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👉 प्रेरणा पाथेय:- आचार्य श्री महाश्रमणजी
वीडियो - 19 जून 2018
प्रस्तुति ~ अमृतवाणी
सम्प्रसारक 🌻 *संघ संवाद* 🌻
👉 लोनावला - अणुव्रत समिति, मुम्बई द्वारा दो दिवसीय कार्यशाला
👉 सूरत - आओ चले गांव की और कार्यक्रम
👉 न्यूजर्सी, अमेरिका - आध्यात्मिक सत्संग एवं कार्यशाला का आयोजन
👉 दिल्ली - अणुव्रत समिति द्वारा सेवा कार्य
👉 साकरी - दीक्षार्थी मंगल भावना समारोह
प्रस्तुति -🌻 *संघ संवाद* 🌻
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👁 *अणुव्रत* 👁
💎 *संपादक* 💎
*श्री अशोक संचेती*
☄ *जून अंक* ☄
🔮 *अणुव्रत Q10* 🔮
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य* 📙
📝 *श्रंखला -- 355* 📝
*वादिगज-पंचानन आचार्य वादिराज (द्वितीय)*
*जीवन-वृत्त*
वादिराजसूरि के माता-पिता के विषय में सामग्री उपलब्ध नहीं है। वंश तथा उनका मूल नाम भी अज्ञात है। इतिहास में उनकी प्रसिद्धि वादिराज के नाम से है। वादिराज की संज्ञा संभवतः उन्हें वाद कुशलता के कारण प्राप्त हुई। उनकी योग्यता का परिचय नगरतालुका के शिलालेख संख्या 49 में है। वह इस प्रकार है—
*सदसि यदकलङ्क कीर्तने धर्मकीर्तिर्वचसि सुरपुरोधा न्यायवादेऽक्षपादः*
प्रस्तुत शिलालेख के आधार पर वे सभा में अकलङ्क, विषय विवेचन में धर्मकीर्ति, प्रवचन में वृहस्पति और न्याय में नैयायिक गौतम के समकक्ष थे।
*वादिराजमनुशाब्दिकलोको वादिराजमनुतार्किक सिद्धः।*
उस युग के वैयाकरण और तार्किक जन वादिराज के अनुग थे। मल्लिषेण की प्रशस्ति में वादी विजेता एवं कवि के रूप में वादिराजसूरि की प्रशंसा की गई है।
वादिराजसूरि चामत्कारिक प्रयोग भी जानते थे। जनश्रुति के अनुसार एक बार अपने भक्तों का वचन रखने के लिए उन्होंने मंत्र बल से अपने कुष्ठ रोग को छिपाकर देह को स्वस्थ कंचन वर्ण बना लिया था।
जन समुदाय में इस घटना प्रसंग की प्रसिद्धि वादिराजसूरि के एकीभाव स्तोत्र के अंतर्गत एक श्लोक के आधार पर हुई प्रतीत होती है। वह श्लोक इस प्रकार है—
*ध्यानद्वारं मम रुचिकरं स्वांतगेहं प्रविष्टः।*
*तत्किं चित्रं निजवपुरिदं यत्सुवर्णी करोषि।।4।।*
*(एकीभाव स्तोत्र)*
*राजवंश*
दक्षिण के सोलंकी वंश के प्रसिद्ध नरेश जयसिंह (प्रथम) थे। वे जैन धर्म से प्रभावित थे। वादिराजसूरि का विशेष सम्मान करते थे। उनकी राजसभा में वादिराजसूरि ने कई शास्त्रार्थ किए।
नरेश जयसिंह (प्रथम) को जगदेकमल्ल की उपाधि प्राप्त थी। वादिराजसूरि जगदेकमल्ल जयसिंह भूपेश (प्रथम) द्वारा पूजित थे। उनकी सभा के वे प्रख्यात वादी थे अतः उनको जगदेवकमल्लवादी का अलंकरण प्राप्त था।
'पार्श्वनाथ चरित्र' जैसे उत्तम कोटि के काव्य की रचना वादिराजसूरि ने चौलुक्य चक्रवर्ती नरेश जयसिंह देव (प्रथम) की राजधानी नगर कट्टगेरी में रहते हुए की थी। इस राजधानी क्षेत्र पर लक्ष्मी की अपार कृपा थी। सरस्वती कि यह जन्म भूमि थी।
यशोधर चरित्र काव्य के तृतीय सर्ग के अंतिम पद्य में एवं चतुर्थ सर्ग के उपांत्य पद्य में वादिराजसूरि ने जयसिंह देव नरेश का उल्लेख किया है।
मल्लिषेण प्रशस्ति पद्य में जयसिंह देव और वादिराजसूरि दोनों के नाम का उल्लेख प्राप्त है।
*वादिगज-पंचानन आचार्य वादिराज (द्वितीय) द्वारा रचित साहित्य* के बारे में पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻 *संघ संवाद* 🌻
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अध्यात्म के प्रकाश के संरक्षण एवं संवर्धन में योगभूत तेरापंथ धर्मसंघ के जागरूक श्रावकों का जीवनवृत्त शासन गौरव मुनि श्री बुद्धमलजी की कृति।
🛡 *'प्रकाश के प्रहरी'* 🛡
📜 *श्रंखला -- 9* 📜
*बहादुरमलजी भण्डारी*
*नरेश के कोप-भाजन*
गतांक से आगे...
