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Kharapar: 04.12.2012
Acharya Mahashraman during his Pravachan told people to do Nirjara. Nirjara is helpful to purify soul. Vihar is also part of Nirjara for us.
News in Hindi
तन को सजाने के बजाय खुद को बदले: आचार्य
सोमवार अलसवेरे आचार्य महाश्रमण बागुंडी गांव से विहार कर खारापार पहुंचे
खारापार गांव से 04 दिसम्बर 2012 जैन तेरापंथ न्यूज ब्योरो
तेरापंथ धर्मसंघ के आचार्य महाश्रमण के खारापार गांव में पहुंचने के बाद स्थानीय स्कूल में कार्यक्रम का आयोजन किया गया। कार्यक्रम में की शुरूआत समणी गौरवप्रज्ञा ने 'म्हारो मनड़ो ओ साधना में कद आसी? ओ तन रो आभास मनै कद मिलसी' की पंक्तियों से की। समणी निर्मलप्रज्ञा ने नैतिक जीवन के महत्व को बताते हुए कहा कि व्यक्ति को तन को सजाने के बजाय अपने आप को बदलने का प्रयत्न करना चाहिए। जो व्यक्ति अपने जीवन में नैतिकता को अपनाता है, वहीं अपने जीवन में आगे बढ़ पाता है। नवकार मंत्र के साथ प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए आचार्य महाश्रमण ने श्रावक-श्राविकाओं को संबोधित करते हुए कहा कि अध्यात्म की साधना में निर्झर की साधना अभिमत है। संबंद्ध व निर्झरा के सिवाय इसकी कोई साधना निर्दिष्ट नहीं है। निर्झरा भीतर के मन को धोने वाली साधना है। तपस्या के द्वारा पात कर्म का विच्छेद होने से जो आत्मा की निर्मलता प्रकट होती है वह निर्झरा होती है। हमारी आत्मा अनन्त काल से संसार में भ्रमण कर रही है। सभी प्राणियों की आत्माओं ने जन्म मरण कर चुकी है। विभिन्न जीवनों में आत्मा पुण्य के साथ पाप कर्म भी कर लेती है। पाप कर्मों को तोडऩे का कार्य निर्झरा का होता है। जैन वांगमय में निर्झरा का वर्णन है कि जीवन में तपस्या होनी चाहिए। तपस्या अलग-अलग तरीके से भी की जा सकती है जैसे सर्दी-गर्मी सहन करना, संयम का अभ्यास करना, पाद विहार करना आदि तपस्याएं हैं। सामान्य व्यक्ति अपने समय को बचाने के लिए पैदल चलने की बजाय किसी न किसी प्रकार के वाहन का उपयोग करता है। आचार्य ने कहा कि संयमपूर्वक अहिंसा के साथ चलना भी हमारी साधना है। पद यात्रा में चलते-चलते चींटी भी कदमों में आकर न मर जाए, यह जागरूकता रखना साधु का धर्म है। तपस्या जिसका धन है पैसा रूपया साधु के लिए धन नहीं है। साधु को आभूषित करने वाला धन है तो वह है अहिंसा, तपस्या, संयम, साधन, क्षमता आदि। यह धन साधुओं की संपदा होती है। साधु अहिंसा का पूजारी बना रहे। मंदिर में देवी-देवियों की प्रतिमा की पूजा की जाती है पर हमे अहिंसा माता की पूजा भी करनी चाहिए। जीवन को प्राण देने वाली माता अहिंसा है। तन, मन व वचन से किसी को दु:ख नहीं देने वाले साधु का दर्शन करने से व्यक्ति का पाप हल्का हो जाता है। आचार्य ने बाल मुनि के पौरसी का उल्लेख करते हुए का कि अणोद्री भी एक तपस्या है। खाते-पीते भी मोक्ष प्राप्ति की जा सकती है। नवकारसी भी एक तपस्या है। इन्द्रियों का संयम करना भी तपस्या है। उन्होंने बताया कि बालोतरा अक्षय तृतीय में पारणार्थियो की सूची लगभग 500 के करीब थी, जो हमारे संघ का अधिकतम तपस्याओं का रिकॉर्ड था। वचन के प्रहार जब कानों में जाते हंै, तो वह व्यक्ति के मन को विचलित कर देते हंै, लेकिन उन अपमान करने वाली गालियों को सुनकर उसे सहन करना भी तपस्या है और उसे सहन करके क्षमा करना उससे भी बड़ी तपस्या है। आचार्य ने कहा कि व्यक्ति को हर बात को ग्रहण नहीं करना चाहिए, उसे केवल अच्छी बातों का संचय करना चाहिए तथा बुरी बातों ग्रहण नहीं करना चाहिए। मन को हमेशा ही मंदिर बनाने का प्रयास करना चाहिए, उसे कूड़ादान नहीं बनाना चाहिए। मन को वश में करना भी एक तपस्या है। समय का सदुपयोग करते हुए खाली समय में साधना करनी चाहिए। जिस प्रकार से प्रतिदिन गल्ले में थोड़ा-थोड़ा डाले गए अर्थ से गल्ला पूरा भरा जा सकता है, उसी प्रकार प्रतिदिन किए गए थोड़े-थोड़े तप-पुण्य के कुंभ को भरने का प्रयास करते रहना चाहिए। आचार्य ने स्कूल के बालकों तथा ग्रामवासियों को नशामुक्त जीवन जीने का संदेश देते हुए उन्हें संकल्प दिलाया। उत्साहपूर्ण आचार्य सन्निधी में आए ग्रामीणों का जसोल चातुर्मास समिति के संयोजक गौतम सालेचा ने आभार व्यक्त किया। सरपंच लक्ष्मणराम चौधरी व प्रधानाध्यापक धुड़ाराम माखड़ ने आचार्य को वंदन करते हुए अपने विचार रखे। मुनि जितेन्द्र कुमार ने झूठ व सत्यता का पाठ् पढ़ाते हुए ईमानदारी, अहिंसा, संयम एवं समय प्रबंधन अपनाने का संदेश दिया। संचालन मुनि दिनेशकुमार ने किया।