Jhini Charcha Dhal 6 Part 2 by Jayacharya

Published: 25.03.2024
Jhini Charcha was  written by Acharya Jeetmal. It contains macro things of metaphysics.  Jain Terms like Leshya, Bhav, Gunsthan, Yog, Upyog have been discussed on basis of different Agam. He composed it in the form of poetry in an easy Rajasthani language. 
Noted Singer Babita Gunecha has presented it in a melodious voice. 
Jhini Charcha book contains 22 Dhal (Collection of 22 Poems) .
Dhal 6 Stanza 20 to 39

ढाल 6 पद्य 20 से 39
२०. इम संपराय पुन्य पाप, थिर जिन-वचनां चित थाप।

बले न्याय सुणो चुपचाप।।

इस प्रकार साम्परायिकी क्रिया पुण्य और पाप दोनों है। जिन-वाणी में अपने चित्त को स्थिरता से स्थापित करो और मौन भाव से इसका न्याय सुनो।

२१. पहिला सूं दशमां तांइ संपेख, असुभ आसव छे सुविसेख।

पाप-संपाय बंध देख।।

पहले से दसवें गुणस्थान तक अशुभ आश्रव होता है। वहां साम्परायिकी क्रिया से होने वाले पाप का बन्ध है।

२२. किहां मिथ्यात अव्रत पमाय, किहां असुभ जोग ने कषाय।

असुभ आसव सूं असुभ संपराय।।

पहले से दसवें तक के गुणस्थानों में किसी में मिथ्यात्व, अव्रत और प्रमाद होता है। तथा किसी में अशुभ योग और कषाय होता है। ये सब अशुभ आश्रव हैं। इनसे अशुभ साम्परायिकी क्रिया होती है।

२३. पहिला सूं दशमां ताय, सुभ जोगां सूं पुन्य बंधाय।

तिण ने कहिये पुन्य-संपराय।।

पहले से दसवें गुणस्थान तक शुभ योग से पुण्य बन्ध होता है, उसे पुण्य-सम्पराय कहा जाता है।

गुणस्थानों में संवर

२४. हिवै संवर नां भेद बीस, पहिला च्यार गुणठाणां न दीस।

आवता कर्म नाहि रुकीस।।

संवर के बीस१ भेद हैं। प्रथम चार गुणस्थानों में वे नहीँ होते। क्योंकि इनमें कर्माश्रव का निरोध२ नहीं होता।

२५. दूजे चोथे सम्यक्त पाय, पिण मिथ्यात त्याग्यां बिन ताय।

सम्यक्त-संवर कहीजे नांय।।

दूसरे और चौथे गुणस्थान में सम्यक्त्व प्राप्त होता है, फिर भी मिथ्यात्व का त्याग किए बिना उसे सम्यक्त्व संवर नहीं कहा जाता।

२६. पंचमें सम्यक्त-संवर पाय, सर्वव्रत तणी अपेक्षाय।

विरत संवर कहीजे नांय।।

पांचवें गुणस्थान में सम्यक्त्व संवर प्राप्त होता है, किन्तु वहां व्रत संवर नहीं होता। वह सर्व विरति होने पर ही होता है। प्रस्तुत गुणस्थान में सर्व विरति नहीं है, इस दृष्टि से वहां व्रत संवर नहीं है।

२७. पंचमें पांचूं चारित्र नांय, देश-चारित्र जुदो कह्यो ताय।

तिण सूं विरत-संवर न जणाय।।

पांचवें गुणस्थान में पांचों चारित्र१ नहीं होते। क्षयोपशम से निष्पन्न होने वाली उपलब्धियों में देश चारित्र को अलग से गिनाया गया है। इस अपेक्षा से प्रस्तुत गुणस्थान में व्रत संवर प्रतीत नहीं होता।

२८. पंचमे चारित्र-आत्मा नांहि, चारित्र आत्मा वाला ताहि।

कह्या संख्याता अर्थ रे मांहि।

पांचवें गुणस्थान में चारित्र आत्मा प्राप्त नहीं है। प्रज्ञापना के अर्थ में चारित्र आत्मा वाले संख्यात होते हैं, ऐसा बतलाया गया है।

