22.11.2015 ►Acharya Shri VidyaSagar Ji Maharaj ke bhakt ►News

Published: 22.11.2015
Updated: 05.01.2017

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बच्चों में बढती हिंसा- दोषी कौन? --- भारतीय परिवारों की जीवन शैली में तेजी से आ रहे बदलाव का असर खान-पान और रहन-सहन पर पूरी तरह से देखा जा रहा है। इस बदलाव के चलते बच्चे अपने जीवन की शुरुआत इसी मुकाम से कर रहे हैं। आज समाज में यह ज्वलंत प्रश्न तेजी से उभर रहा है कि मासूम बच्चे क्यों हिंसक बनते जा रहे हैं, इनका दोषी कौन है? इनका दोषी माता-पिता, टेलीविजन, भौतिकता के साधन।

बच्चों के सर्व प्रथम गुरु उनके माता-पिता ही होते हैं। माता-पिता की छाया बच्चों पर सबसे ज्यादा पडती है। माता-पिता को चाहिये कि वे बच्चों में शुरू से ही अच्छे संस्कार डालें, उनकी प्रत्येक गतिविधि पर नजर रखें, उन्हें समय दें तथा उनकी बातों को ध्यान से सुनें। उन्हें हिंसा व मारधाड से भरपूर टी.वी. सीरियलों एवं गन्दी फिल्मों से दूर रखें।

माता-पिता ज्यादा बच्चों को इतना लाड-प्यार नहीं करें कि आने वाले समय में वह आपके ऊपर हावी हो जाये। बच्चे की बचपन से हर इच्छा पूरी नहीं करें जो माँगें उनको देवें नहीं, माता-पिता किसी के साथ कहीं बैठें तो उनका अपमान व अनादर नहीं करें जिससे लोग कहें कैसे संस्कार दिये हैं जो बच्चे अपने माता-पिता, घर में बडे, गुरुजनों का आदर सम्मान ना करें वो बच्चे अपनी जिन्दगी में कुछ नहीं कर सकते हैं।

राग भाव, मोह भाव और आत्मीयता के प्रति रिश्ते अनेक रूपों में देखने सुनने को मिलते हैं जिनमें माँ-बेटी, देवरानी-जेठानी, सास-बहू आदि। रिश्ते की परम्परा दीर्घवती है। रिश्ते का भाव दो भिन्न व्यक्तियों, आत्माओं का बन्धन है। पुराणों में यह बन्धन उसी भूत में या भवभव में भी चलता है। रिश्ते सुचारू रूप से चलते रहें तालमेल बना रहे तब तो ठीक है वरना ये ही रिश्ते कषाय भाव, बैर, दुश्मनी का उग्र रूप धारण कर लेते हैं।

“रिश्ता”-”सम्बन्ध”- कोई भी क्यों ना हो वो चाहता है “समर्पण”।

एक दूसरे के प्रति समर्पण भाव चाहिये। सास का बहू के प्रति और बहू का सास के प्रति समर्पण भाव चाहिये। कभी एक हाथ से ताली नहीं बजती, एक पहिये की गाडी नहीं चलती है। एक सास का अपनी बहू के प्रति बेटी जैसा नजरिया होना चाहिये। क्योंकि वो भी किसी की बेटी है। यदि सास अपनी बहू को अपनी बेटी के समान प्यार देगी तो उन सम्बन्धों में जो मधुरता आयेगी वो सुख स्वर्ग में भी नही मिलेगा।

बहू भी अपनी सास को जन्मदात्री माँ माने, सासू नहीं। सास मेरी माँ है ऐसा परिणाम अंतरंग की कभी कलह नहीं होने देगा। बहू सोंचे कि मुझे अब अपनी सारी जिन्दगी इसी घर में बितानी है, ये घर-परिवार सब मेरा ही है। मैं इस घर की हूँ और ये घर मेरा। परिवार के सभी सदस्यों के प्रति स्नेह भाव, आत्मीयता का माहौल सदैव सरसता प्रदान करेगा।

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❖ महाकवि का महाप्रयाण दिवस

गुरुवः पान्तु नो नित्यं ज्ञान दर्षन नायकाः।
चारित्रार्णव गम्भीराः, मोक्षमार्गोपदेषकाः।

