रक्षा बंधन [Rakṣā bandhana]

Author:  Image of Nipun JainNipun Jain
Published: 18.08.2011
Updated: 21.07.2015

रक्षा बंधन - वात्सल्य अंग
विष्णुकुमार-अकम्पनाचार्य मुनि कथा

Rakṣā bandhana (vātsalya aṅga) - the name itself is meaningful: “rakṣā” implies protection and “bandhana” signifies the protective approach. It is an affirmation to protect and it describes the parental affection of the dēva śāstra guru who stands for a protective attitude, corresponding to the dharma and for its true seeker. This chronicle itself is called a pinnacle of fondness, addressed to the homologous seeker, and describes the occurrence of Sage Viṣṇukumāra, who had to break the web of karmic bondage and was near to get the enlightenment, but had left penance just for saving Akampanācaryā and 700 homologous Digambara sages.

Veneration and obeisance to the Sage Viṣṇukumāra, whose story inspire us to take the decision ahead with wisdom and tact, whenever any kind of such circumstances happen to us, because vātsalya (i.e. parental affection) is also a crux of the Jainism philosophy.

Fig. 1

The first image (Fig. 1) shows the sage Viṣṇukumāra in the appearance of Vāmana avatāra (dwarf), asking four ministers of the king to donate a lot of land to him, which he could measure with three steps. In the second image (Fig. 2) we see Vāmana avatāra in his mammoth appearance, measuring the universe with three steps. So he obtained all lands where humans lived and thus the ego of the four ministers decayed.

Fig. 2

रक्षा बंधन कथा हिन्दू धर्मं में भी विष्णु के अवतारों में गिनी जाती है और उस कथा में विष्णु का जो अवतार है उस अवतार का नाम है वामन अवतार और जैन ग्रंथो में भी ये कथा मिलती है! 1800 वर्ष पुराने ग्रन्थ रत्नकरंड श्रावकाचार में एक श्लोक में आचार्य समंतभ्रद्र स्वामी ने एक पद लिखा "वात्सल्य - निस्वार्थ प्रेम " शब्द उल्लेखित किया था तथा इसमें विष्णु कुमार मुनि का नाम इन्होने उल्लेखित किया था, फिर आगे बहुत से आचार्यो ने विष्णु कुमार मुनि का नाम उल्लेखित किया, यहाँ तक की धवला की चोथी पुस्तक में भी विष्णु कुमार मुनि की चर्चा है, विक्रिया ऋद्धि के अंतर्गत वहा उनका उल्लेख आता है, इस तरह 3 बड़े बड़े पुराण जो जैन धर्मं के बड़े ग्रन्थ गिने जाते है 1. पदमपुराण 2. हरिवंश पुराण 3. आदिपुराण - ये पुराण अत्यंत प्रमाणिक तथा निर्दोष है, तथा इन तीनो पुराणों में विष्णु कुमार मुनि की कथा आती है, उपस्काध्यन, रत्नकरंड श्रावकाचार की टीका में आचार्य प्रभाचंद्र स्वामी ने वात्सल्य अंग में विष्णु कुमार मुनि की कथा दी है, लेकिन कही ये ऐसा पढने में नहीं आता की ये कथा रक्षा बंधन की कथा है, पर फिर भी प्रचलन रक्षा बंधन के नाम से है! तो इस कथा को प्रारंभ करते है...

तीर्थंकर मल्लिनाथ भगवान् की काल में ये घटना घटित हुई थी, उस समय महापद्म नामक चक्रवर्ती का राज्य हस्तिनापुर में था तथा उनकी रानी लक्ष्मी मति थी, उसके दो पुत्र विष्णुकुमार और पद्म थे, और जब राजा महापद्म को संसार भोगो के प्रति वैराग्य हुआ तब उन्होंने दीक्षा लेने का विचार किया, तब राज्य किसी पुत्र को देना जरुरी होता है, जब वो राज्य किसी पुत्र को देना लगे तो विष्णु कुमार ने मना कर दिया, विष्णु कुमार ने पूछा, आप क्यों छोड़ करे हो पहले ये बताओ, ये चक्रवर्ती का पद, छह खंड का साम्राज्य, पूरा भरत क्षेत्र आप क्यों छोड़ रहे है, तो उन्होंने कहा की संसार में सार नहीं है तो विष्णु कुमार ने पूछा संसार में कोई सार नहीं है...इसलिए आप इस संसार को छोड़ रहे है, पहले ये बताये की असार वस्तु बेटे को देनी चाहिए? जो पिता है...वो बेटे को अच्छी चीज़ दे...पिता जी...मुझे भी वैराग्य है...मैं भी समझ रहा हु...संसार में कोई सार नहीं है, तो इन्होने दुसरे पुत्र पद्म को राज्य देदिया... इस तरह ये राजा महापद्म तथा उनका पुत्र विष्णु कुमार, जाकर सागरचन्द्र आचार्य से दीक्षा लेलेते है, अब दीक्षा लेने की बाद वो एकल विहारी भी हो जाते है, महापद्म जो चक्रवर्ती थे...उन्होंने तो घातिया कर्मो को नष्ट कर केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया और अंत में मोक्ष प्राप्त कर लिया, लेकिन जो विष्णु कुमार थे...उनकी अभी इतनी ज्यादा उम्र नहीं थी...और वो विष्णु कुमार तपस्या करते रहे...तपस्या करते करते...ना जाने उन्हें कौन-कौन सी ऋद्धिया प्राप्त हो गयी और और... इसी बीच एक घटना होती है...जिसका पूर्वार्ध इस प्रकार है...

