18

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Update

प्रश्न:- #दिगम्बर_साधुओ के बारे में उनकी नग्नता को लेकर कई भ्रांतियाँ है। एक तो यह कि भाई समाज में कोई तो नग्न नहीं रहता है, फिर यह शख्स नग्न क्यों रहता है? इसे नग्न रहने का क्या अधिकार है? जैन तो जानते हैं कि यह एक परंपरा है किंतु इस सिलसिले में जैनो के अलावा दूसरों को क्या उत्तर दे?

उत्तर:- #दिगंबर_साधु को देखकर सभी को कम से कम यह विचार अवश्य करना चाहिए कि इनके नग्न रहने का क्या कारण है क्या इनके पास वस्त्रों का अभाव है या ये विक्षिप्त है? क्या नग्नता इनकी मजबूरी है या ये इस तरह नग्न रहकर हमें अल्पतम लेकर अधिकतम लौटाने और अनासक्त होकर जीवन जीने का संदेश दे रहे हैं। वास्तव में दिगंबर जैन मुनि की नग्नता अपरिग्रह का चरम विकास है। यह नग्नता मजबूरी नहीं है, बल्कि इसके पीछे एक समृद्ध जीवन दर्शन है। दिगंबर मुनि बनना एक निर्मूल दर्पण बनने जैसा है। सामान्यतः नग्न होना अभद्रता मालूम पड़ सकती है लेकिन दिगंबर मुनि की वीतराग नग्न मुद्रा में अभद्रता का अहसास नहीं होता। वैसे देखा जाए तो वस्त्र पहने हुए भी व्यक्ति अपनी आंख के इशारे से या अंग संचालन से दूसरे के मन में विकार विकृति को जन्म दे देता है। वस्त्र पहनने का ढंग भी कभी-कभी अश्लीलता का प्रदर्शन करता हुआ मालूम पड़ता है। लेकिन दिगंबर साधु की सौम्य वीतराग-मुद्रा सभी को निर्विकार होने का संदेश देती है।

काका काललेकर ने जैन तीर्थ गोम्मटेश्वर पर विराजमान भगवान बाहुबली की दिगंबर प्रतिमा के दर्शन करके लिखा था- "कैसी अपूर्व है इस मूर्ति की अंगकांति! दिगंबर और पवित्र, मोहक और पावक, तारक और उद्धारक! दर्शन करते ही ह्रदय में नवीन सात्विक आनंद स्फुटित होने लगा क्षण भर में वैराग्य और कारुण्य के मानो प्रपात गिरने लगे और चित्त प्रक्षालित होकर क्षणभर में उस भव्यता की ऊँचाई तक चढने लगा।"
असल में, जब नग्नता आत्मानुशासन या संयम के साथ घटित होती है तब उसका सौंदर्य भी पवित्र होता है। राग-द्वेष को त्याग कर ही कोई ऐसी निरावरित नग्नता का पवित्र सौंदर्य स्वयं में प्रकट कर पाता है। यदि हम जीवन की मौलिकता को पाना चाहते हैं हमें भीतर-बाहर सब तरह से निरावरित होना होगा।

✒ #मुनि_क्षमासागर G

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Newly Dikshit Aryika.... From Siddha Jain to Aryika Mahayashmati Mataji @ #Shravanbelgola

Comment Box में 'वंदामि माताजी' लिखना ना भूले..

great Inspiration.... #AcharyaVardhmansagar

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News in Hindi

भक्तमार स्तोत्र के बारे में 5 ऐसे facts जो शायद आप नहीं जानते होंगे.. By #kshullak_Dhyansagar G

Q.1: भक्तामर स्तोत्र की रचना किसने की थी तथा इस स्तोत्र का दूसरा नाम क्या है!, इस स्तोत्र का नाम "भक्तामर" क्यों पड़ा? यह कौन सी भाषा में लिखा गया है?

A.1:भक्तामर स्तोत्र के रचना मानतुंग आचार्य जी ने की थी, इस स्तोत्र का दूसरा नाम आदिनाथ स्रोत्र भी है, यह संस्कृत में लिखा गया है, प्रथम अक्षर भक्तामर होने के कारन ही इस स्तोत्र का नाम भक्तामर स्तोत्र पढ़ गया!!!