आज से 43 वर्ष पहले स्वयं की वृद्धावस्था के कारण संघसंचालन में असमर्थ जानकर जयोदयादि महाकाव्यों के प्रणेता, संस्कृत भाषा के अप्रतिम विज्ञपुरुष आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने अपने प्रिय षिष्य मुनि श्री विद्यासागर जी को आचार्य पद देने का सुविचार किया। तब मुनि श्री विद्यासागर जी ने आचार्य पद ग्रहण करने से इंकार कर दिया। अनन्तर आ. श्री ज्ञानसागर जी ने उन्हंे संबोधित करते हुये कहा कि साधक को अंत समय में सभी पद तथा उपाधियों का परित्याग आवष्यक माना गया है। इस समय शरीर की ऐसी अवस्था नहीं है कि मैं अन्यत्र जाकर सल्लेखना धारण कर सकूँ। अतः तुम्हें आज गुरू-दक्षिणा अर्पण करनी होगी और उसी के प्रतिफल स्वरूप यह पद धारण करना होगा। गुरू-दक्षिणा की बात से मुनि विद्यासागर निरुत्तर हो गये।

तब धन्य हुई नसीराबाद (अजमेर) राजस्थान की वह घड़ी जब मगसिर कृष्ण द्वितीय, संवत् 2029, बुधवार, 22 नवम्बर, 1972 ईस्वी को आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने अपने ही कर-कमलों से आचार्य-पद पर मुनि श्री विद्यासागर महाराज को संस्कारित कर विराजमान किया। इतना ही नहीं मान-मर्दन के उन क्षणों को देखकर सहस्रों नेत्रों से आँसुओं की धार बह चली, जब आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने मुनि श्री विद्यासागर महाराज को आचार्य-पद पर विराजमान किया एवं स्वयं आचार्य-पद से नीचे उतरकर सामान्य मुनि के समान नीचे बैठकर, नूतन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के चरणों में नमन कर बोले - ‘‘हे आचार्य वर! नमोस्तु, यह शरीर रत्नत्रय साधना में षिथिल होता जा रहा है, इन्द्रियाँ अपना सम्यक् कार्य नहीं कर पा रही हैं। अतः मैं आपके श्री चरणों में विधिवत् सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण धारण करना चाहता हूँ, कृपया मुझे अनुगृहीत करें।‘‘

आचार्य श्री विद्यासागर ने अपने गुरुवर की अपूर्व सेवा की। पूर्ण निर्ममत्व भावपूर्वक आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज मरुभूमि में वि. सं. 2030 वर्ष की ज्येष्ठ मास की अमावस्या को प्रचण्ड ग्रीष्मतपन में 4 दिनों के निर्जल उपवास पूर्वक नसीराबाद (राज.) में ही शुक्रवार, 1 जून 1973 ईस्वी को 10 बजकर 10 मिनट पर इस नष्वर देह का त्याग कर समाधिमरण को प्राप्त हुए। भगवान महावीर स्वामी की 2600 वर्ष की परम्परा में शायद ही ऐसा कोई उदाहरण दृष्टिगोचर होता है जहां किसी गुरु द्वारा अपने ही षिष्य को अपने पद पर आसीन कर सामान्य मुनिवत् उसकी वन्दना कर के निर्यापकाचार्य का पद ग्रहण करने हेतु प्रार्थना की गई हो। धन्य हैं वे महा मुनिराज आ. ज्ञानसागर जी तथा धन्य हैं वे गुरुवर आ. विद्यासागर जी।

यह उत्तम मार्दव धर्म का उत्कृष्ट उदाहरण तो है ही साथ ही उनके लिये भी विचार करने के लिये आदर्ष उदाहरण है, जहां आचार्य बनने तथा बनाने की अंधी होड़ सी लगी है, योग्यता की परीक्षा किये बिना ही जहां आचार्य पद जैसे गम्भीर तथा पवित्र पद को पाने तथा लोकेषणा हेतु खुद के विराजमान रहते अन्य कई षिष्य आचार्यांे को तैयार करने का उतावलापन हावी हो रहा हो, ऐसे वातावरण में सीखना चाहिये आ. ज्ञानसागर जी तथा आ. विद्यासागर जी से कि तो गुरु अपने पद को निर्ममतत्व पूर्वक छोड़ने को तत्पर हो रहे हैं किन्तु षिष्य उस पद को ग्रहण करने को तैयार नहीं हो रहा है। ऐसे विरले महापुरुष कई शताब्दियांे में एकाध बार ही जन्म लेते हैं। अतः हमें गौरव होना चाहिये कि हमने पंचमकाल में जन्म होने के बावजूद भी ऐसे आचार्य भगवन्तों का सान्निध्य मिला।