अवन्ती देश में जो उज्जयिनी नगरी है, वो बहुत प्राचीन जिसको आज कल जैन जैनेतर सब मानते है, जो तीर्थ जैसी मानी जाती है, वहा पर सुखुमाल मुनि जैसा बड़े बड़े दिग्गज भी बड़े हुए है, तो उस नगरी में राजा श्री वर्मा राज्य करता था, और उसके यहाँ चार मंत्री थे - बलि, ब्रहस्पति, प्रह्लात, शुक्र [नमुचि] और इन चारो की मान्यताये अलग प्रकार की थी, तो एक बार ऐसा हुआ जब एक बड़े आचार्य, परमयोगी दिगम्बर जैन मुनि अकंपनाचार्य अपने सात सौ मुनि शिष्यों के साथ ससंघ उज्जयिनी पधारे।, तब उज्जयिनी की सारी प्रजा अष्ट द्रव्य का थाल सजा कर दर्शन के लिए निकलती है, तब राजा उस कोलाहल को सुन कर, और अपनी छत पर से देखता तो मंत्री से पूछता है तो मंत्री बोलते है...कोई दिगंबर मुनि आये हुए है. तो राजा भी दर्शन के लिए निकलता है, और जतना को भी बता दिया जाता है राजा दर्शन के लिए जायेंगे...जिसको चलना है साथ में चले, फिर सब एक साथ हो गए, और उधर अकंपनाचार्य को अपने ज्ञान से पता चला की जो अभी झूलुस आने वाला है, उसके साथ कोई भी वार्तालाप, संपर्क, संघ के हित में नहीं होगा, तो सारे संघ को उन्होंने आदेश देदिया की सब मौन धारण करेंगे, इस तरह राजा आदि जब वहा जाकर वंदना करने के पश्चात पूछा की हे ज्ञानवान गुरुवर, हमें धर्म का उपदेश दीजिये जिससे हम अपने कर्ण, जीवन को, समय को सफल बना सके, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला...सब साधु मौन थे, प्रयास करने पर भी किसी ने अपना मौन नहीं खोला, तब मंत्रियो ने बोला जो कुछ आप सुनना चाहते है वो हम आपको राज दरबार में सुना देंगे. अगर इनको कुछ आता होता.तो ये ऐसे मौन नहीं होते...ये निरे अंगूठे-छाप है, इनको कुछ नहीं आता, बस यही है की जैन साधु बनने पर इनको सम्मान, भोजन मिल जाता है, इसके सिवा कोई कारण नहीं है, जैनेश्वरी दीक्षा लेने का, इनको कुछ नहीं आता, इनसे कहा आप पूछ रहे है धर्मं का स्वरुप, इन सब मुनि जानते है की आपके साथ में हम इतने विद्वान् मंत्री है तो ये कैसे बोले कुछ..., कुछ नहीं बोल सकते है...

तब राजा को लगा मंत्रियो को क्या जवाब दे, अभी तो कोई तर्क भी नहीं है, और राजा चुप रहा, जब वो नगर की और लोटने लगे, तब एक मुनिराज श्रुतसागर उनका नाम था, वो भी निर्ग्रन्थ मुनि थे, तब सामने से उन्ह्को आता देख, इन चारो मंत्री से से १ मंत्री बोला देखो जवान बैल चला आरहा है, अब उन मुनिराज को पता नहीं था की, आचार्य श्री ने सबको मौन रहने आदेश किया है, तो इन मुनिराज का मौन नहीं था, तो उन्होंने "स्यात" ये शब्द बोला, तो राजा को लगा ये साधु तो मौन नहीं है, तब राजा ने पूछा इसका अर्थ क्या है, तो मुनिराज बोलते है किसी द्रष्टि से, तो राजा बोलता है किस द्रष्टि से, ये हमारे मंत्री तो आपको अपशब्द जवान बैल बोल रहे है, तो आप उसको स्वीकार कर रहे है, तो किस द्रष्टि से, तब मुनिराज बोलते है, संसार में भ्रमण करने वाला जीव कभी बैल योनी में भी उत्पन्न हो जाता है, बैल में जवानी की दशा भी बनती है, तो उस भूतपूर्व अवस्था से सही कहा, तो सारे मंत्री अलग अलग मान्यता वाले थे तो उसमे जो नास्तिक मत वाला था, वो बोलता है, आप मानते है पुनर्जन्म?, किसने देखा है पुनर्जन्म? जो आँखों से नहीं देखा सा सकता वो सत्य कैसे हो सकता है?, तब मुनिराज तत्काल उत्तर देते है, तुम्हारे माता, पिता की विवाह विधि हुई थी, क्या वो तुमने देखी थी, वो मंत्री कहता की हुई थी, तो मुनि बोलते है तुम कैसे कह सकते हो, हुई थी, तो मंत्री बोलता है हुई तो थी, लेकिन तुम तो बोल रहे हो जो आँखों से दीखता है वही सच होता है, तो मंत्री बोलता है मैंने सुना है, तो फिर मुनि बोलो, फिर तुम्हारी बात झूटी हुई, ये सुनते ही उस मंत्री को कुछ जवाब नहीं आया, तो फिर मुनिराज बोले जो हम आत्मा, परमात्मा की धारणा को लेकर चल रहे है वो हमने भी सुना है, हमने हमारे गुरु से, उन्होंने गणधर परमेष्टि से गणधर परमेष्टि ने उनके गुरु तीर्थंकर भगवान् - सर्वज्ञ तो उनसे ये बात चली आरही है, इसलिए हम भी उस पर अविश्वास नहीं करते, इस प्रकार फिर मंत्री के पास कोई जवाब नहीं था, इस तरह फिर चारो मंत्री उन मुनिराज से परास्त हो गए, जो जिनवाणी के रहस्य को जानते है, चारो अनुयोगो की जिनको ज्ञान है, उनको कोई जीत नहीं सकता, वाद-विवाद में उनको कोई पराजित नहीं कर सकता, और जो लोग थोडा बहुत पढ़ कर तर्क-वितर्क करने लग जाते है वो अपनी ही बात से पराजित हो जाते है! इस तरह स्यादवाद के धारक मुनिराज ने सबको पराजित कर दिया, और वो सब परस्त होकर म्लान मुख हो गए...

