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मातृभाषा भाव तक पहुचने में सहायक है! - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा शरीर का नहीं आत्मा का विकास होना चाहिए! यहाँ कुछ लोग राजस्थान से आयें है लेकिन प्रायः बुंदेलखंड के हैं! प्रायः पैसा बढता है तो गर्मी चढ़ जाती है! हर व्यक्ति की गति प्रगति इस बुद्धि को लेकर नहीं होती! कुछ लोग चोटी के विद्वान् होते हैं जैसे ललितपुर में एक व्यक्ति चोटी रखता है! ज्ञान के विकास का नाम ही मुक्ति है! ज्ञान का विकास जन्म से नहीं मृत्यु से होता है! अभी आप मरना नहीं सीखे हैं! मरना सिख लिया तोह जीना सिख लेंगे! बुद्धि के विकास के लिए मरण अनिवार्य है! मन का मरण जरुरी है! उस मन को कैसे मारा जाये! श्रुत और पंचमी आज का यह दिवस है! आज का दिन पढ़े लिखे लोंगो का नहीं किन्तु जो मन से सुनता है उसका नहीं दो कानो का है! मैं मन की बात नहीं किन्तु श्रुत पंचमी की बात कर रहा हूँ! हमारी सोच श्रुत का निर्माण नहीं करता!
सुनने वाला श्रुत पंचमी का रहस्य समझता है! जो मन के अन्दर में रहता है उसका भरोसा नहीं रहता है! किसी के अन्दर में नहीं रहना चाहिए! आँखे तभी गहराइयों तक नहीं पहुचती! जो सुनता है उसको मोक्षमार्ग और मुक्ति उपलब्ध होता है! शार्ट कट भी चकर दार हो सकता है!
केवल माँ की भाषा को ही मात्री भाषा कहा है! भगवन की भाषा होती है लेकिन पकड़ में नहीं आती है! भाषा के चक्कर से केवली भगवन भी बचे हैं! आज के दिन हजारों वर्ष पूर्व ग्रन्थ का निर्माण हुआ था! श्रुत देवता के माध्यम से ही गुण रहस्य मालूम होता है! आप लोग दूर - दूर से आयें हैं लेकिन पास से कौन आया है! गुरु कभी परीक्षा नहीं करते लेकिन आत्म संतुस्ठी के लिए कुछ आवश्यक होता है! मात्री भाषा भाव भाविनी है वह भाव तक ले जाने में सहायक है! भाव भाषा को समझना आवश्यक है! विकास इसलिए नहीं होता है क्योंकि मन भटकता है! हमारी शिकायत आप करते हो की हमें दर्शन नहीं होते हैं! आज पास से दर्शन हो गएँ हैं! हम किससे शिकायत करें आप हमारी जितनी शिकायत करोगे उतना ही माल बिकेगा! विश्वास के माध्यम से ही श्रुत पंचमी मनाई जा सकती है!
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" वह क्या करता होगा "
चेलना राजा श्रेणिक की पत्नी थी |
अनाथी मुनि के संपर्क में आकर राजा श्रेणिक जैनधर्मी बना, दृढधर्मी बना |
भगवान महावीर का परम भक्त बना |
एक बार भीषण ठण्ड में राजा श्रेणिक अपनी पटरानी चेलना सहित उनके दर्शन के लिए पहुंचा |
वापस लौटते समय उन्होंने देखा कि एक मुनि जंगल में वृक्ष के नीचे ध्यान कर रहे थे |
चेलना ने सोचा - " कहाँ तो मैं इतने ऊनी वस्त्रों में भी ठिठुर रही हूँ, कहाँ ये मुनि जो अल्प वस्त्रों में भी प्रसन्न खड़े हैं |
रानी महल में आकर सो गयी |
रात्रि को रजाई के बाहर उसका एक हाथ रह गया |
जब कड़ाके की सर्दी में वह हाथ ठिठुर गया तब आँख खुली |
उस मुनि की स्मृति हो आई, मुंह से सहसा निकला - " वह क्या करता होगा? "
राजा के कान में ये शब्द पड़े |
राजा इस निर्णय पर पहुंचा -" हो न हो चेलना किसी और पुरुष पर आसक्त है |
इसका मन उधर चला गया है, इसीलिए बड़बड़ा रही है |
हाय! मैंने इसे इतना प्यार किया, नारी का क्या भरोसा? "
क्रोध, रोष और आक्रोश से भरा राजा प्रात: महल के नीचे आया |
आव देखा न ताव, अभयकुमार को चेलना का महल जलाने का आदेश दे डाला |
स्वयं चलकर भगवान महावीर के समवसरण में पहुंचा |