भंडारीजी की आशंका सत्य निकली। नरेश तख्तसिंहजी ने दूसरे ही दिन भंडारीजी के परिवार को गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया। पुलिस हवेली पर पहुंची तो पता लगा कि सारा परिवार दो दिन पूर्व ही वहां से जयपुर की ओर प्रस्थान कर गया है। नरेश ने तब घुड़सवारों की एक टुकड़ी को आदेश दिया कि उन लोगों को जयपुर सीमा में प्रविष्ट होने से पूर्व ही पकड़कर यहां ले आओ। घुड़सवार बड़ी तेजी से गए, परंतु उनके पहुंचने से पूर्व ही भंडारी परिवार के रथ जयपुर सीमा में प्रविष्ट हो चुके थे। केवल एक रथ किसी कारण से पिछड़ गया था, अतः उसे पकड़ लिया गया। उसमें सूरजमलजी भंडारी तथा मानमलजी भंडारी सवार थे। मानमलजी तो बहादुरमलजी के सबसे छोटे पुत्र थे और सूरजमलजी पारिवारिक भाई थे तथा वहीं नौकरी करते थे। सैनिकों ने ज्योंही उन्हें पकड़ा सूरजमलजी ने कहा— "मैं भंडारी साहब का मुनीम हूं और यह मेरा बेटा है। हमें पकड़ने से राजाज्ञा की पूर्ति होती हो तो ले चलो। रोटी यहां नहीं वहां खाई सही।" सैनिकों ने सोचा— "जिन्हें पकड़ना था वे तो चले गए। अब इन नौकरों को पकड़ने से क्या लाभ?" सैनिकों ने उन दोनों को छोड़ दिया और वापस वहां से मुड़ गए। जोधपुर आकर उन्होंने नरेश को सारी स्थिति बतलाई कि उनके पहुंचने से पूर्व ही वे सब जयपुर राज्य में प्रविष्ट हो चुके थे।
नरेश फिर भी शांत नहीं बैठे उन्होंने जयपुर स्थित अपने व्यक्तियों को निर्देश दिया कि वे जयपुर नरेश से प्रार्थना करें कि हमारे अपराधियों को पकड़ कर हमें सौंप दिया जाए।
नरेश की यह योजना कार्य रूप में परिणत होती उससे पूर्व ही किसी हितैषी ने किसनमलजी को सूचित कर दिया। उन लोगों ने उसी रात्रि में जयपुर छोड़ दिया। सारा सामान तत्काल तैयार करके ले जाना संभव नहीं था, अतः कुछ नौकरों को दूसरे दिन आ जाने के लिए वहीं छोड़ दिया। नौकर जाने की तैयारी करते उससे पूर्व ही प्रातः पुलिस आ धमकी। नौकरों से किसनमलजी आदि के विषय में पूछताछ की तो उन्होंने कहा कि हमें तो यहीं रहने के लिए छोड़ गए हैं, परंतु वे कहां जा रहे हैं, यह हमें कुछ भी नहीं बतलाया। पुलिस ने तब उन को डराया-धमकाया और मारा-पीटा भी, परंतु उन्होंने एक ही उत्तर दिया कि जब हमें पता ही नहीं है तब हम कैसे बतलाएं। आखिर पुलिस को रीते हाथ ही जाना पड़ा। नौकर पिछड़ अवश्य गए, परंतु अवसर देखकर रात्रि की नीरवता में वे भी निर्दिष्ट स्थान सुजानगढ़ की ओर चले गए।
भंडारीजी के परिवार को लगभग चार महीनों तक उक्त परिस्थिति में सुजानगढ़ रहना पड़ा। उसके पश्चात् नरेश तख्तसिंहजी का मन बदला। उन्हें भंडारीजी जैसे सत्य और उचित बात कह सकने वाले व्यक्ति की कमी अखरने लगी। उन्हें वापस बुला लेने की तजवीज वे सोच ही रहे थे कि तभी नरेश का जन्मदिन आ गया। मुसद्दी आदि सभी राजवर्गीय लोग नरेश को 'नजराना' भेंट करने आए। नरेश ने उसी समय पूछा— "अन्य सब तो आ गए, किंतु भंडारी कैसे नहीं आया?" किसी एक मुसद्दी ने कहा— "कई महीनों से उनका दरबार में आना रुका