मुनि श्रुतसागर जी अब आचार्य अकम्पनाचार्य जी पास जाते है तथा उनको सब कथा बतादेते है की...रास्ते ये हुआ, तो मुझे थोडा शास्तार्थ करना पड़ा और वो परास्त होगये, तो आचार्य बोलते है तुमने संघ के उपर संकट ला दिया है, उसका एक मात्र उपाए है हो सकता है तुम उसी स्थान पर चले जाओ, जहा पर शास्तार्थ किया है और कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हो जाना, जिससे संकट भी टल जायेगा...और कायोत्सर्ग करने से जो अनजाने में भूल हुई है. उसका प्राश्चित भी हो जायेगा, मुनि श्रुतसागर जी फिर नमस्कार कर आचार्य को चले गए, और वही जाकर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े होगये, उधर उन चारो मंत्रियो ने बैठक की विचार किया है हमारी इतनी बदनामी हुई तो क्या करे, तो १ मंत्री बोला जिस जैन साधु के कारण हमारे ऐसा हुआ हम सब मुनिओ की हत्या कर डालेंगे, तो दूसरा बोला सब मुनिओ को हत्या करना व्यर्थ है, अंत में निर्णय ये निकलता है की जिस मुनि के कारण हमको नुकसान हुआ है, उसी मुनि की हत्या करनी चाहिए, इसमें कोई पाप भी नहीं है जिसके कारण हमे नुकसान हुआ, उसका मुकाबला करना चाहिए और हम रातो रात उस मुनि को मार डालेंगे, तो चारो रात को निकलते है...उसी मार्ग से तो देखते है, चांदनी रात में श्रुतसागर मुनिराज को कायोत्सर्ग मुद्रा में देख कर पहचान लेते है और सोचते है चलो अच्छा हुआ, इनके संघ को मारने की कोई आवशकता नहीं, हमारा दुश्मन तो यही खड़ा है, और चारो ने मिलकर तलवार उठा ली, और जैसे ही वो मारने को होते है वह का वन देवता उनके हाथो को कीलित कर देता है, उनके शरीर जकड गए, इस तरह रात व्यतीत हो गयी...