प्रभु ने फरमाया - " राजा चेटक की सातों पुत्रियां सती है |"
(चेलना राजा चेटक की पुत्री थी)
राजा श्रेणिक चौंका, चेलना के मुंह से निकले रात वाले शब्द कहकर उनका रहस्य जानना चाहा |
प्रभु ने ध्यानस्थ मुनि की सारी घटना सुनाकर राजा का सारा भ्रम मिटाया |
राजा उद्विग्न हो उठा - कहीं ' अभय ' महल न जला दे |
जल्दी से वहाँ से चलकर आया |
दूर से महलों से धुआँ निकलता देखकर एक बार हतप्रभ हो गया,
पर जब पता लगा कि ' अभय ' ने बुद्धिमत्ता का परिचय दिया है -
महलों को न जलाकर फूस की खाली झोपडियां जलाकर मेरे आदेश का पालन किया है,
महारानी सुरक्षित है, तब उन्हें संतोष हुआ |
श्रेणिक ने महारानी के पास जाकर क्षमा मांगी |
कहने लगा - " तुम्हे धन्य है, तुम्हारा जीवन धन्य है |
भगवान महावीर ने अपने श्री मुख से तुम्हारी प्रशंसा की है |
धन्य है महासती! "
चारों ओर सती चेलना का जयनाद गूँज रहा था | chanchal bothra
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#ExclusivePic #Rehli #LatestPravachan ✿ लीक से हट कर प्रवचन:- इण्डिया नहीं है भारत की गौरव-गाथा-आचार्य श्री विद्यासागर जी ➽ Jainism -the Philosophy -ये प्रवचन जरुर पढ़े!
रहली (ज़िला-सागर मध्यप्रदेश) में पंचकल्याणक महामहोत्सव के अंतिम दिवस पर गजरथ यात्रा के बाद चारों दिशाओं से भक्तिवश पधारे लगभग एक लाख जैन-अजैन श्रद्धालुओं को उदबोधन देते हुए योगीश्व कन्नड़ भाषी संत विद्यासागर जी ने धर्म-देशना की अपेक्षा राष्ट्र और समाज में आए भटकाव का स्मरण कराते हुए कहा कि आज जवान पीढ़ी का ख़ून सोया हुआ है। कविता ऐसी लिखो कि रक्त में संचार आ जाय। उसका इरादा 'इण्डिया' नहीं 'भारत' के लिये बदल जाय। वह पहले भारत को याद रखें। भारत याद रहेगा, तो धर्म-परम्परा याद रहेगी। पूर्वजों ने भारत के भविष्य के लिये क्या सोचा होगा? उन्होंने इतिहास के मंन्र को सौंप दिया। उनकी भावना भावी पीढ़ी को लाभान्वित करने की रही थी। वे भारत का गौरव, धरोहर और परम्परा को अक्षुण्ण चाहते थे। धर्म की परम्परा बहुत बड़ी मानी जाती है। इसे बच्चों को को समझाना है। आज ज़िंदगी जा रही है। साधना करो। साधना अभिशाप को भगवान बना देती है। जो हमारी धरोहर है। जिसे हम गिरने नहीं देंगे। महाराणा प्रताप ने अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया। उनके और उन जैसों के स्वाभिमान बल पर हम आज हैं।
भारत को स्वतन्त्र हुए सत्तर वर्ष हो गए हैं। स्वतन्त्र का अर्थ होता है-'स्व और तन्त्र'। तन्त्र आत्मा का होनाचाहिए। आज हम, हमारा राष्ट्र एक-एक पाई के लिए परतंत्र हो चुका है। हम हाथ किसी के आगे नहीं पसारें। महाराणा प्रताप को देखो, उन जैसा स्वाभिमान चाहिए। उनसे है भारत की गौरवगाथा। आज हमारे भारत की पूछ नहीं हो रही है? मैं अपना ख़ज़ाना आप लोगों के सामने रख रहा हूं। आप लोगों में मुस्कान देख रहा हूँ। मैं भी मुस्करा रहा हूं। हमें बता दो, भारत का नाम 'इण्डिया' किसने रखा? भारत का नाम 'इण्डिया' क्यों रखा गया? भारत 'इण्डिया' क्यों बन गया? क्या भारत का अनुवाद 'इण्डिया' है? इण्डियन का अर्थ क्या है? है कोई व्यक्ति जो इस बारे में बता सके? हम भारतीय है, ऐसा हम स्वाभिमान के साथ कहते नहीं हैं। अपितु गौरव के साथ कहते हैं, 'व्ही आर इण्डियन'। कहना चाहिए- 'व्ही आर भारतीय'। भारत का कोई अनुवाद नहीं होता। प्राचीन समय में 'इण्डिया' नहीं कहा जाता था। भारत को भारत के