“इस युग का सौभाग्य रहा, गुरुवर इस युग में जन्मे।
हम सबका सौभाग्य रहा, गुरुवर के युग में हम जन्मे।।”

हमने अरहंत भगवान को देखा नहीं है,
और सिद्ध भगवान कभी दिखते नहीं हैं।
इन दोनों का स्वरूप हमें आचार्य देव बताते हैं,
इसीलिए इन्ही को देखो, ये अरहंत और सिद्ध भगवान से कम नहीं है।

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अक्षय तृतीया - दान तीर्थ का प्रारम्भ [अक्षय तृतीया का महत्व] --- प्रतिवर्ष वैषाख शुक्ल तृतीया को अक्षय तृतीया पर्व अत्यन्त हर्षोल्लास पूर्वक मनाया जाता है। इसके प्राचीनत्व के मूल में कारण है क्योंकि यह पर्व आदिम तीर्थंकर भगवान ऋषभ देव से सम्बन्धित है जो कि स्वयं ही इसके करोड़ो वर्ष प्राचीनता का प्रमाण है। प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव दीक्षोपरान्त मुनिमुद्रा धारण कर छः माह मौन साधना करने के बाद प्रथम आहारचर्या हेतु निकले।

यहां ध्यातव्य है कि तीर्थंकर क्षुधा वेदना को शान्त करने के लिये आहार को नहीं निकलते, अपितु लोक में आहार दान अथवा दानतीर्थ परम्परा का उपदेष देने के निमित्त से आहारचर्या हेतु निकलते है।
तदनुसार भगवान ऋषभदेव के समय चूंकि आहारदान परम्परा प्रचलित नहीं थी। अतः पड़गाहन की उचित विधि के अभाव होने से वे सात माह तक निराहार रहे। एक बार वे आहारचर्या हेतु हस्तिनापुर पधारे। उन्हें देखते ही राजा श्रेयांस को पूर्वभवस्मरण हो गया, जहां उन्होंने मुनिराज को नवधाभक्ति पूर्वक आहारदान दिया था। तत्पष्चात् उन्होंने भगवान ऋषभदेव से श्रद्धा विनय आदि गुणों से परिपूर्ण होकर हे भगवन्! तिष्ठ! तिष्ठ! यह कहकर पड़गाहन कर, उच्चासन पर विराजमान कर, उनके चरण कमल धोकर, पूजन करके, मन वचन काय से नमस्कार किया। तत्पष्चात् इक्षुरस से भरा हुआ कलष उठाकर कहा कि हे प्रभो! यह इक्षुरस सोलह उद्गम दोष, सोलह उत्पादन दोष, दष एषणा दोष तथा धूम, अंगार, प्रणाम और संयोजन इन चार दाता सम्बन्धित दोषों से रहित एवं प्रासुक है, अतः आप इसे ग्रहण कीजिए। तदनन्तर भगवान ऋषभदेव ने चारित्र की वृद्धि तथा दानतीर्थ के प्रवर्तन हेतु पारणा की।
आहारदान के प्रभाव से राजा श्रेयांस के महल में देवों ने निम्नलिखित पंचाष्चर्य प्रकट किये -

1. रत्नवृष्टि
2. पुष्पवृष्टि
3. दुन्दुभि बाजों का बजना
4. शीतल सुगन्धित मन्द मन्द पवन चलना
5. अहोदानम्-अहोदानम् प्रषंसावाक्य की ध्वनि होना।

प्रथम तीर्थंकर की प्रथम आहारचर्या तथा प्रथम दानतीर्थ प्रवर्तन की सूचना मिलते ही देवों ने तथा भरतचक्रवर्ती सहित समस्त राजाओं ने भी राजा श्रेयांस का अतिषय सम्मान किया। भरत क्षेत्र में इसी दिन से आहारदान देने की प्रथा का शुभारम्भ हुआ।

पूर्व भव का स्मरण कर राजा श्रेयांस ने जो दानरूपी धर्म की विधि संसार को बताई उसे दान का प्रत्यक्ष फल देखने वाले भरतादि राजाओं ने बहुत श्रद्धा के साथ श्रवण किया तथा लोक में राजा श्रेयांस “दानतीर्थ प्रवर्तक“ की उपाधि से विख्यात हुए। दान सम्बन्धित पुण्य का संग्रह करने के लिये नवधाभक्ति जानने योग्य है।

