Short News in English
Location: | Kelwa |
Headline: | Jain Vidhya Workshop Book Part 3 Presented To Acharya Mahashraman |
News: | Acharya Mahashraman told that in Jain Philosophy eight types of Karma are mentioned. Karma affects our consciousness. Birth cycle is fixed as per Karma. Upasak give Pravachan in their area but it is necessary that our conduct should be fair before preaching. |
News in Hindi
जैन विद्या कार्यशाला का तीसरा भाग’ पुस्तक विमोचन के लिए आचार्य को समर्पित की
‘मन में संयम व समर्पण का भाव बढ़ाएं’
केलवा में आचार्य महाश्रमण ने प्रवचन के दौरान कहा, ‘जैन विद्या कार्यशाला का तीसरा भाग’ पुस्तक विमोचन के लिए आचार्य को समर्पित की
केलवा 28 जुलाई जैन तेरापंथ न्यूज ब्योरो
आचार्य महाश्रमण ने कहा कि राग-द्वेष से बचने के लिए संयम और समर्पण का भाव मन में विकसित करें। इससे आत्मा का कल्याण होगा। आचार्य ने यह बात बुधवार को केलवा (राजसमंद) चातुर्मास के दौरान कही। उन्होंने संबोधि के तीसरे अध्याय में उल्लेखित कर्म के प्रकरण को परिभाषित करते हुए कहा कि जैन दर्शन में आठ कर्म बताए गए हैं। यह प्रिय-अप्रिय स्थितियों का कारण बनते हैं। ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण कार्य पर्दा डालने का काम करते हैं। मनुष्य में विकार को स्थान देने का काम मोहनीय कर्म करता है। इसका प्रभाव मानवीय चेतना को विचलित करने में सहायक सिद्ध होता है। इसलिए इस कर्म से परे रहकर ज्ञान धर्म की ओर अग्रसर होना चाहिए। अन्तराय कर्म किसी कार्य में बाधा डालने का काम करता है। शेष कर्मों को घाती कर्म की संज्ञा दी गई है। इन्हें घन घात्य कर्म से भी पुकारा जाता है।
विधान के अनुसार पुनर्जन्म:
आचार्य ने कहा कि यह कर्मों का स्वभाव है कि वर्तमान में हम कौनसी गति के प्राणी हैं। इसकी विवेचना कर सकते हैं। मृत्यु के बाद आदमी की आत्मा किस रूप में जन्म लेगी। इसका भी एक विधान है। मनुष्य स्वर्ग एवं नरक में जाता हैं, लेकिन देवता कभी भी नरक में नहीं जाते। मनुष्य अगले जन्म में पुन: मनुष्य के रूप में अवश्य जन्म लेता हैं, लेकिन देवता वापस देव रूप में जन्म नहीं ले सकते हैं। उन्होंने गति को भी विधान बताते हुए कहा कि मनुष्य के कर्म में जैसा भाव होगा, उसे कर्मों का वैसा ही फल मिलता है। आयुष कर्म से अगली गति का निर्धारण संभव हो सकता है। पांच कर्मों से सदैव बचने का आह्नान करते हुए आचार्य ने समर्पण का भाव रखने की बात कही। इससे साधक कर्मों में बंधन से छुटकारा पा सकता है।
आवश्यक है धर्म में ज्ञान साधना
उन्होंने आत्मा रूपी पंछी को शरीर के पिंजरे में से निकालने का आह्वान करते हुए उपासक-उपासिकाओं से कहा कि धर्म में ज्ञान-साधना का योग आवश्यक है। व्यक्ति की साधना प्रबल हो जाती है, तो वह सशक्त हो जाता है। किसी को धर्म का उपदेश देने के पूर्व इस बात की आवश्यकता है कि वह स्वयं इस संदर्भ में भली-भांति परिचित है अथवा नहीं। उसका स्वयं का जीवन भी उपदेश देने के अनुकूल ज्ञान और साधना युक्त होना चाहिए। जो बातचीत में संयम का भाव रखता है उसका कल्याण अवश्यंभावी है। इसलिए कार्यों में निर्जरा करने का प्रयास करें। केवल भाषण देने से वक्तव्य में प्राण नहीं आते और वे निष्प्राणित हो जाते हैं। संतों को चाहिए कि वे मनुष्य का प्रर्याप्त मार्गदर्शन करें एवं उनमें धर्मोपासना के प्रति भाव जागृत हो। इस दिशा में ध्यान एवं साधना करें। यदि मनुष्य को संतों से ही उचित ज्ञान नहीं मिलेगा, तो वह इसे प्राप्त करने के लिए कहां जाएगा।
जिम्मेदारी से नहीं बने कमजोर
आचार्य ने कहा कि व्यक्ति के पास किसी तरह का दायित्व या जिम्मेदारी आ जाती है, तो उसके चेहरे पर तनाव, चिंता की लकीरें नहीं आनी चाहिए। वह स्वयं को कमजोर नहीं बल्कि सशक्त मानते हुए अपने दायित्व का सोच विचार कर निर्वाह करें और कर्मवाद को समझे। ऐसा करने से आत्मा सिद्धत्व की ओर अग्रसर होती है। मोक्ष को प्राप्त करने में साधना की अपेक्षा होती है।
साधना से मिलती है मुक्ति
मंत्री मुनि सुमेरमल ने शरीर रूपी पिंजरे में कैद आत्मा को मुक्त कराने में संयम एवं साधना की आवश्यकता प्रतिपादित करते हुए कहा कि इसकी सतत प्रक्रिया से बंधन से मुक्ति नजदीक आती है। जो इसके गूढ़ रहस्य को समझ जाता है वह अपनी प्रवृत्तियों का संयम करता है। व्यक्ति शरीर रूपी पिंजरे से मुक्त होना चाहता है, तो उसे अपनी इंद्रियों पर संयम रखना होगा। शाश्वत सत्य को प्राप्त करने के लिए उन्होंने इस सूत्र को अपनाने का प्रत्येक व्यक्ति से आह्नान किया।
कार्यक्रम के दौरान मुनि जयंत कुमार ने ‘जैन विद्या कार्यशाला का भाग तीन’ पुस्तक आचार्य को विमोचन के लिए समर्पित किया। मुनि ने कहा कि जैन विद्या के अध्ययन से हमारी पहचान कायम होती है। उन्होंने कहा कि आगामी एक अगस्त से पूरे देश में एक साथ जैन विद्या कार्यशालाओं का आगाज होगा।