05.05.2018 ►SS ►Sangh Samvad News

Published: 06.05.2018
Updated: 06.05.2018

News in Hindi

👉 मैसुर - अणुव्रत महासमिति अध्यक्ष श्री संचेती की संगठन यात्रा

प्रस्तुति -🌻 *संघ संवाद* 🌻

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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।

📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙

📝 *श्रंखला -- 317* 📝

*गणनायक आचार्य गुणभद्र*

आचार्य गुणभद्र दिगंबर परंपरा के प्रतिभाशाली आचार्यों में हैं। टीकाकार वीरसेन, जिनसेन की भांति आचार्य गुणभद्र भी विशिष्ट साहित्यकार थे। संस्कृत भाषा पर उनका प्रभुत्व था। आचार्य गुणभद्र का उत्तरपुराण जैन इतिहास का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इस ग्रंथ के रचनाकार आचार्य गुणभद्र ने अपने गुरुजनों की कीर्ति को उजागर किया है।

*गुरु-परंपरा*

आचार्य गुणभद्र के गुरु पञ्चस्तूपान्वयी टीकाकार वीरसेन के शिष्य जिनसेन थे। इनसे पूर्व की गुरु-परंपरा वही है जो वीरसेन की गुरु-परंपरा रही है। आचार्य गुणभद्र ने जिनसेन आचार्य के साथ दशरथ गुरु का भी स्मरण किया है। जिनसेनाचार्य और दशरथ गुरु इन दोनों का स्वयं को शिष्य बताया है। उनका लोकसेन नाम का एक शिष्य था। वह उनके प्रमुख शिष्य में था।

*जीवन-वृत्त*

आचार्य गुणभद्र विनम्र स्वभाव के थे। गुरु के प्रति उनके हृदय में अगाध श्रद्धा का स्रोत छलकता था। आचार्य गुणभद्र द्रके निम्नोक्त पद्य उनकी अनंत गुरुभक्ति को प्रकट करते हैं—

*गुरूणामेव माहात्म्यं यदपि स्वादु मद्वचः।*
*तरूणां हि स्वभावोऽसौ यत्फलं स्वादु जायते।।17।।*
*निर्यान्ति हृदयाद्वाचो हृदि मे गुरवः स्थिताः।*
*ते तत्र संस्करष्यिन्ते तन्न मेऽत्र परिश्रमः।।18।।*
*(आदिपुराण)*

यह गुरु का महात्म्य है मेरे वचन सरस एवं सुस्वादु बने हैं।

मधुर फलों को प्रदान करना वृक्ष का सहज स्वभाव होता है।

वाणी का प्रभाव हृदय से छलकता है। हृदय में गुरु विराजमान हैं। वे मेरी वाणी को संस्कारित करेंगे। मुझे श्रम करने की आवश्यकता नहीं है।

इस प्रकार आस्था की अभिव्यक्ति स्वयं गुणभद्राचार्य के गुरुत्व की अभिव्यक्ति है।

आचार्य जिनसेन और दशरथ इन दोनों गुरुओं से गुणभद्राचार्य ने विविध प्रकार की शिक्षाएं पाईं। उन्होंने व्याकरण आदि विषयों का गंभीर अध्ययन किया। वे सिद्धांतशास्त्र के पारगामी विद्वान् थे। नय और प्रमाणशास्त्र में उनका ज्ञान विशिष्ट था।

आचार्य गुणभद्र के समय अकालवर्ष का राज्य था। अकालवर्ष नरेश अमोघवर्ष (गोविंद तृतीय) के पुत्र थे। नरेश अकालवर्ष 'कृष्ण द्वितीय' के नाम से भी प्रसिद्ध हैं।

*गणनायक आचार्य गुणभद्र द्वारा रचित साहित्य व उनके आचार्य-काल के समय-संकेत* के बारे में पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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त्याग, बलिदान, सेवा और समर्पण भाव के उत्तम उदाहरण तेरापंथ धर्मसंघ के श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।

📙 *'नींव के पत्थर'* 📙

📝 *श्रंखला -- 141* 📝

*संतोषचंदजी सेठिया*

*घोड़ी भेज दी गई*

संतोषचंदजी एक दबंग व्यक्ति होने के साथ-साथ अत्यंत व्यवहार-पटु भी थे। जो भी उनके संपर्क में आता वह शीघ्र ही उनका आत्मीय बन जाता। अनेक प्रसिद्ध राजपूत घरानों के साथ उनके आत्मीय संबंध थे। वहां विशेष अवसरों पर उनसे परामर्श ले कर ही कार्य किया जाता था। वे किसी को भी गलत परामर्श नहीं देते। उनकी दृष्टि में जो भी हित की बात होती वे निःसंकोच कह देते। बीदासर के ठाकुर तो उन्हें कुछ विशेष ही माना करते और चाचाजी कहकर पुकारा करते थे।