सवेरे जब जनता मुनिराजो को वंदना के लिए निकली तब रास्ते में इन दुष्टों को देख कर रजा को बात बताती है तब राजा बहुत कुपित होता है, इन दुष्टों ने इतना नीचा कार्य करने की कोशिस की, फिर सोचते है इनके पिता भी हमारे मंत्री थे, उनके पिता के पिता भी हमारे मंत्री थे, तो ये वंश परंपरा से मंत्री रहे है, इसलिए इनको म्रत्यु दंड देना अनुचित होगा, लेकिन इनको क्षमा करना भी अनुचित होगा, फिर राजा बहुत विचार के बाद सोचकर, फिर उन मंत्रियो को अपमान पूर्वक देश निकाले का दंड देने का निर्णय करता है, और उन चारो मंत्रियो को अवन्ती देश से निष्काषित कर देते है अब वो मंत्री कुरु-जंगल देश चले जाते है, और वहा की राजधानी हस्तिनापुर, जहा शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरहनाथ ये तीन तीर्थंकर हो चुके है, जब वह पहुचते है की राजा से सामने कोई समस्या है और अगर कोई उस समस्या को हल करदे तो उसको मंत्री पद मिलेगा उनने घोषणा करवाई थी की अगर मेरे शत्रु को कोई बस में करलेगा तो उसको मंत्री पद मिलेगा,, तो समस्या ये थी की राजा पद्म [जिनके भाई तथा पिता दीक्षा ले चुके है जिसमे से पिता तो मोक्ष भी चले गए, भाई - मुनि विष्णुकुमार तपस्या में लीन है] पर कोई राजा सिंहबल नाम का राजा चढ़ाई करता था, सैकड़ो लोगो ने प्रयास किया लेकिन कोई उसको परास्त नहीं कर सकता...क्योकि राजा सिंहबल के पास ऐसा किला था जिसका कोई भेदन नहीं कर प् रहा था, तो चारो मंत्रियो ने विचार किया ये कार्य आपने लिए कठिन नहीं है, जो काम शक्ति से नहीं होता और वो बुद्धि से हो जाता है और उन्होंने राजा पद्म से कहा की हम ये काम कर लेंगे, और अपने छल-बल से काम कर लेते है और राजा को बंधी बनाकर राजा पद्म के सामने ले आते है... और राजा बहुत प्रसन्न होता है, की ये जो मेरे लिया कांटा था वो आज कैदी है, इन चारो ने बंदी बना लिया और राजा प्रसन्न होता है और बोलता है की तुम को मंत्री तो मैं बनता ही हु साथ में कोई वरदान मांगना है तो मांगो, बलि मंत्री बोला जब वक़्त होगा तब मागेंगे और इस तरह वो मंत्री वन जाते है...

एक बार हस्तिनापुर के निकट एक ऊँचा स्थान था, वह पर चोमासा के पहले कुछ साधुओ का आगन होता है और बलि मंत्री दिग्विजय के लिए निकल जाता है और राजा को बोलता है आप निश्चिंत रहो, तब वो आता है तो उनको समाचार मिलता है यहाँ पर सात सो मुनिराजो का चोमासा हो गया है, और बड़ा आनंद मंगल हो रहा है, तो पता चलता है, ये तो वही अकम्पनाचार्य आदि मुनि साथ में श्रुतसागर जी भी है, इस कथा का आचार्य सोमदेव स्वामी ने बहुत अच्छा वर्णन किया है तथा बताया है जैसे पागल कुत्ते का जहर बरसो के बाद भी नहीं उतरता और कभी भी असर कर जाता है, इसी प्रकार इनके अन्दर जो मुनिओ के लिए जहर था वो दुश्मनी का काम कर रहा था, तो अब इन आचार्य का नाम सुनते ही वो जहर काम करने लगा, और इनके अन्दर क्रोध उत्पन्न होगया और ये राजा पद्म के पास जाते है और बोलते है आपने जो वरदान की बात हमसे कही थी, तो राजा बोलते है तुम्हे जो मांगना है मांगो तो मंत्री राजा से सात दिन का राज्य मानते है और राजा खुद रण निवास में रानियों के साथ चलता जाता है, यहाँ ये लोग राजा बन जाते है... ये चारो मंत्री राजा बनते ही एक ऐसा आयोजन आयोजित करते है, की जिससे मुनिराजो की प्राण संकट में पड़ जाये, यानि मुनिराजो की म्रत्यु हो जाये, एक बाड़ी लगा देते है फिर उसमे हवं प्रारंभ करते है, सारा धुआ वही मुनिओ के गले, नासिका में चले जाये, उनका दम घुटने से म्रत्यु हो जाये, और हवन में ऐसी ऐसी बस्तुए डालते है, जिससे मुनिराजो को सच में क्लेश होना प्रारंभ हो जाता है, फिर वो मुनिराज सोचते है हमारे किसी पूर्व कर्म का उदय से ये संकट आया हुआ है और मुनिओ का कर्त्तव्य से है की संकट में समता धारण करे, सभी मुनिराज दोनों प्रकार का संन्यास धारण कर वही पर अवस्थित होजाते है, मैने आहार -जल का त्याग करदेते है, तो वो धुआ दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जारहा था, फिर वो दुर्गंघ, और गले का दर्द वो भी बढ़ता जा रहा था, तब सातवे दिन उन मंत्रियो ने एक आयोजन रखा किमिकछिक दान का और उसके पहले रात को श्रवण नक्षत्र को कम्पित देख सागरचन्द्र आचार्य जो बहुत दूर विराजमान थे, हस्तिनपुर से, उन्होंने ऐसे देखा और उनके संघ में एक ज्योति विधा के विद्वान थे, तो वो मुनिराज ने अपनी ज्योति विद्या से उस श्रवण नक्षत्र को कम्पित देख कर जाना की ये बहुत अशुभ संकेत है, और फिर वो समझ गए, की इसका परिणाम इतना गंभीर है और वो समझ गए कही ये संकट आया है तो एकदम से उनके मुख से "आह...!" ये शब्द निकलते है! और उनके गुरु आचार्य सागर चन्द्र जी को अवधिज्ञान के धारी थे तो उन्होंने अपने ज्ञान से पता लगाया की अकम्पनाचार्य आदि सात सो मुनिओ पर प्राण संकट आया हुआ है, तब उन्होंने संघ में एक पुष्पक देव क्षुल्लक जी थे, उनको तभी आधी रात को ही बुलाया, तो क्षुल्लक जी को बोला की आचार्य श्री ने की तुम्हारे पास आकाशगामिनी विद्या है, तुम विद्याघर थे, तुम तत्काल जाकर मेरे शेषे विष्णु कुमार मुनि जो इस समय धरणीभूषण पर्वत पर विराजमान है, तुम्हारे पास विद्या जरुर है लेकिन तुम्हारे पास वो शक्ति नहीं है की उस संकट का निवारण हो सके, इसलिए तुम विष्णु कुमार को जाकर बोल देना की विक्रिया ऋद्धिघारी मुनि की इसका संकट का निवारण कर सकते है, लेकिन उन मुनि को मालुम नहीं है की उनके पास ये बड़ी बड़ी ऋद्धि है, उनको बतादेना की गुरु ने अपने ज्ञान से से जाना है और आपके पास वो समर्थ है संकट निवारण की, तो क्षुल्लक जी आकाश मार्ग से चले जाते है, फिर उस पर्वत पर उतरते है और देखते है थोड़ी सी चांदनी थी, एक धना वृक्ष था उसके उपर अजगर थे लेकिन वो शांत थे सब जीव, फिर नीचे देखते है वृक्ष के नीचे विष्णु कुमार मुनि जी विराजमान थे, वहा पर पास जाकर क्षुल्लक जी नमस्कार करते है तो विष्णु कुमार मुनि देखते है की आधी रात को क्षुल्लक जी कहा से आगये, तो क्षुल्लक जी सारी बात बताते है, तो विष्णु कुमार मुनि को याद आता है हस्तिनपुर का राज्य तो जो मेरे पूर्व सम्बन्धी भाई उनका राज्य है और उनके राज्य में मुनिओ पर संकट कैसे, फिर दूसरा आश्चर्य से हुआ की मुझे ऋद्धि प्राप्त है, गुरु बोल रहे है मेरे पास विक्रिया ऋद्धि है फिर वो अपना हाथ आगे बढाते है तो वो उनका हाथ पर्वतो को पार करता हुआ, समुद्रो को पार करता हुआ, मनुष्य लोक की अंतीं सीमा तक चला गया और फिर उन्होंने वापस कर लिया हाथ को और समझ गए मुझे ये ऋद्धि तो प्राप्त है, तब विष्णुकुमार मुनि सोचते है ऐसे मुनि पर किसने उपसर्ग किया, कौन इनका दुश्मन बना हुआ है, ठीक है उन मुनिओ का कर्म उदय है लेकिन निमित्त भी कुछ प्रतिकूल बन गया है!