Q.2: भक्तामर स्तोत्र में कितने शलोक है तथा हर शलोक में कौन सी शक्ति निहित है, ऐसे कौन से 4 अक्षर है जो की 48 के 48 काव्यो में पाए जाते है?

A.2: भक्तामर स्तोत्र में 48 शलोक है, हर शलोक में मंत्र शक्ति निहित है, इसके 48 के 48 शलोको में "म" "न" "त" "र" यह चार अक्षर (Letter) पाए जाते है!

Q.3: भक्तामर स्तोत्र की रचना कौन से काल में हुई.? 11वी शताब्दी में राजा भोज के काल में या 7वी शताब्दी में राजा हर्षवर्धन के काल में?

A.3: वैसे तो जो इस स्तोत्र के बारे में सामान्य ये है की आचार्य मानतुंग को जब राजा हर्षवर्धन ने जेल में बंद करवा दिया था तब उन्होंने भक्तामर स्तोत्र की रचना की तथा 48 शलोको पर 48 ताले टूट गए! अब आते है इसके बारे में दुसरे तथा ज्यादा रोचक तथा पर,जिसके अनुसार आचार्य मान तुंग जी ने जेल में रहकर में ताले तोड़ने के लिए नहीं अपितु सामान्य स्तुति की है भगवन आदिनाथ की तथा अभी 10 प्रसिद्ध विद्वानों ने ये सिद्ध भी किया प्रमाण देकर की आचार्य श्री जी राजा हर्षवर्धन के काल ११वी शताब्दी में न होकर वरन 7वी शताब्दी में राजा भोज के काल में हुए है तो इस तथा अनुसार तो आचार्य श्री 400 वर्ष पूर्व होचुके है राजा हर्षवर्धन के समय से!

Q.4: भक्तामर स्तोत्र का अब तक लगभग कितनी बार पदानुवाद हो चूका है! तथा इतनी ज्यादा बार इस स्तोत्र का अनुवाद क्यों हुआ तथा यह इतना प्रसिद्ध क्यों हुआ जबकि संसार में और भी स्तोत्र है!

A.4: भक्तामर स्तोत्र का अब तक लगभग १३० बार अनुवाद हो चूका है बड़े बड़े धार्मिक गुरु चाहे वो हिन्दू धर्मं के हो वो भी भक्तामर स्तोत्र की शक्ति को मानते है तथा मानते है भक्तामर स्तोत्र जैसे कोई स्तोत्र नहीं है! अपने आप में बहुत शक्तिशाली होने के कारन यह स्तोत्र बहुत ज्यादा प्रसिद्ध हुआ! यह स्तोत्र संसार का इकलोता स्तोत्र है जिसका इतने बार अनुवाद हुआ जो की इस स्तोत्र की प्रसिद्ध होने को दर्शाता है!

Q.5: क्या आप संस्कृत का भक्तामर स्तोत्र पढ़ते है तथा सही उच्चारण करते है? यहाँ तक की अनुराधा पौडवाल ने जो भक्तामर स्तोत्र को गया है उसमें भी कुछ संस्कृत सम्बन्धी गलतिया है!

A.5: अगर आप सही उच्चारण करना सीखना चाहते है तो आप भक्तामर स्तोत्र जो क्षुल्लक ध्यानसागरजी महाराज ने गया है तथा जिसको Edit करके बादमें Music डाल दिया गया है, http://library.jain.org/3.Bhajan/Strotra/Bhaktamar/ShriBhaktamarJi.mp3 वेबसाइट से डाउनलोड कर सकते है

ये लेख क्षुल्लक ध्यानसागरजी महाराज (आचार्य विद्यासागर जी महाराज से दीक्षित शिष्य) के प्रवचनों के आधार पर लिखा गया है!टाइप करने में मुझसे कही कोई गलती हो गई हो उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ! -Nipun Jain..

भगवान ऋषभदेव की भक्ति में समर्पित भक़्तामर स्तोत्र के रचेता मानतूंग आचार्य जी की समाधि स्थली @ भोजपुर (20km from bhopal):) #Mangtung #Bhaktamar

--- www.jinvaani.org @ Jainism' e-Storehouse ---

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