एक बार बीदासर में गणगौर के मेले में घुड़दौड़ हुई। उसमें नगर के लोग भी सम्मिलित हुए और स्थानीय ठाकुर के कंवर भी। उस घुड़दौड़ में सतपोल वाले दुगड़ परिवार के युवक बालचंदजी की घोड़ी सबसे आगे रही। खेलों की स्वस्थता के लिए यह आवश्यक है कि वहां की जय पराजय को वहीं के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए। स्थानीय ठाकुर ऐसा नहीं कर सके। अपने ही एक प्रजाजन से अपने कंवर की पराजय उन्हें बड़ी अपमानजनक लगी। क्रोधावेश में उन्होंने अपने व्यक्तियों को आदेश दीया की दुगड़ों कि वह घोड़ी छीनकर गढ़ में ले आई जाए। आदेश भर की देर थी। तत्काल घोड़ी को छीनकर गढ़ में ले आया गया। दुगड़ों के लिए ही नहीं समग्र ओसवालों के लिए वह बड़ी अपमानजनक घटना थी। परंतु उन्होंने ग्रामपति के साथ सीधा झगड़ा करने के बजाय तजबीज से काम लिया। उन्हें पता था कि रीड़ी वाले संतोषचंदजी को ठाकुर बहुत आदर देते हैं और चाचा मानते हैं। कुछ लोग वहां गए और उन्हें सारी स्थिति से अवगत कराया। उस स्थिति को संभालने के लिए वे बीदासर आए। प्रातः गढ़ में पहुंचे। उस समय ठाकुर पूजा में बैठे थे। बातचीत करने का अवसर नहीं था। उन्होंने तब घोड़ी को खुलवाकर दुगड़ों के वहां भिजवा दिया और स्वयं ठाकुर साहब की प्रतीक्षा में बैठ गए। घंटाघर पश्चात् ठाकुर साहब पूजाघर से बाहर आए तो चाचाजी को देखकर नमस्कार किया और साश्चर्य पूछा— "आज आप एकदम प्रातः काल में ही कैसे पधार गए?" संतोषचंदजी ने कहा— "आपने बुलाया तब आ गया।" ठाकुर ने आश्चर्य भरी दृष्टि से उनकी ओर देखते हुए कहा— "नहीं तो, यह आपको गलत समाचार किसने पहुंचा दिया? मैंने तो नहीं बुलाया।" संतोषचंदजी ने अपनी बात को घुमाव देते हुए कहा— "आपके समाचार ने नहीं, आपके कार्य ने मुझे यहां बुला लिया।" ठाकुर असमंजस भाव से बोले— "मैं आपकी बात को समझ नहीं पा रहा हूं।" संतोषचंदजी ने कहा— "लो यहां बैठो। मैं साफ-साफ समझाने के लिए ही तो आया हूं।" ठाकुर साहब उनके पास आकर बैठ गए तब उन्होंने कहा— "प्रत्येक ठाकुर अपने गांव को बसाने और बढ़ाने का प्रयास करता है, परंतु आप उसे उजाड़ने पर उतारू क्यों हो रहे हैं?" ठाकुर इस बार भी कुछ समझ नहीं पाए। वे बोले— "आज सुबह ही सुबह आप यह क्या बात ले आए हैं? मैं अपने गांव को क्यों उजाड़ना चाहूंगा?" सेठियाजी ने कुछ स्पष्ट होते हुए कहा— "महाजनों के वाहन छीनकर आप अपने घर में बांध लेंगे तब आपके गांव में कोई महाजन क्यों बसेगा? यदि आपकी ही घोड़ी आगे रहनी चाहिए तो फिर घुड़दौड़ क्यों करवाते हैं? अपनी घोड़ी को आगे करके घोड़े-घोड़ियों का जुलूस ही निकलवा दिया करें। क्या आप अपने बेटे को ही अपना मानते हैं? प्रजा के सारे लोग क्या आपके ही बेटे-बेटी नहीं है? उनकी घोड़ी आगे रहे तो क्या वह भी आपकी नहीं है?"

*संतोषचंदजी सेठिया की इस बात का ठाकुर पर क्या असर हुआ...?* जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...

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