फिर विष्णुकुमार मुनि वहा से तत्काल हस्तिनापुर के लिए विहार कर देते है और उनके मन में भाव ये आता है की ये सहधर्मी है, जो किसी प्राणी को पीड़ा नहीं पहुचाते है, उनके साथ किसने दुर्व्यवहार किया, फिर सोचते है सबसे पहले तो राजा को मिलना पड़ेगा, राजा के पास मिलते है तो राजा से मिलने जाते ही, उनका बड़ा सत्कार किया है है..., द्वारपाल भी देखती समझ जाता है ये तो राज्य के राजा है और अब मुनि है, फिर विष्णुकुमार मुनि पूछते है राजा से तुम्हारे होते हुए मुनि पर इतना बड़ा संकट क्यों आया, राजा पद्म निवेदन करता है की अगर मैं राजा होता तो कभी ये नहीं होने देता लेकिन अभी मेरा राज्य सात दिनों के लिए उन मंत्रियो के पास है मैं कुछ भी नहीं कर सकता कृपया आप कुछ करे, हम बहुत परेशां है तो विष्णुकुमार मुनि बोलते है, हमें जानकारी मिल गयी हम देखते है, तब विष्णुकुमार मुनि वहा जाते है और सोचते है मुझे कुछ ऐसा ही उपाए करना चाहिए मेरे पास विक्रिया ऋद्धि भी है, तो वो अपना रूप बदल कर वामन का रूप धारण करते है यही छोटी आकृति वाला और ब्रह्मण का वेष धारण करते है, और वहा जाकर सुबह होने वाली थी तो वहा जाकर बड़ी सुन्दर आवाज में वीणा को लेकर वेदपाठ प्रारम्भ करते है, और ऐसा वेदपथ आज तक बलि आदि मंत्रियो ने आज तक कभी नहीं सुना था...और एक दम उठकर बहार निकलते है और वो सोचते है इतना छोटा सा ब्रह्मण और इतना सुन्दर वेदपाठी, और इस समय क्यों कर रहा है, और वो बहुत अच्छे से उसका स्वागत करते है और पूछते है हे विप्र क्या चाहते हो आप, इतना सुन्दर वेदपाठ सुनकर हम प्रसन्न होगये, आज किमिचिक दान का दिन है आपको जो माँगना है वो मांगलो, तब वो बोलते है क्या आप दे सकते है कुछ तो, मंत्री बोलते है आज आप जो मर्ज़ी मांग सकते है, हम यहाँ के राजा है आपको क्या चाहिए गाये, सोना, संपत्ति, क्या चाहिए, तब विष्णु कुमार बोलते है, हमें संपत्ति तो नहीं चाहिए लेकिन तीन डग जमीन चाहिए कुछ कारण से, तो बलि आदि मंत्री बोलते है आपने बहुत कम माँगा है ज्यादा मांगो, तब विष्णुकुमार मुनि बोलते है आप इतना ही देदो, तब फिर वो दान की प्रतिज्ञा की विधि होती है वो मन्त्र पाठ के साथ वो जल धरा के साथ वो विधि पूरी की जा रही थी तब बलि ने कहा अपना हाथ आगे करो तो फिर विष्णुकुमार मुनि ने हाथ आगे किया तब उनका हाथ चांदनी रात में देख कर गुलाबी हाथ, उंगलिया लम्बी लम्बी, अंगूठे पर यव का चिन्ह था, और हाथ पर कलश, शंख चक्र आदि सुन्दर सुन्दर चिन्ह थे, और उर्ध रेखाए थी, तब उस हाथ को देख कर उन मंत्रियो में से जो शुक्र जो मंत्री था वो ज्योतिश्चार्य था, तब वो बोला रुको, इसके हाथ पर जो चिन्ह है ऐसे हाथ वाला कभी किसी के सामने कभी हाथ नहीं फैलता, ये वो हाथ है जिससे माँगा जाता है, दूसरा मंत्री बोला उस मंत्री को की तुम कैसा पागल वाली बात करते हो, ये प्रत्यक्ष मांग रहा है और तुम बोलते हो ये कभी मांग नहीं सकता, तो उसकी बात पर ध्यान ने देते हुए वो प्रतिज्ञा पूरी होती है फिर विष्णु कुमार मुनि बोलते है "ले बलि मैं तीन डग जमीन नापता हूँ "और ऐसा बोलते ही शरीर का आकर बढ़ना प्रारंभ हो जाता है, और इतना विशाल हो जाता है की ज्योतिष पटल [तारा मंडल ] से उनका सर टकराता है, फिर वो 1 पैर तो जम्बूदीप की वेदी पर रखते है, दूसरा सुमेरु पर्वत पर रखते है यानी 2 पैर में वो सुमेरु पर्वत से मानसोत्तर पर्वत तक पूरा मनुष्य लोग उन्होंने नाप लिया, अब तीसरा पैर के लिए कोई स्थान ही नहीं है तो पैर हवा पर लहरा रहा है तो देव लोग में हलचल मच गयी, मध्ये लोग के देवता लोग भी घबरा गाये, उन सबने विचार किया, अगर अभी इन साधू को शांति नहीं किया तो उनकी नज़र मात्र से तीनो लोक कंपित हो सकते है, और अकाल में प्रलय की स्थिति उत्पन्न हो सकती है, तो किसी ने बताया ये संगीत प्रेमी थे तो देव लोग उनको शांत करने के लिए चार वीणा मंगवाते है, और फिर वीणा से इतना सुन्दर संगीत बजाते हुए क्षमा के गीत गाते है, तब मुनिराज को लगता है उनको क्षमा करो, इतना गर्म होने की बात नहीं, तो फिर वो सामान्य आकर में खड़े हो जाते है, मतलब आपने सामान्य रूप में विष्णु कुमार मुनि वाला, तो जब उस आकर में विष्णुकुमार मुनि को देखता तो सोचता है अरे ये तो दिगंबर मुद्रा है, ये साधू है, और आश्चर्ये में पड़ जाता है जैन साधु में इतनी क्षमता, की दो डग में पूरा लोग नाम लिया और मैं बड़ा दान वीर बना था, और अब देवताओ ने बलि आदि मंत्री को बधन में डाल दिया तो इन मुनिराजो के चरणों में आकर माफ़ी मांगता है!

