ShortNews in English
Tapara: 13.02.2013 Acharya Mahashraman said Sadhana can be done collectively and also single-handed. Collective Sadhana is possible under sect so Sangh gave shelter to all who want to do Sadhana.
News in Hindi
अंतर्मुखी दृष्टि से साधना में आगे बढ़ता है साधक: आचार्य
'गणं सरणं गच्छामि' विषय पर हुआ प्रवचन
टापरा (बालोतरा) 13 फरवरी 2013 जेन तेरापंथ न्यूज ब्योरो
'एक ओर प्रमुख मानकर चलो या एक आत्मा की ओर मुख करके चलो। अध्यात्म की साधना में जरुरी है कि साधक आत्ममुखी बन जाए, अंतर्मुखी बन जाए। बहिर्मुख होना साधना में कमी है, साधना के विकास में कमी है। अंतर्मुखी दृष्टि है तो साधक साधना में आगे बढ़ सकता है।' यह वक्तव्य तेरापंथ धर्मसंघ के आचार्य महाश्रमण ने मंगलवार को 'गणं सरणं गच्छामि' विषय पर टापरा में आयोजित धर्मसभा को संबोधित करते हुए व्यक्त किए।
उन्होंने कहा कि एकाकी साधना व संघबद्ध साधना का भी विधान है। एकाकी साधना का पथ वह व्यक्ति स्वीकार कर सकता है, जिसमें एकाकीत्व के लायक विशिष्ट अर्हता प्राप्त हो जाती है। आचार्य ने कहा कि संघबद्ध व एकाकी दोनों ही साधना का महत्व है। अर्हताशून्यता की स्थिति में एकाकी साधना अभिशाप बन जाती है और अर्हता होने पर एकाकी साधना वरदान है। एकाकी साधना कठिन साधना है। हम संघ की शरण में है, संघ हमारे लिए आश्वास, विश्वास है। जीवन की कठिनाइयों से संघ संभाल लेता है। जीवन में आदमी कभी-कभी पतनोन्मुख हो सकता है। उस पतन होने को उठाने वाला बड़ा उपकारी होता है। साधु जीवन में कभी अस्थिरता का भाव आ सकता है। वे महापुरुष है जो किसी को फिसलन से बचाते हैं, सहारा देते हैं। संघ में फिसलने से बचाने वाले मिल सकते हैं। गण हमारा आश्रयदाता है। साधना से च्युत होने की स्थिति आने पर संघ संभाल सकता है। संघ शारीरिक, मानसिक कठिनाई आने पर भी संभालता है। व्यक्ति बड़ा नहीं होता, संघ बड़ा होता है। कलियुग में संघ की शक्ति होती है। गण के महत्व के साथ गणपति का महत्व होता है। गण की शरण को छोडऩे का विचार कभी नहीं करना चाहिए। अभागा आदमी ही भैक्षव शासन को छोड़ता है। गण को छोडऩे वाले को आश्रय भी नहीं मिलता। गण के साथ गणपति के प्रति भी श्रद्धा, सम्मान की भावना होनी चाहिए। मन गुरु कृपा की इच्छा रखनी चाहिए। आचार्य ने कहा कि भैक्षवगण जिसकी अपनी व्यवस्था है। जहां चित्त समाधि का भी प्रयास होता है। ऐसा गण शरणदायी है। मंत्री मुनि सुमेरमल ने कहा कि गण के साधु-साध्वियां ज्यादा से ज्यादा अप्रमत भाव में रहते हैं तो गण तेजस्वी बनता है। अप्रमत भाव से आगे बढ़ते हैं तो वह संघ तेजस्वी होता है। वह गण महान तीर्थंकरों के द्वारा स्तुत्व होता है।