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सूत्र १५: इन्द्रिय सुख दुख है।
संसारी जीव की प्रवृत्ति इन्द्रिय सुख में रमने को तङपती रहती है। जिस प्रकार से एक प्यासा व्यक्ति कुएं को हर राह पर ढूंढता रहता है, उसे प्रकार संसारी जीव हर कार्य मे इन्द्रिय सुख ढूंढता रहता है। सुबह उठते ही, शरीर को चलाने के लिये भोजन में इन्द्रिय सुख ढूंढता है, काम पर हंसी ठठ्ठा का बहाना ढूंढ्ता है, शाम को चलचित्र ढूंढता है, स्त्री के साथ सुख ढूंढता है, और कहीं ना मन लगे तो कम्प्यूटर में मन लगाता है। देश विदेश की खबरों में जिसमें इसका दूर दूर से कोई सम्बन्ध नहीं, उन्हे जानकर उसमें मन लगाता है। और तो और, कभी धर्म में थोङा मन लगा, तो उसमें भी संगीत इत्यादि भोग ही ढूंढता है।
वास्तव में ये इन्द्रिय सुख सुख नहीं, दुख है। जिस प्रकार से हम अन्न को प्राण कहते हैं, क्योंकि प्राण को शरीर में रखने के लिये अन्न साधक है। उसी प्रकार इन्द्रिय सुख दुख का साधक है, इसीलिये इन्द्रिय सुख दुख ही है।
पहली बात तो यह कि इन्द्रिय सुख स्थाई नहीं होता, क्षणिक होता है। किसी भी इन्द्रिय भोग को ले लो ज्यादा देर नहीं टिक सकता। जो इन्द्रिय सुख आनन्द का कारण बन रहा था, बही कुछ समय बात बोरियत का कारण बनने लगता है। ऐसा जानकर संसारी जन एक इन्द्रिय सुख से दूसरे इन्द्रिय सुख की तरफ़ भागते हैं, और विवेकी जन इन्द्रिय सुख के पीछे भागना छोङते हैं, क्योंकि विवेकी जन शाश्वत सुख के पीछे ही भागते हैं।
फ़िर भी कोई प्रश्न करे कि इन्द्रिय सुख शाश्वत नहीं तो कम से कम क्षणिक तो है, तो कुछ क्षण भर के सुख के लिये क्यों ना उसके पीछे भागें? तो उसका बहुत सुन्दर उत्तर गुरूवर देते हैं- इन्द्रिय सुख भाग्य के आधीन है। जब भाग्य के आधीन है तो उसके पीछे भागने से क्या फ़ायदा।
फ़िर शिष्य प्रश्न करता है, कि भाग्य के आधीन है तो भी हमें तो मजा आता है, इसलिये हम तो लेंगे। तो गुरूवर बताते हैं कि यह इन्द्रिय सुख राग से मिश्रित है इसलिये दुख रूप है और पाप से हमें बान्ध देता है, जिसका फ़ल हमें जन्म जन्मान्तर मे भोगना है। ऐसा सुनकर शिष्य सन्तुष्ट हुआ इन्द्रिय सुख से विमुख हो, अतिन्द्रिय सुख की प्राप्ति का उपाय करता है।
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सूत्र १४: रोज दान दे
अपने और दूसरे के उपकार के लिये अपनी वस्तु का त्याग करना दान है। श्रावक का कर्तव्य है कि जिन जिन जीवो से उसका सम्पर्क हो, उनको सुखी करे। इसी में उसका खुद का भी सुख है। शास्त्रो में तो श्रावको के लिये पूजा और दान मुख्य कर्तव्य बताये हैं
सबसे पहले चरण में अपने निकट स्व-स्त्री/पुरूष को सुख शान्ति देवे, फ़िर रिश्तेदार इत्यादि को सुख में निमित्त बनें, फ़िर मित्रगण समाज के सुख मे निमित होये। कोई जानने वालो को व्यवसाय ना हो, तो उनकी मदद कर दे। किसे निकट वृद्ध के तकलीफ़ होवे, तो उनकी सहायता कर दे। अपने घर में जितने जीव हैं, उनके प्रति करूणा वरते।
इसी प्रकार समाज के उपकार के लिये जिन प्रभु के मन्दिर में दान देवे। मन्दिर के द्वारा समाज को उपकार होता है। समाज में धार्मिक और सांस्कृतिक संस्कारों के लिये मन्दिर की बहुत महिमा है। मन्दिर में दर्शन करके, प्रभु की भक्ति करके कितने ही जीवो को यथार्थ धर्म की श्रद्धा होती है। नयी पीढी के भीतर सुसंस्कारो का निर्माण होता है। ऐसे मन्दिर में बहुत ही अच्छी भावनाओं से रोज दान देवें। साल में एक-दो बार बङा दान देने से अच्छा है कि रोज थोङा थोङा दान दे- इससे परिणामो कि विशुद्दि हर दिन होती है। अगर मन्दिर रोज जाना ना हो तो घर मे एक गुल्लक बना ले, और उसमे रोज दान डालते रहे, और जब मन्दिर जावे तो गुल्लक का दान मन्दिर में दे आवे। इससे श्रावक के प्रतिदिन दान का आवश्यक पूरा होगा।
दान को मात्र मन्दिर तक ही सीमित ना रखे। सबसे उत्तम दान तो मोक्षमार्ग मे लगे मुनि, प्रतिमाधारी के लिये होता है। इसके अलावा तन, मन, धन से लोगो की सेवा करे- जिसको भी जरूरत लगे।
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#ExclusivePic #Rehli #LatestPravachan ✿ लीक से हट कर प्रवचन:- इण्डिया नहीं है भारत की गौरव-गाथा-आचार्य श्री विद्यासागर जी ➽ Jainism -the Philosophy -ये प्रवचन जरुर पढ़े!
