30.10.2024:
आज भी प्रासंगिक है भगवान महावीर के सिद्धांत..... मुनि जिनेश कुमार
भगवान महावीर भारतीय संस्कृति के उज्ज्वल नक्षत्र थे। वे अपने युग के अप्रतिम व निर्भीक पुरुष थे। उन्होंने राजपाट, वैभव व सैन्यसत्ता बल को ठुकराकर आत्म साम्राज्य प्राप्त करने की दिशा में प्रस्थान कर दुनिया के लिए एक महान आदर्श स्थापित किया। उन्होंने तीस वर्ष की युवा वय में सन्यास के सुंदर उपवन में चरणन्यास किया। साढ़े बारह वर्ष तक साधना के सजग प्रहरी बनकर भीषण उपसर्गों, परीषहों को जीतकर समता की उत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त किया। तत्पश्चात श्रमण महावीर वीतरागी महावीर, केवली महावीर और तीर्थंकर महावीर बन गये।
तीर्थंकर महावीर ने जगत को हिंसा, अज्ञान, अंधश्रद्धा और कुमार्ग से अहिंसा, सम्यग ज्ञान, सम्यग श्रद्धा और सुमार्ग की और प्रस्थित करने के लिए व भव्य जीवों को तारने के लिए तीर्थ की स्थापना के साथ देशना (प्रवचन) देना प्रारम्भ किया। उनकी देशना अहिंसा से ओतः प्रोत थी। वे अहिंसा के कोरे व्याख्याकार ही नहीं अपितु प्रयोगकार भी थे। उन्होंने केवल अहिंसा का उपदेश ही नहीं दिया बल्कि स्वयं को उन्होंने अहिंसा को प्रयोग भूमि बनाया। अहिंसा की सूक्ष्मता के फल स्वरूप महावीर अहिंसा के और अहिंसा महावीर की पर्याय बन गई। उनके समवसरण में मनुष्य, तिर्यंच, देव सभी प्रकार के प्राणी समस्त वैर विरोध को भूलकर समान रूप से उपस्थित होते थे। यह सब अहिंसा का ही प्रभाव था।
तीर्थंकर महावीर अहिंसा के अवतार थे। उन्होंने तीस वर्ष तक भारत की पावन भूमि पर विचरण करते करते अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह रूप सिद्धांत त्रयी का प्रतिपादन किया। उनकी अहिंसा "मत मारो तक " सीमित नहीं है। उनकी अहिंसा आकाश की तरह व्यापक और असीम है। उनकी अहिंसा का अर्थ है-- "सव्वे पाणा ण हंतव्वा " प्राणी मात्र के प्रति संयम रखना, किसी का भी हनन नहीं करना है। "आयतुले पयासु" अपनी आत्मा के समान दूसरी आत्माओं को समझे, "अत्त समे मन्नेज्ज छप्पिकाए" छः जीव निकाय (पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस् काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रस काय) को अपनी आत्मा के समान समझे।
क्योंकि सभी जीव जीना चाहते है मरना कोई नहीं चाहता। किसी भी जीव को मारने का अधिकार हमें नहीं है। यदि कोई किसी का प्राण हनन करता है, उसका सुख छीनता है, वह हिंसा का भागी है। हिंसा कभी काम्य नहीं है। जंहा हिंसा है वंहा अंधकार है और जंहा अहिंसा है वंहा प्रकाश है। अहिंसा ही सभी जीवों के लिए कल्याणकारी है।
भगवान महावीर का दूसरा सिद्धान्त है - अनेकान्त
शरीर में जो स्थान मन और मस्तिष्क का है वह स्थान जैन दर्शन में अहिंसा और अनेकांत का है। अहिंसा आचार प्रधान है तो अनेकान्त विचार प्रधान । अनेकांत बौद्धिक अहिंसा है। इससे मनोमालिन्य व दूषित विचार नष्ट होते है तथा समता, सहिष्णुता, प्रेम, सहअस्तित्व, समन्वय के विमल विचारों के पुष्प महकने लगते है। अनेकांत का तात्पर्य है जो एकांत नहीं है वह अनेकात है। प्रत्येक पदार्थ में अनंत धर्म है। वह अनंतगुणों और विशेषताओं को धारणा करने वाला है। इन अनंत गुणों को जानने के लिए अपेक्षा दृष्टि की आवश्यकता रहती है। यह अपेक्षा दृष्टि ही अनेकान्तवाद है। इसे एक उदाहरण के माध्यम से अच्छी तरह समझ सकते है। दो मित्र फलों के बगीचे में गये। वहाँ उन्होंने वृक्ष से नारंगी तोडी और खाने लगे। नारंगी चखते ही पहला मित्र बोला - नारंगी बहुत खट्टी है। इतने में दूसरा मित्र बोला - नारंगी बहुत मीठी है। जब पहले मित्र ने दूसरे मित्र की प्रतिक्रिया सुनी तो वह इस बात पर क्रोधित हो उठा कि वह खट्टी वारंगी को मीठी क्यों बतला रहा है। पहले मित्र की बात सुनकर दूसरा मित्र भी क्रोधित हो उठा। याँ दोनों आपस में उलझ पड़े। दोनों का शोर सुनकर बगीचे का माली उनके पास आया और उसने झगड़े का कारण पूछा तब दोनों ने अपनी-अपनी बात माली को कह डाली। माली उनके अज्ञान पर हँसा और बोला - तुम दोनों सही हो। नारंगी खट्टी भी है और मीठी भी है। तब दोनों मित्र एक साथ बोल पड़े यह कैसे हो सकता है। तब माली ने पहले मित्र को नींबू व दूसरे मित्र को आम चखने के लिए दिया। पहला मित्र बोला नींबू बहुत खट्टा है और दूसरा मित्र बोला आम बहुत मीठा है। तब माली बोला आम की अपेक्षा नारंगी खट्टी है और नींबू की अपेक्षा नारंगी मीठी है। अनेकान्त दृष्टि से समस्या का समाधान पाकर दोनों खुश हो गए।
एकांगी दृष्टिकोण से आग्रह पनपता है और जहां आग्रह होता है वहाँ विग्रह, बिखराव, विघटन की स्थितियाँ बन जाती है। जिससे समस्याओं का अंबार लग जाता है। इन सभी परिस्थितियों से उत्पन्न होने वाली
समस्याओं का समाधान है भगवान महावीर द्वारा प्ररुपित अनेकान्त सिद्धान्त । अनेकान्त में वह शक्ति है जो दो विरोधी धर्मों के मध्य सामंजस्य बिठाकर शांति स्थापित कर देती है। इसलिए अनेकान्त को तीसरा नेत्र कहा गया है।
भगवान महावीर का तीसरा सिद्धान्त है - अपरिग्रह
परिग्रह अपराध का मूल है। आज दिन तक विश्व में जितने भी युद्ध हुए है उनमें मूल कारण परिग्रह ही रहा है। परिग्रह के कारण ही घर-परिवार व समाज में झगडे होते हैं। परिग्रह हिंसा का कारण है, मोह का आयतन है । ममकार और अहंकार बढ़ाने वाला है। भ्रष्टाचार, आतंकवाद, उग्रवाद, नक्सलवाद, चोरी, अप्रामाणिकता, धोखाधड़ी, तस्करी आदि परिग्रह के ही उपजीवी तत्व है। परिग्रह ही अन्याय की जड़ है। सामाजिक असंतुलन भी परिग्रह की असमानता के कारण ही होता है। जिससे वातावरण घृणा, ईर्ष्या, प्रतिशोध, वैर आदि से दूषित हो जाता है। और चारों ओर अराजकता व अशांति फैल जाती है।
भगवान महावीर ने अपरिग्रह का सिद्धान्त देकर विश्व शान्ति के द्वार खोल दिये। अगर दुनिया "अपरिग्रहो परमोधर्म" की राह पर चल पड़े तो बड़ी से बड़ी समस्याँए भी पलक झपकते हल हो सकती है। केवल भौतिक सामग्री को ही परिग्रह नहीं कहा गया है बल्कि उनके प्रति होने वाली मूर्च्छा को भी परिग्रह कहा गया है। और यही मूर्च्छा मानव मन को सर्वाधिक परेशान करती है। जितनी अधिक मूर्च्छा होगी उतनी ही अशांति और बैचेनी बढ़ेगी। जितनी मूर्च्छा, आकांक्षा और आवश्यकताएँ कम होगी धरती पर उतनी ही शांति कायम हो सकेगी।
भगवान महावीर अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह के महान प्रयोक्ता थे। उनका जीवन मंगल मैत्री से अनुप्राणित था। उनके कण-कण से करुणा का अजस्त्र स्त्रोत प्रवाहित होता था । इसीलिए उनके सिद्धान्त 2550 वर्ष बाद भी प्रासांगिक बने हुए हैं। उनके सिद्धान्तों की प्रासंगिकता कभी समाप्त नहीं हो सकती। क्योंकि उनके दिव्यज्ञान से निकले हुए सिद्धान्त समूचे जीव जगत के लिए कल्याणकारी है।
(भगवान महावीर के 2550 वे निर्वाण कल्याणक पर मुनि जिनेश कुमार जी (Muni Jinesh Kumar ji) की विशेष प्रस्तुति)