बोलता है मेरा जो आप साधुओ के लिए द्वेष था वो अनर्थक था, और वो अनुचित था, मैं ह्रदय से क्षमा प्रार्थी हूँ, आप मुझे कुछ कुछ उपदेश दीजिये, तो मुनिराज उसको क्षमा करदेते है और उसकी भावना होती है की मैं जैन व्रतों को अंगीकार करू, दूसरी तरफ उन मुनिराजो का उपसर्ग देवता लोग मिटा देते है, और सब कुछ ठीक हो जाता है लेकिन जो धुआ उन मुनिराजो के अन्दर चला गया था तो उनको बहुत तकलीफ होरही था, फिर जब दिन निकलता है पूर्णिमा के दिन महाराज जी आहार के लिए जाते है, तब श्रावक लोग बहुत विवेकी थे, तो उन्होंने ऐसा आहार निर्माण किया जिससे इनकी कंठ की पीड़ा को हरा जा सके, क्योकि महाराजो की स्थिति कंठगत जसी स्थिति थी, तब इनको मुनिराजो को खीर का आहार दिया और उसमे घी डाला, और इस तरह से बनाया की महाराज जी के गले का उपचार होजाये, उस समय बहुत ज्यादा लोग आहार देने के लिए खड़े थे, सोचो वो हस्तिनापुर चक्रवर्ती की नगरी, बहुत ज्यादा लोग आहार देना चाहते थे, आज कल भी जब गुरुवर के चोके लगते है तो कितने ही चोके खाली जाते है, लेकिन जिसका चोका चली गया उसको चिंता की बात नहीं, क्योकि उसने भावो के पुण्य तो कमा ही लिया, क्योकि उसका भावना थी गुरु को आहार दू, भले ही आज आहार नहीं दे पाया!