जिस दिन भगवान ऋषभ देव का प्रथमाहार हुआ था उस दिन वैषाख शुक्ला तृतीया थी। भगवान की ऋद्धि तथा तप के प्रभाव से राजा श्रेयांस की रसोई में भोजन अक्षीण (कभी खत्म ना होने वाला, “अक्षय“) हो गया था। अतः आज भी यह तिथि अक्षय तृतीया के नाम से लोक में प्रसिद्ध है।

ऐसा आगमोल्लेख है कि तीर्थंकर मुनि को प्रथम आहार देने वाला उसी पर्याय से या अधिकतम तीसरी पर्याय से अवष्यमेव मुक्ति प्राप्ति करता है। कुछ नीतिकारों का ऐसा भी कथन है कि तीर्थंकर मुनि को आहारदान देकर राजा श्रेयांस ने अक्षयपुण्य प्राप्त किया था। अतः यह तिथि अक्षय तृतीया कहलाती है। वस्तुतः दान देने से जो पुण्य संचय होता है, वह दाता के लिये स्वर्गादिक फल देकर अन्त में मोक्ष फल की प्राप्ति कराता है।

अक्षय तृतीया को लोग इतना शुभ मानते है कि इस दिन बिना मुहूर्त, लग्नादिक के विचार के ही विवाह, नवीन गृह प्रवेष, नूतन व्यापार मुहूर्त आदिक भी करके गौरव मानते है। उनका विष्वास है कि इस दिन प्रारम्भ किया गया नया कार्य नियमतः सफल होता है। अतः यह अक्षय तृतीया पर अत्यन्त गौरवषाली है तथा राजा श्रेयांस द्वारा दानतीर्थ का प्रवर्तन कर हम सभी पर किये गये उपकार का स्मरण कराता है।

आचार्य श्री 108 वर्धमान सागर जी महाराज द्वारा रचित रचना

अक्षय तृतीया का पर्व महान,
शुरू हुआ इस दिन आहार दान ।
भगवान आदिनाथ ने किया कठिन तप,
फिर आहार के लिए विधि का मन में लिया संकल्प ।
भगवान ने आहार के लिए किया विहार,
पर छ: मास तक रहे निराहार ।
श्रावक थे उस समय आहार विधि से अनजान,
हो न सका इसलिए आहार दान ।
पूर्व भव के ज्ञान से राजा श्रेयांस ने तब आहार विधि को जाना,
भगवान आदिनाथ को इक्षु रस ग्रहण करा अपने को धन्य माना ।
इसी दिन से मुनियों को आहार दान की परम्परा शुरू हुई,
गुरुओं को आहार देने से श्रावकों की जिंदगी भी धन्य हुई ।

