19.01.2012 ►Terapanth News 4

Published: 19.01.2012
Updated: 21.07.2015

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Amet: 19.01.2012

Arhat and Veetaraga are Ideals for Us: Acharya Mahashraman

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अर्हत वीतराग है। इनसे हमें जीवन उत्थान की प्रेरणा लेनी चाहिए- -आचार्य महाश्रमण 

आमेट। १९ जनवरी २०१२ जैन तेरापंथ न्यूज ब्योरो 


तेरापंथ धर्मसंघ के ११वें अधिशास्ता आचार्य महाश्रमण ने वीतरागता को मनुष्य के लिए बड़े आदर्श के रूप में परिभाषित करते हुए श्रावक-श्राविकाओं से आह्वान किया कि हमारे अर्हत वीतराग है। इनसे हमें जीवन उत्थान की प्रेरणा लेनी चाहिए। मनुष्य में वीतरागता का समावेश है तो वह धर्म का संदेश दे सकता है।

आचार्यश्री ने विचार यहां अहिंसा समवसरण में अमृत महोत्सव के अन्तर्गत चल रहे दर्शनाचार के साप्ताहिक प्रवचन माला के दूसरे दिन आदर्श कौन विषय पर आयोजित कार्यक्रम में श्रावक समाज को संबोधित करते हुए व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि केवली, अर्हत और सिद्ध में वीतरागता का प्रभाव देखने को मिलता है। इस दृष्टि से इसे आदर्श माना जा सकता है। जीवन में वीतरागता आए। इसके लिए आवश्यक है कि व्यक्ति ग्यारहवें गुणस्थान में जाने की बजाय बारहवें गुणस्थान की तरफ बढऩे का प्रयास करें। ग्यारहवें गुणस्थान में जाने से हम बढ़ते नहीं हैं, बल्कि नीचे गिर सकते हैं।

आचार्यश्री ने कहा कि आदर्श तो वही है जो अपने से कुछ ऊ ंचा हो। नीचा है उससे आदर्श की अपेक्षा नहीं की जा सकती। जहां पहुंचना अभिष्ट है उसे आदर्श माना जा सकता है। देखती दुनिया में भी यही हमारे आदर्श है। अर्हत में भौतिकता ओर आध्यात्मिकता का समावेश देखने को मिलता है। चक्रवर्ती भी बड़ा आदमी होता है। उसमें भौतिक संपदा तो खूब होती है, लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि से उसमें कमी रहती है। उन्होंने तीर्थंकर को पुण्य की प्रकृति के रूप में परिभाषित करते हुए कहा कि यह आध्यात्मिक चरित्र और धर्म पर व्याख्यान अथवा प्रवचन देते हैं। इसलिए तीर्थंकर को प्रवचनकार के रूप में स्वीकार किया गया है। 

सिद्धों की आत्मा को पूर्ण स्वस्थ बताते हुए उन्होंने कहा कि तीर्थंकर की आत्मा पूरी तरह से शुद्ध नहीं होती। तीर्थंकर संसारी अवस्था के प्राणाी और पूर्ण वीतरागता के पुरूष हैं। मनुष्य को भी प्रवचनकारी बनने का अधिकार प्राप्त करने की दिशा में प्रयास करना चाहिए। परम आदर्श की श्रेणी में सिद्ध को ही रहा जा सकता है। अर्हत को देव के रूप में भी स्वीकार किया गया है। आचार्य ने कहा कि स्व अर्थ से स्वार्थ शब्द बना है। अपना कल्याण करवाना इस श्रेणी में आता है। साधना कहीं भी रहकर की जा सकती है। महल, मंदिर, घर और शमशान कहीं भी। कुछ स्थान प्रसंग से जुड़े होते हैं तो लोग वहां जाने का प्रयास करते हैं। 

कई लोग अपने घरों में ही इष्ट देवों को स्थापित करते हैं। समाधि स्थल पर जाने के प्रसंग भी सामने आते हैं। वहां जाने से विलुप्त होती स्मृतियां ताजा हो जाती है। इस अवसर पर मुनि रमेशकुमार ने श्री चरणों से चले श्री चरणों में पहुंच गए यह हमारा भूगोल है शीर्षक से गीत का संगान कर अपनी भावना को प्रकट किया।

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Sushil Bafana

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