जैन ग्रंथो की अनुसार आहार दान की विधि अलग है, "मेरे यहाँ जो आहार बने वो ऐसा भोजन हो जिसमे से मैं साधु को दे सकू" ऐसे ऐसी भावना श्रावक के है तो वो महान पुण्य कमालेता है, और यदि श्रावक की ये भावना है की आज मैं स्पेशल महाराज जी ने लिए तैयारी करू, तो महाराज जी के संकल्प से आप भोजन तैयार करते है तो उसमे आपको भी दोष लगेगा और महाराज जी को भी दोष लगेगा, क्योकि महाराज जी को संकल्पित भोजन लेने का निषेध है, सहज जो श्रावक ने अपने लिए भोजन बनाया है उसमे से अगर देता है तो वो तो स्वीकार है, अगर कोई हमसे पूछे आहार वाले दिन की ये आप क्या कर रहे है तो आप बोलते है आज महाराज जी का आहार है हम उनके लिए ये सब घी, दूध, की व्यवस्था कर रहे है जबकि आपका भाव होना चाहिए मैं भोजन ऐसा बनाऊ अगर महाराज जी आये तो वो भी लेसके नहीं तो मैं तो भोजन करूँगा ही, क्योकि साधु का दोष तो हो सकता है साधु तपस्या से ख़तम भी करदे, लेकिन सही पुण्य का जो उपार्जन होता है वो सिर्फ अपने विचारो का खेल है, साड़ी व्यवस्था दोनों के करते है एक का विचार है "महाराज के लिए" दुसरे का विचार है "इसमें से महाराज को दिया जा सके" जिनवाणी बोलती है पुण्य तब लगता है जब अपनी चीज़ आप दान दो, एक बार ऐसी भावना के साथ आहार दे कर देखो तब आपको पता चलेगा, क्योकि सारी बाते सुनने से अनुभव में नहीं आसकती है, इधर भावना है की अपने आहार में से मैं साधु को आहार दू और दूसरी तरफ भावना ये है की साधु के लिए मैं आहार बना रहा हूँ!

हमें यहाँ पर विवेक से भी कार्य करना चाहिए, क्योकि यहाँ पर सिर्फ वैसा ही मान लिया की "सहज जो श्रावक ने अपने लिए भोजन बनाया है उसमे से अगर देता है तो वो तो स्वीकार है" तो औषधिदान की व्यवस्था नहीं बन पायेगी क्योकि परिस्थिति के कारण हमें विवेक को प्रयोग करना चाहिए, इसका सबसे अच्छा उदाहरण विष्णुकुमार मुनि की कथा ही है, पूरी हस्तिनापुर नगरी में आहार के चोके लगे थे, सबको पता था यही मुनिराज आएंगे, और सबने वही खीर का आहार तैयार किया था...तो भी उनके कोई दोष नहीं था, फिर इसी तरह अगर कोई महाराज जी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है तो उनको उनके स्वास्थ्य के अनुकूल ही आहार देना चाहिए, और ऐसी भावना में तो मुनि के रत्न-त्रय के सुरक्षा की भावना ही है, तो इसमें उन् मुनिराज के निमित से औषधि को भोजन रूप में देने पर भी दोष नहीं लगेगा, फिर अगर कोई महाराज जी नमक नहीं लेते तो फिर कैसे होगा और सोचो अगर किसी मुनिराज को बुखार आगया तो हम उनके लिए औषधि के साथ उनके स्वास्थ्य के लिए संगत आहार तैयार करेंगे, तो दशा में उस आहार को भी दोषित मानना पड़ेगा क्योकि वो उन एक मुनिराज के लिए ही तैयार किया गया था लेकिन ऐसा नहीं होता...तो इस तरह हमें विवेक से ही कार्य करना चाहिए!

अब वहा पे जो आहर दान दिए तो उस आहार से मुनि महाराजो के गले में शांति हुई. तो वोह आहर में खीर दे गया जिससे उनके कंठो में आराम मिला... तो यहाँ पे तैय्यारी तो पूरी नगरी ने की थी तो सब घरो में मुनि के चोके हो सके ऐसा तो मुमकिन नहीं था तो वहा पे सब घरवालो ने एक दुसरे को भोजन का आमंत्रण दिया और एक दम वात्सल्य, भावुक वातावरण बन गया. अंत में लोगो ने एक दुसरे के हाथो में पतला सा धागा सूत्र बांधा और संकल्प, कसम खायी की कभी भी देव शास्त्र गुरु पे संकट आयेगा तो सब मिलकर उनका सामना करेगे. तो विष्णुकुमार मुनि उनके गुरु के पास जाते हे और उनको बोलते है मैंने रूप भी बदला है तो प्रायश्चित लेते हे. और अंत में वो उसी भव में धातिया और अधातिया कर्मो के नाश कर कर उसी भव में मोक्ष जाते हे... तो उस लिए यहाँ पे मोक्षगामी विष्णुकुमार मुनि की कथा वात्सल्य अंग में आती हे!

