Jhini Charcha Dhal 6 Part 1 by Jayacharya

Published: 22.03.2024
Jhini Charcha was  written by Acharya Jeetmal. It contains macro things of metaphysics.  Jain Terms like Leshya, Bhav, Gunsthan, Yog, Upyog have been discussed on basis of different Agam. He composed it in the form of poetry in an easy Rajasthani language. 
Noted Singer Babita Gunecha has presented it in a melodious voice. 
Jhini Charcha book contains 22 Dhal (Collection of 22 Poems) .
Dhal 6 Stanza 1 to 19

ढाल 6 पद्य 1 से 19

ढाल : ६

दूहा

१. आसव संवर जू-जुआ, किसे किसे गुणठाण?

न्याय सुणो चित निरमले, छट्टी ढाले छाण।।

किस गुणस्थान में पृथक्‌-पृथक्‌ कितने आश्रव और कितने संवर होते हैं? इसका न्याय-संगत विवरण छट्टी ढाल में किया गया है, उसे निर्मल चित्त से सुनो।

गुणस्थानों में आश्रव

✽रे मन प्यारा,

आसव संवर निर्णय करिये, वर ज्ञान विमल चित वरिये।। (ध्रुपद)

आश्रव और संवर का निर्णय करें और चित्त में विमल ज्ञान का वरण करें।

२. पहिले गुणठाणे आस्रव बीस, दूजे भेद कह्या उगणीस।

टलियो प्रथम मिथ्यात्व तमीस।।

प्रथम गुणस्थान में बीस✽ आश्रव होते हैं। दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व आश्रव नहीं होता, इसलिए उसमें उन्नीस आश्रव होते हैं।

३. तीजे बीस चोथे उगणीस, यां पिण टलियो मिथ्यात्व तमीस।

च्यार सम्यक्त सखर जगीस।।

तीसरे गुणस्थान में बीस आश्रव होते हैं। चौथे गुणस्थान में अन्धकारमय मिथ्यात्व नहीं होता, चार प्रकार के प्रकाशपूर्ण सम्यक्त्व१ होते हैं। अत: उसमें उन्नीस आश्रव पाए जाते हैं।

४. पांचमें उगणीस कहिवाय, देस-अव्रत नीं अपेक्षाय।

अव्रत आश्रव कहिये ताय।।

पांचवें गुणस्थान में भी उन्नीस आश्रव होते हें। उसमें अंशत: अव्रत होता है। उसकी अपेक्षा से अव्रत आश्रव की प्राप्ति होने के कारण वहां उन्नीस आश्रव कहे गए हैं।

५. छठे आसव कह्या अठार, टलिया मिथ्यात अव्रत धार।

किरिया दोय कही जगतार।।

छठे गुणस्थान में अठारह आश्रव होते हें-मिथ्यात्व और अब्रत ये दो छूट जाते हैं। उसमें भगवान्‌ ने दो क्रियाएं बतलाई हैं।

६. मायावतिया कषाय नीं ताहि, आरंभिया असुभ जोग कहिवाई।

भगवती पहिला सतक रै मांही।।

कषाय की दृष्टि से माया-प्रत्यया और अशुभ योग की दृष्टि से आरंभिकी, भगवती के प्रथम शतक (१/६७) के अनुसार यह कहा गया है।

७. सातमा गुणठाणां मांय, पंच आसव भेदज पाय।

कषाय जोग मन वच काय।।

सातवें गुणस्थान में पांच आश्रव होते हें-कषाय, योग, मन, वचन और काय।२

८. मायावतिया किरिया तिहां होय, आरंभिया असुभ जोग न कोय।

ए पिण पाठ भगोती में जोय।।

सातवें गुणस्थान में केवल माया-प्रत्यया क्रिया होती है। वहां अशुभ योग की प्रवृत्ति नहीं होती, इसलिए आरंभिकी क्रिया नहीं होती। यह भी भगवती (८/२२८) में बतलाया गया है।

€. अष्टम नवमां दशमां रे मांय, पांच आसव तेहिज पाय।

किरिया मायावतिया संपराय।।

आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थान में उपर्युक्त पांच आश्रव होते हैं। क्योंकि उनमें भी एक साम्परायिक माया-प्रत्यया क्रिया होती है।

१०. इग्यारमें हें आसव च्यार, जोग मन वच काय उदार।

असुभ आसव नो परिहार।।

ग्यारहवें गुणस्थान में चार आश्रव होते हैं-योग, मन, वचन और काय। (ये चारों शुभ होते हैं) वहां अशुभ आश्रव नहीं होता।

११. बारमें तेरमें पिण च्यार, जोग मन वच काय उदार।

चवदमें नहि आसव लिगार।।

बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में भी ये ही चार-योग, मन, वचन और काय आश्रव होते हैं। चौदहवें गुणस्थान में कोई आश्रव नहीं होता।

ईर्यावहि और संपराय

१२. क्रिया दोय कही जिणराय, इरियावही ने संपराय।

निसुणो हिवै एहनो न्याय।।

भगवान्‌ ने दो क्रियाओं का प्रतिपादन किया है-ईरयापथिकी और सम्पराय। अब उनका न्याय सुनो।

१३. दोय समय स्थिति सुखदाय, इरियावही किरिया कहिवाय।

बहु समय स्थिति संपराय।।

ईर्यापथिकी क्रिया की स्थिति दो समय बतलाई गई है। साम्परायिकी क्रिया की स्थिति दीर्घ काल की होती है।

१४. इरियावही हे पुन्य एकंत, संपराय तणो विरतंत।

पुन्य पाप कही भगवंत।।

ईर्यापथिकी क्रिया एकान्तत: पुण्य की क्रिया है तथा साम्परायिकी क्रिया पुण्य और पाप दोनों से संबद्ध है।

१५. दसमां ताई बंधे संपराय, तिण में पुन्य पाप बेह आय।
आगै इरियावही बंधाय।।

दसवें गुणस्थान तक साम्परायिकी क्रिया से पुण्य और पाप दोनों का बन्ध होता है। उससे अगले गुणस्थानों में ईयापथिकी क्रिया से (केवल पुण्य का) बन्ध होता है।

१६. ग्यारमें बारमें तेरमंत, इरियावही नो बंध पडंत।

चवदमें तो अबंध कहंत।।

ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान तक ईर्यापथिकी क्रिया से बन्ध होता है और चौदहवां गुणस्थान अबन्ध है। उसमें किसी कर्म का बन्ध नहीं होता।

१७. केइ कहे पाप-संपराय, ए तो परतख ही देखाय।

पिण पुन्य किसा सूत्र मांय ?

कुछ लोग कहते हें-साम्परायिकी क्रिया पाप है, यह तो प्रत्यक्ष हे, आगम के अनेक स्थलों में उपलब्ध है। पर वह पुण्य है, इसका उल्लेख किस सूत्र में मिलता है?

१८. इरियावही अने संपराय, साता-वेदनी माहे सुहाय।

पन्नवणा तेबीस में पाय।।

प्रज्ञापना के तेईसवें पद (सूत्र ६३) के अनुसार ईर्यापथिकी और साम्परायिकी-इन दोनों क्रियाओं का सात वेदनीय में समावेश किया गया है।

१९. इण न्याय पुन्य संपराय, वलि पाप संपराय कहिवाय।

भगवती सातमें पहिला मांय।।

उक्त न्याय से साम्परायिकी क्रिया पुण्य हे और भगवती के सातवें शतक के प्रथम उद्देशक (सूत्र २१) में साम्परायिकी क्रिया को पाप कहा गया है।
Sources
From: Sushil Bafana
Provided by: Sushil Bafana
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