रूप में ही स्वीकार करना चाहिए। युग के आदि में ऋषभनाथ के ज्येष्ठ पुत्र 'भरत' के नाम पर भारत नाम पड़ा है। उन्होंने भारत की भूमि को संरक्षित किया है। यह ही आर्यावर्त 'भारत' माना नाम गया है। जिसे 'इण्डिया' कहा जा रहा है। आप हैरान हो जावेंगे, पाठ्य-पुस्तकों के कोर्स में 'इण्डियन' का जो अर्थ लिखा गया है, वह क्यों पढ़ाया जा रहा है? इसका किसी के पास क्या कोई जवाब है? केवल इतना लिखा गया है कि अंग्रेज़ों ने ढाई सौ वर्ष तक हम पर अपना राज्य किया, इसलिए हमारे देश 'भारत' के लोगों का नाम 'इण्डियन' का पड़ गया है। इससे भी अधिक विचार यह करना है कि है कि चीन हमसे भी ज़्यादा परतन्त्र रहा है। उसे हमसे दो या तीन साल बाद स्वतन्त्रता मिली है। उससे पहले स्वतन्त्रता हमें मिली है। चीन को जिस दिन स्वतन्त्रता मिली थी, तब के सर्वे सर्वा नेता ने कहा था कि हमें स्वतन्त्रता की प्रतीक्षा थी। अब हम स्वतन्त्र हो गए हैं। अब हमें सर्व प्रथम अपनी भाषा चीनी को सम्हालना है। परतन्त्र अवस्था में हम अपनी भाषा चीनी को क़ायम रख नहीं सके थे। साथियों ने सलाह दी थी कि चार-पाँच साल बाद अपनी भाषा को अपना लेंगे। किन्तु मुखिया ने किसी की सलाह को नहीं मानते हुए चीना भाषा को देश की भाषा घोषित किया। नेता ने कहा चीन स्वतन्त्र हो गया है और अपनी भाषा चीनी को छोड़ नहीं सकते हैं। आज की रात से चीन में की भाषा चीनी प्रारम्भ होगी और उसी रात से वहाँ चीन की भाषा चीनी प्रारंभ हो गयी। भारत में कोई ऐसा व्यक्ति है जो चीन के समान हमारे देश की भाषा तत्काल प्रारम्भ कर दें? कोई भी कठिनाई आ जाय देश के गौरव और स्वाभिमान को छोड़ नहीं सकते हैं। सत्तर वर्ष अपने देश को स्वतन्त्र हुए हो गए हैं। हमारी भाषाऐं बहुत पीछे हो गयी हैं। इंग्लिश भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने की ग़लती हो हैं। मैं भाषा सीखने के लिए इंग्लिश या किसी भी अन्य भाषा को सीखने का विरोध नहीं करता हूँ। किंतु देश की भाषा के ऊपर कोई अन्य भाषा नहीं हो सकती है।इंग्लिश भारत भाषा कभी नहीं थी और न है। वह अन्य विदेशी भाषाओं के समान ज्ञान प्राप्त करने का साधन मात्र है। विदेशी भाषा इंग्लिश में हम अपना सब कुछ काम करने लग जाय, यह ग़लत है। हमें दादी के साथ दादी की भाषा जो यहाँ बुन्देलखण्डी है, उसी में बात करना चाहिए। जो यहाँ सभी को समझ में आ जाती है। मैं कहता हूँ ऐसा ही अनुष्ठान करें।
send by निर्मलकुमार पाटोदी
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संसार के भोग कर्म उदय के अधीन हैं,अंत से सहित हैं,दुःख से सहित,पाप के बीज हैं..इसलिए ऐसे भोग में सुख की आस्था नहीं करने वाले को निकान्क्षित अंग होता है.
संसार के भोग कर्म उदय के अधीन हैं,अशुभ कर्म का उदय होगा तोह जिन पैसो से मकान खरीद रहे हैं...वह पैसे भी चोरी हो जाते हैं या चोरी हो जाते हैं,हाथ में आई रोटी भी कोई क्षीण लेता है..
उसमें भी हजारों परधीनताओं से सहित हैं...जैसे गर्मी में एसी,पंखे की अधीनता.,सर्दी में रजाई की अधीनता,...कुछ खरीदना है तोह पैसों की अधीनता,कहीं जाना है तोह सबसे पहले स्वस्थ शरीर की अधीनता,फिर वाहान की अधीनता,और उसे सही करवाने के लिए एक नौकर की अधीनता,..खाने के लिए रोटी की अधीनता....उसमें भी बनाने वाला होने की अधीनता...भोगों के लिए स्त्री की अधीनता....,पढने के लिए चश्मों की अधीनता,...अदि-अदि हजारों परधीनताओं से सहित हैं..संसार के भोग.