"कोई भोजन विशेष रूप से किसी महाराज की लिए बनाया जाये और वो उनको पता चल जाये या उनकी अनुमोदना हो तब ही वो दोष-पूर्ण है", आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने एक बार बताया था की "बहुत से प्राचीन ग्रंथो में आया है की जिस मुनिराजो को अवधिज्ञान रहता है उनको आहार के समय या उससे पहले अवधिज्ञान लगाने से मना किया है, क्योकि अगर वो उस समय अवधिज्ञान लगाए तो उनको सब पता चल जायेगा आहार के बारे में और ये आहार भी उद्दिस्ट नहीं रह पायेगा,..."

आज काफी लोग को मानना हे की विष्णु कुमार ने जो भी किया था वोह उचित नहीं था. वोह 6 वे 7 वे गुणस्थान वाले मुनि थे.अब जब क्षुल्लक जी ने समाचार दिए की 700 मुनि पर उपसर्ग हो रहा हे. तब उन्होंनेजो वेश धारण किया था उसके कारण से वो 5 वे गुणस्थान में आगये थे तो वो उचित काम नहीं था ऐसा आज के कई विद्वान लोग का मानना हे. अगर विष्णुकुमार मुनि यह जानने पर भी कुछ न करते और ऐसा सोचते की मेरे को ध्यान में ही बेठने दो जो भी होगा वो उनके पाप कर्मोदय के अनुसार होगा ऐसा मानकर चले होते तो वो सोचो उस समय उनकी आत्मा का क्या होता, उनका गुणस्थान 7 वे से सीधा 1 [मिथ्यात्व] पे आजाता तो ज्यादा कोनसा उचित है 7 वे में से 5 में आना या 1 गुनास्थान में आना. फिर ये जान लेने के बाद की मेरे में क्षमता है उपचार करने की... धवला की चोथी पुस्तक में आया है की उस समय जब वो वामन के रूप में थे उस समय उनका पंचम गुणस्थान था तथा आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज भी यही बोलते है और हदय में वात्सल्य भाव था इसी लिए ही गए उनको बचाने में... तो उससे बहेतर और अनुचित बात यह हे की इतने बड़े बड़े महान मुनि के किये अपनी जबान न चलाओ वो अच्छा हे... तो वो महान पुरुष को खाली नमन करो...और आचार्य जिनसेन ने लिखा हे की ऋद्धिधारी साधु में इतनी ताकत होती हे की वो चाहे तो सूर्य और चन्द्रमा को भी आकाश में विचलित कर सकते हे. समुद्र को हथेली के प्रहार से खाली कर सकते हे. अकाल में प्रलय उत्पन्न कर सकते हे और जिसमे मोक्ष की पात्रता नहीं हे उससे भी मोक्ष पात्र बना सकते है. तो सोचो की कितनी महान हस्ती हे ऋद्धिधारी मुनि... वो तो जरा सा ज्ञान क्या बढ़ जाता है इस प्राणी का तो वो बडबडाना चालू कर देता है और अपने से ज्यादा किसी को समझता नहीं, और कुछ भी मुनिओ के बारे में भी बोलने लगता है, आचार्य कुंद-कुंद स्वामी साक्षात् बोल रहे है पंचम काल के अंत तक भाव लिंगी मुनि होंगे, "भाव लिंग आपके ज्ञान का विषय ही नहीं है" इस तरह अगर कभी देव-शास्त्र-गुरु पर कभी कोई संकट आये और उस भक्त में क्षमता है तो अपनी विवेक बुद्धि के अनुसार कदाचित रक्षा कर सकता है! अगर आप देव-शास्त्र-गुरु की रक्षा करेंगे तो आपकी रक्षा होगी संसार सागर से डूबने से बचने में!

‎"कोई भोजन विशेष रूप से किसी महाराज की लिए बनाया जाये और वो उनको पता चल जाये या उनकी अनुमोदना हो तब ही वो दोष-पूर्ण है", आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने एक बार बताया था की "बहुत से प्राचीन ग्रंथो में आया है की जिस मुनिराजो को अवधिज्ञान रहता है उनको आहार के समय या उससे पहले अवधिज्ञान लगाने से मना किया है, क्योकि अगर वो उस समय अवधिज्ञान लगाए तो उनको सब पता चल जायेगा आहार के बारे में, तब ये आहार दोषपूर्ण हो जायेगा" ॐ शांति ॐ

ये रक्षा बंधन [वात्सल्य अंग कथा] लेख - क्षुल्लक ध्यानसागर जी महाराज (आचार्य विद्यासागर जी महाराज से दीक्षित शिष्य) के प्रवचनों से पर लिखा गया है! टाइप करने में हमसे कही कोई गलती हो गई हो उसके लिए हम क्षमा प्रार्थी है!

Sources
jinvaani.org

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