हुआ है।" नरेश ने कहा— "उसके आने में कोई रुकावट नहीं है। उसे बुला लाओ।" नरेश ने अपना आदमी भेज कर बुलाया तो भंडारीजी तत्काल उपस्थित हो गए और नरेश को 'नजराना' भेंट किया। नरेश ने उसे आदर-पूर्वक स्वीकार किया। उसी समय जब्त की गई जागीर उन्हें वापस लौटा दी और पूर्व स्थान पर ही उनकी पुनः नियुक्ति कर दी। इस प्रकार सारी स्थितियां अनुकूल हो जाने पर भंडारीजी ने समाचार भेज कर अपने परिवार को सुजानगढ़ से जोधपुर भुला लिया। धीरे-धीरे गाड़ी पुनः पहले वाली पटरी पर आ गई।
*बहादुरमलजी भंडारी द्वारा अंग्रेज सरकार के साथ किए गए नमक समझौते और अपने कर्तव्य के प्रति उनकी दृष्टि* के बारे में जानेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
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News in Hindi
👉 प्रेक्षा ध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
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*वादिगज-पंचानन आचार्य वादिराज (द्वितीय)*
दिगंबर परंपरा में वादिराज की गणना विद्वान् आचार्य में हैं। वे तार्किक आचार्य एवं उच्च कोटि के कवि थे। प्रखर वैदुष्य एवं वादकुशलता के कारण षट्तर्क, षण्मुख, स्याद्वाद, विद्यापति और जगदेक-मल्लवादी जैसी उनको उपाधियां प्राप्त थीं।
*गुरु-परंपरा*
वादिराजसूरि की गुरु परंपरा द्रमिल या द्राविड़ संघ से संबंधित थी। द्राविड़ संघ के अंतर्गत नन्दी संघ की अरूङ्गल शाखा के वादिराज आचार्य थे। अरूङ्गल नाम किसी स्थान विशेष या ग्राम से संबंधित होने के कारण नन्दी संघ की शाखा या मुनि परंपरा और अरूङ्गलान्वय नाम से प्रसिद्ध हुई थी।
वादिराजसूरि के गुरु का नाम मतिसागर और दादा गुरु का नाम श्रीपालदेव था। उनके गुरु भ्राता का नाम दयालपाल था। दयालपाल मुनि ने रूप सिद्धि नामक टीका की रचना की।
अपने दादा गुरु श्रीपालदेव को वादीराजसूरि ने 'सिंहपूरैकमुख्य' और अपने आप को 'सिंहपुरेश्वर' कहा है। इससे स्पष्ट है कि आचार्य वादिराज का सिंहपुर नामक स्थान से विषय से संबंध था अथवा इस स्थान पर इनका प्रभुत्व था। सिंहपुरैकमुख्य एवं सिंहपुरेश्वर जैसे विशेषण वादिराज को मठाधीशों की परंपरा से संबंधित करती है। शोध विद्वानों का अनुमान है वादिराजसूरि की गुरु परंपरा मठाधीशों की थी।
देवसेन रचित दर्शनसार में द्राविड़ संघ के मुनियों द्वारा सेवित अनेक दोषात्मक प्रवृत्तियों का उल्लेख है। अतः इसे जैनाभास कहा है।
कर्णाटक और तमिलनाडु में द्राविड़ संघ का अधिक प्रचार था।
*वादिगज-पंचानन आचार्य वादिराज (द्वितीय) के जीवन-वृत्त एवं समकालीन राजवंश* के बारे में पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
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👉 सूरत - भ्रूण हत्या निषेध कार्यक्रम
👉 दोंडाइचा (खान्देश) - सामूहिक शपथ विधि ग्रहण समारोह
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👉 गांधीधाम - आध्यात्मिक मिलन
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