मुनि क्षमा सागर जी महाराज ने एक दृष्टांत दिया था
की एक आदमी भैंस को रस्सी से बाँध कर ले जा रहा है....अगर हमसे पुछा जाए की कौन किस्से बंधा है...तोह आम आदमी यही कहेगा..की भैंस रस्सी से बंधी है.......या भैंस आदमी से बंधी है....लेकिन सही मायने में आदमी भैंस से बंधा हुआ है...अगर रस्सी छोड़ दी जाए तोह कौन-किसके पीछे भागेगा..आदमी भैंस के पीछे,या भैंस आदमी के पीछे...........सही जवाब आदमी भैंस के पीछे....तोह कौन-किसके अधीन है-आदमी भैंस के अधीन है...इस प्रकार यह भोग हजारों परधीनताओं से सहित हैं..
उसके बाद भी अंत सहित हैं...स्वाधिष्ट खाने का स्वाद खाने की अवधि तक ही आता है...अब जो दाल स्वाधिष्ट लग रही थी,सुख दाई लग रही थी...मूंह में जाने तक उसमें स्वाद आना भी बंद हो जाता है..,एक न एक दिन स्त्री का,पति का,मकान का,रिश्तेदारों का,सुख सुविधाओं का वियोग होता ही है.
और ऐसा भी नहीं है की यह भोग एक अखंड धरा-प्रवाह के साथ चलें...यह बीच-बीच में दुखदायी भी होते हैं...दुःख से सहित होते हैं.....वोह ही चीज कभी अच्छी लगती है...तोह वोह ही चीज कभी खराब भी लगती है..बुखार के समय ठंडा पानी ही दुखदायी होता है...जो बहुत अच्छा लगता है...ज्यादा एसी की हवा भी कभी-कभी दुःख को देने वाली हो जाती है...और बाहार निकलते ही दुःख को देने वाली होती है,बीमारी का कारण होती है...जिस चीज का संयोग है उस चीज का वियोग भी है..इसलिए अंत सहित है
और यह भोग पाप के बीज हैं...इन्ही के कारण जीव पाप करता है...कोई पंखा चलाएगा तोह जीव हिंसा करेगा,स्त्री भोग में जीव हिंसा,कुछ खाने में जीव हिंसा...धर्म से दूर रखते हैं,इन भोगों में फसकर जीव आत्मा-परमात्मा का ध्यान नहीं करता है......
इसलिए सम्यक-दृष्टी इन विषय भोगों में सुख मानता ही नहीं है तोह इनकी वह चाह कैसे कर सकता है......वह तोह स्वर्ग से ऊपर एह्मिन्द्र की आयु में भी सुखों की आस्था नहीं रखता है..जब सुख ही नहीं मानेगा...तोह चाहेगा कैसे...
समयक-दृष्टी को सात-तत्व का अटल श्रद्धां होने से बहुत आनंद आता है...और आत्म सुख का चिंतवन करते हुए आनंद-माय रहता है.......
गृहस्थ सम्यक-दृष्टी इन विषयों में सुख भी नहीं मानता,लेकिन उसमें फंसा भी रहता है.....तोह इस बारे में कहा गया...की जैसे कोई रोगी कडवी औषधि पीने में सुख न मानते हुए भी पीता है,और यह चाहता है की कब यह छूते,उसी प्रकार गृहस्थ सम्यक-दृष्टी अपने आप को संयम लेने में असमर्थ जानकार..गृहस्थी में रहता है...लेकिन गृहस्थ के भोगों से विरक्त ही रहता है,जैसे ६ ढाला में लिखा है की "गेही पै गृह में न रचे ज्यों जलते भिन्न कमल है, नगर नारी का प्यार यथा कादे में हेम अमल है"...जैसे कमल कीचड में रहकर भी कीचड में लिप्त नहीं होता,वेश्या का प्यार सिर्फ दिखावे का होता है,सोना कीचड में कीचड रहित रहता है...उसी प्रकार..सम्यक-दृष्टी घर में रहकर भी घर से विरक्त रहता है...
जैसे भरत-चक्रवती अविरत सम्यक-दृष्टी थे...९६००० रानियाँ होकर भी उनसे विरक्त रहते थे.......कितने महान थे!!!!!
धन्य है ऐसे निकान्क्षित अंग को पालन करने वाले लोग जिन्हें स्वर्ग तोह बहुत दूर एह्मिन्द्र में भी सुख नहीं मानते और आत्मा के शास्वत सुख का चिंतवन करते हुए सात भयों से रहित(निशंकित)..और आनंद मय रहते हैं.