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❖ मृत्यु का समय निकट था! महाकवि भारवि ने पुत्र से कहा -"मै तुम्हे एक सम्पदा देकर जा रहा हूँ!" पुत्र ने कहा -"वह सम्पदा क्या है?,कहाँ है? " भारवि ने एक श्लोक लिखकर देते हुए पुत्र को कहा -"जब भी किसी प्रकार की आर्थिक समस्या या अन्य कोई विपदा आये तो तुम इस श्लोक को एक लाख रुपये मे बेच देना! उस युग मे नगर मे हाटें लगती थी! परम्परा थी - हाट मे दिन भर की बिक्री के बाद जो कोई भी वस्तु दुकानदार के पास बच जाती थी,उसे राज्य द्वारा खरीद लिया जाता! भारवि की मृत्यु के बाद उनका पुत्र आर्थिक कठिनाई मे घिर गया! विपत्ति के उन क्षणों मे उसने अपने पिता द्वारा दिये हुए उस श्लोक को बेचने का निश्चय किया! पिता के आदेशानुसार उस श्लोक को लेकर बाजार मे गया! उसे एक स्थान पर टांग दिया!लोग आते,उस श्लोक को देखते हैं! भारवि पुत्र उस श्लोक का मूल्य एक लाख रुपये बताता है! एक लाख मुद्राएं! एक श्लोक के लिए एक लाख मुद्राएं कौन दे? उसे लेने वाला कोई नही मिला!संध्या का समय! उसे लेने वाला कोई नही मिला तो राज परंपरा के अनुसार बची हुई वास्तु के रूप मे वह श्लोक राजा द्वारा खरीद लिया गया! राजा ने उसे फ्रेम मे मढ़ाया व मढ़ाकर अपने शयन कक्ष की दीवार पर लटका दिया! कालंतर मे राजा परदेश गया और वहाँ उसे बहुत समय लग गया! जिस समय वह लौटकर आया तो अपने शयनकक्ष मे घुसते ही मद्धिम रोशनी मे उसे दो दिखा तो वह अवाक रह गया! रानी एक युवक के साथ सो रही थी! यह देखते ही राजा क्रोध से भर गया! दोनों को मारने के लिए उसने तलवार निकाल ली! जैसे ही उसने वह तलवार निकाली दीवार पर टंगा वह श्लोक राजा के सामने आ गया! उस पर लिखा था " सहसा विदधीत न क्रियाम्" अर्थात सहसा कोई काम नही करना चाहिए! श्लोक पढते ही तलवार के साथ उठा राजा का हाथ झूक गया! उसने रानी को आवाज दी! रानी जागी,उसने भाव विहल होकर राजा का स्वागत किया! राजा के मन मे अभी शल्य बाकी था! आवेश मे बोला -यह कौन है साथ मे? रानी बोली -इसे नही पहचान पा रहे हैं! यह आपकी पुत्री वसुमती है! आज नाट्य ग्रह मे राजा का वेष बनाकर अभिनय किया था! देर से आकर उसी वेष मे मेरे साथ सो गयी! राजा पुत्री को पुरुष के वेष मे देख कर अवाक रह गया! बड़े गदगद स्वर मे बोला -"इस श्लोक को एक लाख मे खरीद कर मैंने सोचा था कि कौड़ी की चीज के एक लाख मुद्राएं दे दी,किन्तु आज लगता है इसके लिए एक करोड स्वर्ण मुद्राएं भी कम हैं! एक भयंकर त्रासदी से इस श्लोक ने मुझे आज बचा लिया!

संवेग आया,प्रबल हुआ और तत्काल वो काम कर लिया तो पश्चाताप के सिवा और कुछ नही बचता! सहसा कोई काम नही करना चाहिए! सहसा संवेग भी नही होना चाहिए!

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❖ सिद्धक्षेत्र सोनागिर- नंगालंग कुमार सहित साढ़े पाँच करोड़ मुनियों की निर्वाण स्थली एवं आठवें तीर्थंकर श्री चंद्रप्रभु की विहार स्थली जिनका समवशरण पंद्रह बार यहाँ आया। आगरा-झाँसी रेल मार्ग दतिया स्टेशन से तीन मील दूरी पर सोनागिर रेलवे स्टेशन है। स्टेशन से 5 कि.मी. पर सोनागिर तीर्थ क्षेत्र है।

पहाड़ी पर छोटे बड़े कुल १०८ मंदिर है जो जैन तीर्थंकरो से सम्बंधित है | पहाड़ी की चढाई के साथ ही मंदिर शुरू हो जाते है और जब तक पुनः दूसरी और से नीचे नहीं आ जाते, तब तक कुल १०८ मंदिरों के दर्शन होते है | आधिकांश मंदिर सल्तनत एवं मुग़ल शेल्ली में निर्मित है |कुछ मंदिरों में तो १००० वर्ष से प्राचीन प्रतिमाएं भी विद्यमान है | मंदिरों तथा प्रतिमाओं की सुन्दरता तथा कला के बारे में तो क्या कहना? समस्त वातावरण, नैसर्गिक सौंदर्य और मंदिरों के गुम्बद और मीनारे मन मोह लेती है | मंदिर ५७ को एक चमत्कारी मंदिर माना जाता है, यहाँ समस्त सम्प्रदायों के लोग दर्शन करने आते है |

यह पवित्र स्थान संतो तथा साधको के मध्य प्राचीनकाल से ही लोकप्रिय रहा है और अनेको ने यहीं से तप करके निर्वाण पाया है |

कुछ फिल्मो के गानों में भी यहाँ का दृश्य दिखाया गया है| पहाड़ी के अतिरिक्त नीचे तलहटी में भी कुल २६ मंदिर और है | कुल मिलाकर यदि इसे मंदिर नगरी कहे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी| by Manish Jain

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