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मुनि सौरभ सागर जी महाराज ने श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए कहा कि संत नदी की धारा के समान निरंतर एक जगह से दूसरे जगह प्रवाहमान रहते हैं। इस संसार में जो प्राणी जन्म लेता है उसका एक दिन यहां से जाना निश्चित है। उसी प्रकार संत भी एक जगह नहीं रुकते हैं। प्राणियों के कल्याण व स्वयं की तपस्या के लिए वे निरंतर गमन करते रहते हैं। उन्होंने कहा कि क्रोध बहुत बुरा है, क्रोध का जबाब क्षमा से देना, परम परमात्मा से नाता जोड़ना है। मोह से मुक्त होने का प्रयास संन्यास है। आज आदमी वस्तु को तो छोड़ देता है परंतु ममत्व को नहीं छोड़ता। केवल शब्द उच्चारण नहीं, आचरण में धर्म अपनाने की आवश्यकता है।