२९. तिण सूं पंचम गुणठाणां मांहि, विरत-संवर न कह्यो ताहि।

सर्व-व्रत चारित्र नी अपेक्षाइ।।

इस दृष्टि से पांचवें गुणस्थान में सर्वव्रत चारित्र के अभाव में व्रत संवर की विवक्षा नहीं की गई है।

३०. देश-चारित्र नी अपेक्षाय, व्रत-संवर ने चारित्र सुहाय।

न्याय सूं कह्यां दोषण नांय।।

देश चारित्र की अपेक्षा से पांचवें गुणस्थान में व्रत संवर और चारित्र कहा भी जा सकता है। न्याय (अपेक्षा दृष्टि) से निरूपण करने में कोई दोष नहीं होता।

३१. छठे संवर कहिये दोय, सम्यक्त ने व्रत-संवर होय।

विरत-संवर चारित्र जोय।।

छठे गुणस्थान में दो संवर प्राप्त होते हैं-सम्यक्त्व संवर और व्रत संवर। क्योंकि उसमें पूर्णव्रत-संवर और चारित्र होता है।

३२. सातमें गुणठाणे सोभावे, पनरे भेद संवर ना पावे।

अशुभ जोग तिहां नहिं आवे।।

सातवें गुणस्थान में संवर के पन्द्रह भेद प्राप्त होते हैं। वहां योग अशुभ नहीं होते हैं। केबल शुभ ही होते हैं।

३३. अकषाय अजोग सुहाय, बले वश करे मन वच काय।

ए पांचूं संवर नहिं पाय।।

प्रस्तुत गुणस्थान में अकघाय, अयोग, मन, वचन और काय -ये पांच संवर प्राप्त नहीं हैं।

३४. आठमें नवमे दसमंत, पनरे भेद हे तंत।

पूरब कह्या ते पांचूं टलंत।।

आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थान में सातवें गुणस्थान की तरह संवर के पन्द्रह प्रकार प्राप्त होते हैं। पूर्व निर्दिष्ट पांच संवर उनमें नहीं होते।

३५. ग्यारमें सोले अजोग नांय, बले वश करे मन वच काय।

ए च्यारू संवर नहि पाय।।

ग्यारहवें गुणस्थान में संवर के सोलह प्रकार प्राप्त होते हैं। अयोग, मन, वचन और काय-ये चार संवर वहां नहीं होते।

३६. बारमें तेरमें सोल, चउदमें बीसूं बोल अडोल।

सिद्धां मांहि नांहि बीसूं बोल।।

बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में संवर के सोलह प्रकार प्राप्त होते हैं। चौदहवें गुणस्थान में सभी संवर -संवर के बीसों प्रकार प्राप्त हैं। सिद्ध आत्माओं में एक भी संवर नहीं होता।

३७. कोइ कहे चोथे गुणस्थान, सम्यक्त तो अधिक प्रधान।

तो सम्यक्त-संवर क्यूं नहिं जाण?

कोई कहता है चौथे गुणस्थान में सम्यक्त्व अधिक प्रधान है, फिर भी वहां सम्यक्त्व संवर क्यों नहीं होता?

३८. सिद्धां मांहि पिण सम्यक्त भावे, बिन त्याग संवर नहिं थावे।

तिम चोथे गुणठाणे न पावै।

(इसका समाधान है—) सिद्ध आत्माओं में सम्यक्त्व होता है, पर त्याग के बिना सम्यक्त्व संवर नहीं होता। चौथे गुणस्थान के लिए भी यही न्याय घटित होता है।

३९. छठी ढाल तत्त्व ओलखाय, भिक्खू भारीमाल ऋषराय।

तेह थी 'जय-जश' हरष सवाय।।

छठी गीतिका में तत्त्व की पहचान कराई गई है। भिक्षु, भारीमाल और ऋषिराय के प्रसाद से 'जय-जश गणपति' को अतिरिक्त हर्ष का अनुभव हो रहा है।

Sources
From: Sushil Bafana
Provided by: Sushil Bafana
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