रहली (ज़िला-सागर मध्यप्रदेश) में पंचकल्याणक महामहोत्सव के अंतिम दिवस पर गजरथ यात्रा के बाद चारों दिशाओं से भक्तिवश पधारे लगभग एक लाख जैन-अजैन श्रद्धालुओं को उदबोधन देते हुए योगीश्व कन्नड़ भाषी संत विद्यासागर जी ने धर्म-देशना की अपेक्षा राष्ट्र और समाज में आए भटकाव का स्मरण कराते हुए कहा कि आज जवान पीढ़ी का ख़ून सोया हुआ है। कविता ऐसी लिखो कि रक्त में संचार आ जाय। उसका इरादा 'इण्डिया' नहीं 'भारत' के लिये बदल जाय। वह पहले भारत को याद रखें। भारत याद रहेगा, तो धर्म-परम्परा याद रहेगी। पूर्वजों ने भारत के भविष्य के लिये क्या सोचा होगा? उन्होंने इतिहास के मंन्र को सौंप दिया। उनकी भावना भावी पीढ़ी को लाभान्वित करने की रही थी। वे भारत का गौरव, धरोहर और परम्परा को अक्षुण्ण चाहते थे। धर्म की परम्परा बहुत बड़ी मानी जाती है। इसे बच्चों को को समझाना है। आज ज़िंदगी जा रही है। साधना करो। साधना अभिशाप को भगवान बना देती है। जो हमारी धरोहर है। जिसे हम गिरने नहीं देंगे। महाराणा प्रताप ने अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया। उनके और उन जैसों के स्वाभिमान बल पर हम आज हैं।
भारत को स्वतन्त्र हुए सत्तर वर्ष हो गए हैं। स्वतन्त्र का अर्थ होता है-'स्व और तन्त्र'। तन्त्र आत्मा का होनाचाहिए। आज हम, हमारा राष्ट्र एक-एक पाई के लिए परतंत्र हो चुका है। हम हाथ किसी के आगे नहीं पसारें। महाराणा प्रताप को देखो, उन जैसा स्वाभिमान चाहिए। उनसे है भारत की गौरवगाथा। आज हमारे भारत की पूछ नहीं हो रही है? मैं अपना ख़ज़ाना आप लोगों के सामने रख रहा हूं। आप लोगों में मुस्कान देख रहा हूँ। मैं भी मुस्करा रहा हूं। हमें बता दो, भारत का नाम 'इण्डिया' किसने रखा? भारत का नाम 'इण्डिया' क्यों रखा गया? भारत 'इण्डिया' क्यों बन गया? क्या भारत का अनुवाद 'इण्डिया' है? इण्डियन का अर्थ क्या है? है कोई व्यक्ति जो इस बारे में बता सके? हम भारतीय है, ऐसा हम स्वाभिमान के साथ कहते नहीं हैं। अपितु गौरव के साथ कहते हैं, 'व्ही आर इण्डियन'। कहना चाहिए- 'व्ही आर भारतीय'। भारत का कोई अनुवाद नहीं होता। प्राचीन समय में 'इण्डिया' नहीं कहा जाता था। भारत को भारत के रूप में ही स्वीकार करना चाहिए। युग के आदि में ऋषभनाथ के ज्येष्ठ पुत्र 'भरत' के नाम पर भारत नाम पड़ा है। उन्होंने भारत की भूमि को संरक्षित किया है। यह ही आर्यावर्त 'भारत' माना नाम गया है। जिसे 'इण्डिया' कहा जा रहा है। आप हैरान हो जावेंगे, पाठ्य-पुस्तकों के कोर्स में 'इण्डियन' का जो अर्थ लिखा गया है, वह क्यों पढ़ाया जा रहा है? इसका किसी के पास क्या कोई जवाब है? केवल इतना लिखा गया है कि अंग्रेज़ों ने ढाई सौ वर्ष तक हम पर अपना राज्य किया, इसलिए हमारे देश 'भारत' के लोगों का