❖ सल्लेखना -कब क्यों और कैसे? ❖
जैन समाज में यह पुरानी प्रथाहै कि जब व्यक्ति को लगता है कि वह मौत के करीब है तो खुद को कमरे में बंद कर खाना-पीना त्याग देता है। जैन शास्त्रों में इस तरह की मृत्यु कोसंथारा कहा जाता है। इसे जीवन की अंतिम साधना भी माना जाता है, जिसके आधार पर व्यक्ति मृत्यु को पास देखकर सबकुछ त्याग देता है।
जबरदस्ती बंद नहीं किया जाता अन्नसंपादित करें
ऐसा नहीं है कि संथारा लेने वाले व्यक्ति का भोजन जबरन बंद करा दिया जाता हो। संथारा में व्यक्ति स्वयं धीरे-धीरे अपना भोजन कम कर देता है। जैन-ग्रंथों के अनुसार, इसमें व्यक्ति को नियम के अनुसार भोजन दिया जाता है। जो अन्न बंद करने की बात कही जाती है, वह मात्र उसी स्थिति के लिए होती है, जब अन्न का पाचन असंभव हो जाए।
इसके पक्ष में कुछ लोग तर्क देते हैं कि आजकल अंतिम समय में वेंटिलेटर पर शरीर का त्याग करते हैं। ऐसे में ये लोग न अपनों से मिल पाते हैं, न ही भगवान का नाम ले पाते हैं। यूं मौत का इंतजार करने से बेहतर है, संथारा प्रथा। धैर्य पूर्वक अंतिम समय तक जीवन को सम्मान के साथ जीने की कला।
संथारा एक धार्मिक प्रक्रिया है, न कि आत्महत्यासंपादित करें
जैन धर्म एक प्राचीन धर्म हैं इस धर्म मैं भगवान महावीर ने जियो और जीने दो का सन्देश दिया हैं जैन धर्म मैं एक छोटे से जीव की हत्या भी पाप मानी गयी हैं, तो आत्महत्या जैसा कृत्य तो महा पाप कहलाता हैं। किसी भी धर्म मैं आत्महत्या करना पाप मान गया हैं।
आम जैन श्रावक संथारा तभी लेता हैं जब डॉक्टर परिजनों को बोल देता है की अब सब उपरवाले के हाथ मैं हैं तभी यह धार्मिक प्रक्रिया अपनाई जाती हैं इस प्रक्रिया मैं परिजनों की सहमती और जो संथारा लेता ह उसकी सहमती हो तभी यह विधि ली जाती हैं। यह विधि छोटा बालक या स्वस्थ व्यक्ति नहीं ले सकता हैं इस विधि मैं क्रोध और आत्महत्या के भाव नहीं पनपते हैं। यह जैन धर्म की भावना हैं इस विधि द्वारा आत्मा का कल्याण होता हैं। तो फिर यह आत्महत्या कैसे हुई।हम राजस्थान हाई कोर्ट का सम्मान करते हैं पर इस फेसले को गलत भी कहते है की यह फेसला जैन धर्म की परम्परा को आघात पहुचता हैं।
विचारसंपादित करें
(1) समाधि और आत्म हत्या मे अति सूक्ष्म भावनिक बडा अन्तर है!
(2) समाधि मे समता पूर्वक देह आदि संपूर्ण अनात्म पर प्रति उदासीन रहना होता है!
