Acharya Shantisagar
❖ चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज का जीवन चरित्र तथा संस्मरण - ये नहीं पढ़ा तो क्या पढ़ा PART-2 रोज एक पार्ट शेयर होगा!! WITH RARE PHOTOGRAPHS ✿ share it maximum so that everybody can read precious life story...
सन 1955 में कुन्थलगिरी सिद्ध क्षेत्र से आचार्य शांतिसागर जी ने समाधी मरण को प्राप्त किया था, 36 दिन की सल्लेखना चली, 36 दिन की सल्लेखना में आचार्य श्री की साधना तथा बल बहुत विशिष्ट था, और उन्होंने लगभग 20 उपवास हो जाने के बाद एक अन्तिम उपदेश दिया था जो मराठी भाषा में था, वैसे तो आचार्य श्री मुक्तागिरी सिद्ध क्षेत्र में सल्लेखना करने का भाव रखते थे, लेकिन फिर कुन्थलगिरी सिद्ध क्षेत्र की तरफ उनका लक्ष्य परिवर्तित हो गया, महाराष्ट्र में 3 सिद्ध क्षेत्र है- गजपंथ, मांगी-तुंगी, कुन्थलगिरी! इनका जन्म कर्नाटक राज्य के अन्दर बिलकुल महाराष्ट्र की जो सीमा रेखा है उसके पास Yelagula, कोल्हापुर, महाराष्ट्र में हुआ था जो भोजग्राम से करीब 4km अन्दर आता है! इनके पिता का नाम भीमगोड़ा पाटिल तथा माँ का नाम सत्यवती था, ये पाटिल थे, गाँव के प्रमुख मुखिया जैसे माने जाते थे, जैन धर्मं की परंपरा थी इनके वंश में, और माता पिता भी संस्कारित थे, जब ये गर्भ में आए थे तो इनकी माँ को बहुत शुभ दोहला उत्पन्न हुआ था इनकी माँ की तमन्ना हुई थी की मैं 1000 पंखडी वाले 108 कमलो से मैं जिनेन्द्र देव की पूजा करू, ये भावना उत्पन्न हुई थी, फिर कमल पुष्प कोल्हापुर के राजा के सरोवर के यहाँ से मनवाए गए थे, फिर उन्होंने पूजा की थी, 9 वर्ष की उम्र में वहा बाल विवाह की प्रथा होने की कारण बालक सातगोड़ा का विवाह होगया था, लेकिन कर्म योग ऐसा था की उस कन्या जो 6 वर्ष की थी उसका अवसान होगा गया, अब ये अकेले रह गए फिर समय से साथ ये बड़े होते गए, इनका शरीर बहुत बलवान था, सामान्य व्यक्ति से अधिक शक्ति इनके शरीर में थी, बोरे उठा लेना, जब बैल थक जाते था तो ये अपने कंधो पर ही वो रस्सिया लेकर पानी कुँए से खीच लेते थे क्योकि जब कुँए से पानी लेने के लिए बैल का इस्तमाल किया जाता था, जब सातगोड़ा शिखर जी के यात्रा के लिए गए तो इन्होने देखा की एक बूढी माता जो शिथिल शरीर होने के कारण बहुत धीरे धीरे यात्रा कर रही थी तो इनको ऐसा भाव आया की इनको मैं वंदना कर देता हूँ, और इन्होने उनको अपने कंधे पर लेकर पूरी यात्रा करा दी!
सातगोड़ा जी के गाँव के पास बहुत सी नदिया बहती थी, तो जब कोई मुनिराज आते थे तो नदी पार करके आना पड़ता था, क्योकि अगर घुटने से उपर पानी में मुनिराज को अगर नदी पार करना पड़े तो उस प्रयाशिचित करना पढता है और वो प्रायश्चित पानी जितना ज्यादा होता था उतना जी ज्यादा होता था इसलिए! तो ये नदी के पार चले जाते थे तथा आदिसागर जी महाराज जी को अपने कंधे पर बिठा कर नदी पार करा देंते थे, और फिर वापस छोड़ कर भी आते थे, फिर महाराज से निवेदन करते थे की “मैं तो आपको नदी पार करा रहा हूँ, आप मुझे संसार सागर पार करा देना” तो इस प्रकार उनका बाल्यकाल बहुत अच्छे संस्कार के साथ निकला!
SOURCE: ये जीवन चरित्र तथा संस्मरण क्षुल्लक ध्यानसागर जी महाराज (आचार्य विद्यासागर जी महाराज से दीक्षित शिष्य) के प्रवचनों के आधार पर लिखा गया है! टाइप करने में मुझसे कही कोई गलती हो गई हो उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ! - Nipun Jain [ ADMIN ]