नाम 'इण्डियन' का पड़ गया है। इससे भी अधिक विचार यह करना है कि है कि चीन हमसे भी ज़्यादा परतन्त्र रहा है। उसे हमसे दो या तीन साल बाद स्वतन्त्रता मिली है। उससे पहले स्वतन्त्रता हमें मिली है। चीन को जिस दिन स्वतन्त्रता मिली थी, तब के सर्वे सर्वा नेता ने कहा था कि हमें स्वतन्त्रता की प्रतीक्षा थी। अब हम स्वतन्त्र हो गए हैं। अब हमें सर्व प्रथम अपनी भाषा चीनी को सम्हालना है। परतन्त्र अवस्था में हम अपनी भाषा चीनी को क़ायम रख नहीं सके थे। साथियों ने सलाह दी थी कि चार-पाँच साल बाद अपनी भाषा को अपना लेंगे। किन्तु मुखिया ने किसी की सलाह को नहीं मानते हुए चीना भाषा को देश की भाषा घोषित किया। नेता ने कहा चीन स्वतन्त्र हो गया है और अपनी भाषा चीनी को छोड़ नहीं सकते हैं। आज की रात से चीन में की भाषा चीनी प्रारम्भ होगी और उसी रात से वहाँ चीन की भाषा चीनी प्रारंभ हो गयी। भारत में कोई ऐसा व्यक्ति है जो चीन के समान हमारे देश की भाषा तत्काल प्रारम्भ कर दें? कोई भी कठिनाई आ जाय देश के गौरव और स्वाभिमान को छोड़ नहीं सकते हैं। सत्तर वर्ष अपने देश को स्वतन्त्र हुए हो गए हैं। हमारी भाषाऐं बहुत पीछे हो गयी हैं। इंग्लिश भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने की ग़लती हो हैं। मैं भाषा सीखने के लिए इंग्लिश या किसी भी अन्य भाषा को सीखने का विरोध नहीं करता हूँ। किंतु देश की भाषा के ऊपर कोई अन्य भाषा नहीं हो सकती है।इंग्लिश भारत भाषा कभी नहीं थी और न है। वह अन्य विदेशी भाषाओं के समान ज्ञान प्राप्त करने का साधन मात्र है। विदेशी भाषा इंग्लिश में हम अपना सब कुछ काम करने लग जाय, यह ग़लत है। हमें दादी के साथ दादी की भाषा जो यहाँ बुन्देलखण्डी है, उसी में बात करना चाहिए। जो यहाँ सभी को समझ में आ जाती है। मैं कहता हूँ ऐसा ही अनुष्ठान करें।
send by निर्मलकुमार पाटोदी
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सूत्र १२: कोई किसी को परिणमा नहीं सकता।
"संसार में मनुष्यॊ की प्रवृत्ति स्वेच्छानुसार होती है और वे अन्य को अपने रूप परिणमाना चाहते हैं जब कि वे परिणमते नहीं। इस दशा में महा दुःख के पात्र होते हैं। मनुष्य यदि यह मानना छोङ देवे कि पदार्थ का परिणमन हम अपने अनुकूल कर सकते हैं तो दुःखी होने की कुछ भी बात ना रहे।" [मेरी जीवन गाथा: भाग २, पृ० १ - Autobiography of Pujya Ganesh Varni Ji]
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सूत्र १३: स्वतन्त्रता में ही सुख है
पर के सम्बन्ध से जीव कभी भी सुखी नहीं हो सकता, क्योंकि जहां पर पराधीनता है, वही दुःख है। स्वतन्त्रता ही सुख की जननी है, सुख का साधन एकाकी होना है।
[मेरी जीवन गाथा: भाग २, पृ० ४१ - Autobiography of Pujya Ganesh Varni Ji]