(3) आत्म हत्या अर्थात इच्छा मृत्यु मे मन संताप (संक्लेश)चिन्ता, प्रति शोध,नैराश, हताश,,परापेक्षाभाव,आग्रह आसक्ति जैसी दुर्भावना होती है ।
(4)जैन साधु व साध्वी असाध्य रोग होने पर ओषध उपचार करने पर भी शरीर काल क्रमश: अशक्त होने पर निस्पृह भाव पूर्वक आत्म स्थित होते है ।
(5) ऐसी स्थिति मे आरोग्य व अहिंसक आचरण के अनुकूल आहार पानी व उपचार स्विकार करते है ।
(6)भोजन व पानी छोड कर मृत्यु का इंतजार नही किया जाता है, अपितु शरीर इसे अस्वीकार करता है तब इसे जबरन भोजन पानी बंद करते है, अथवा बंद हो जाता है ।
(7) जैन दर्शन अध्यात्म कर्म सिध्दांत का अध्ययन किए बिना जैन आचार संहिता पर आक्षेप करना वैचारिक अपरिपक्वता का सूचक है ।
(8) यह कभी नही भूले इन्सान के लिए कानून है, कानून के लिए इन्सान नही है ।
(9) राजस्थान उच्च न्यायालय के फैसले से सकल श्वेतांबर व दिगम्बर जैन साधु साध्वी एवं इनके करोडो अनुयायियो का मन आहत हुआ है ।
(10) दिगम्बर जैन शास्त्र अनुसार समाधि या सल्लेखना कहा जाता है, इसे ही श्वेतांबर साधना पध्दती मे संथारा कहा जाता है ।
(11) कुछ लोग खाने के लिए जीते है, कुछ लोग जीने के लिये भोजन करते है, लेकिन आत्मोपलब्धि के आराधक सत्कार्य के लिए आहार पानी ग्रहण करते है ।
(12) भारतीय संस्कृति मे आत्मा को अमर अर्थात नित्य सनातन माना गया है ।
(13) जैन साधुओ से परामर्श व जैन आचार संहिता का ष किए बिना अपने विचार दूसरो पर लादना यह भी कानून बाह्य हरकत है ।
(14)न्याय के मन्दिर मे बैठे महानुभावों को नम्र निवेदन की जैन अध्यात्म तत्व, रिष समुच्चय तथा भगवती आराधना ग्रन्थ का अध्ययन करे ।
जैन धर्म में सबसे पुरानी कही जाने वाली संथारा प्रथा (सल्लेखना) पर राजस्थान हाईकोर्ट द्वारा लगाई गई रोक के बाद सोमवार को पूरे देश में इस समाज के लोग प्रदर्शन करेंगे। संथारा प्रथा पर हमेशा विवाद रहा है। जैन समाज में इस तरह से देह त्यागने को बहुत पवित्र कार्य माना जाता है।
जैन समाज में यह हजारों साल पुरानी प्रथा है। इसमें जब व्यक्ति को लगता है कि उसकी मृत्यु निकट है तो वह खुद को एक कमरे में बंद कर खाना-पीना त्याग देता है। जैन शास्त्रों में इस तरह की मृत्यु को समाधिमरण, पंडितमरण अथवा संथारा भी कहा जाता है। इसका अर्थ है- जीवन के अंतिम समय में तप-विशेष की आराधना करना। इसे अपश्चिम मारणान्तिक भी कहा गया है। इसे जीवन की अंतिम साधना भी माना जाता है जिसके आधार पर साधक मृत्यु को पास देख सबकुछ त्यागकर मृत्यु का वरण करता है। जैन समाज में इसे महोत्सव भी कहा जाता है।
जब जीवन ना उम्मीद हो जाए
जैन धर्म के शास्त्रों के अनुसार यह निष्प्रतिकार-मरण की विधि है। इसके अनुसार जब तक अहिंसक इलाज संभव हो, पूरा इलाज कराया जाए। मेडिकल साइंस के अनुसार जब कोई अहिंसक इलाज संभव नहीं रहे, तब रोने-धोने की बजाय शांत परिणाम से आत्मा और परमात्मा का चिंतन करते हुए जीवन की अंतिम सांस तक अच्छे संस्कारों के प्रति समर्पित रहने की विधि का नाम संथारा है। इसे आत्महत्या नहीं कहा जा सकता। इसे धैर्यपूर्वक अंतिम समय तक जीवन को ससम्मान जीने की कला कहा गया है।
इसलिए संथारा बेहतर
आजकल इलाज के नाम पर व्यक्ति को वेंटिलेटर पर रखकर न तो अपनों से मिलने दिया जाता है, न भगवान का नाम सुनने-सुनाने की छूट दी जाती है। बस उसे निरीह प्राणी की तरह मौत का इंतज़ार करते हुए तिल-तिल करके मरने को छोड़ने को ही यदि इलाज कहते हैं तो इससे तो हमारा संथारा हजार गुना बेहतर है। जब तक कोई वास्तविक इलाज संभव हो, तो जैन धर्म भी उस अहिंसक इलाज को कराने का ही निर्देश देता है। संथारा लेने को नहीं कहता है। तब फिर इसे आत्मघात किस आधार पर कहा जा रहा है।
जबरन नहीं किया जाता भोजन बंद
ऐसा नहीं है कि संथारा लेने वाले व्यक्ति का भोजन जबरन बंद करा दिया जाता हो। संथारा लेने वाला व्यक्ति स्वयं धीरे-धीरे अपना भोजन कम कर देता है। जैन-ग्रंथों में स्पष्ट लिखा है कि उस समय यदि उस व्यक्ति को नियम के अनुसार भोजन दिया जाता है, जो अन्न बंद करने की बात कही जाती है, वह मात्र उसी स्थिति के लिए होती है, जब अन्न का पाचन असम्भव हो जाए। यहां ये उल्लेखनीय है कि संथारा में अन्न छोड़ने को जैन धर्म में किसी भी उपवास के तहत नहीं माना गया है। अतः इसे उस श्रेणी में जब माना ही नहीं गया, तो इसे धर्म के अंतर्गत कैसे लिया जा सकता है। यह तो मात्र स्वास्थ्य की सुविधा के लिए की गई व्यवस्था है। जब स्वास्थ्य के हित में की गई व्यवस्था है तो उसे आत्महत्या कैसे कहा जा सकता है?
फैला रखा है भ्रम
आजकल अस्पताल में डाइटीशियन मरीज की शारीरिक हालात और बीमारी देखकर उसकी डाइट निर्धारित करते हैं। इसी प्रकार जैनग्रंथों में बीमार व्यक्ति की बीमारी, शारीरिक स्थिति आदि को देखते हुए उसे कैसा भोजन दिया जाए इसके निर्देश दिए गए हैं। लोगों ने संथारा के बारे में भ्रम फैला दिया कि जैन धर्म में सती-प्रथा की तरह धर्म के नाम पर अन्न जल छोड़कर मर जाने को संथारा कहा गया है।
संथारा को इस तरह भी समझा जा सकता है
जैन धर्म के अनुसार आखिरी समय में किसी के भी प्रति बुरी भावनाएं नहीं रखीं जाएं। यदि किसी से कोई बुराई जीवन में रही भी हो, तो उसे माफ करके अच्छे विचारों और संस्कारों को मन में स्थान दिया जाता है। संथारा लेने वाला व्यक्ति भी हलके मन से खुश होकर अपनी अंतिम यात्रा को सफल कर सकेगा और समाज में भी बैर बुराई से होने वाले बुरे प्रभाव कम होंगे। इससे राष्ट्र के विकास में स्वस्थ वातावरण मिल सकेगा। इसलिए इसे इस धर्म में एक वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक विधि माना गया है।
इसलिए संथारा बेहतर
आजकल इलाज के नाम पर व्यक्ति को वेंटिलेटर पर रखकर न तो अपनों से मिलने दिया जाता है, न भगवान का नाम सुनने-सुनाने की छूट दी जाती है। बस उसे निरीह प्राणी की तरह मौत का इंतज़ार करते हुए तिल-तिल करके मरने को छोड़ने को ही यदि इलाज कहते हैं तो इससे तो हमारा संथारा हजार गुना बेहतर है। जब तक कोई वास्तविक इलाज संभव हो, तो जैन धर्म भी उस अहिंसक इलाज को कराने का ही निर्देश देता है। संथारा लेने को नहीं कहता है। तब फिर इसे आत्मघात किस आधार पर कहा जा रहा है।