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#AnimalTesting #BaninIndia Osam news in the eve of #MahavirJayanti:)) Indian Govt bans use of animals in tests for soaps, detergents: PETA
PETA claimed to have received a circular, through an RTI, issued by the Committee for the Purpose of Control and Supervision of Experiments on Animals (CPCSEA), under the Environment Ministry in this regard.
A ban has been imposed with immediate effect on the use of animals in tests for manufacturing soaps and detergents, an animal rights body said in New Delhi on Monday.
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🌟"आगमधारा" का उद्देश्य प्रशंसा पाना नहीं हैं बल्कि जिनशासन का प्रकाश फैला कर भटके हुए जीवों के अंदर का अन्धकार हटाना और अपने हृदय मे केवलज्ञान का प्रकाश जगाना है।"
➡️ "महावीर जयंती" के विशेष अवसर पर उन्हीं की स्तुति "महावीराष्टक" स्तोत्र का जिनवाणी पुत्र क्षुल्लक श्री ध्यानसागर जी महाराज जी के मधुर स्वर में श्रवण कर आइये हम सभी वीर प्रभु के शासन में जिन- भक्ति के आनंद से अपने जीवन का कल्याण करें।
💫 महावीराष्टक स्तोत्र:-
➡️संस्कृत पाठ का link:-
http://dhyansagarji.com/index.php/pravachan-download/file/Musical%20Tracks/Stotra/24%252EMahaveerashtak-Stotra%252Emp3
➡️संस्कृत एवं हिंदी पद्यानुवाद सहित पाठ:-
http://dhyansagarji.com/index.php/pravachan-download/file/Musical%20Tracks/Stotra/25%252EMahaveerashtak%20with%20Hindi%252Emp3
जैनं जयतु शासनम्।
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#MahavirJayanti:))
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>>भगवान महावीर के जन्मकल्याणक के पूर्व संध्या...
सौधर्म इंद्र जब देखा केवलज्ञान होने के ६५ दिन बाद भी वीर प्रभु की दिव्यध्वनि नहीं खीर रही है इसका क्या कारण है?
चितन करने पर इंद्र ने ये पाया की गणधर के अभाव के कारण दिव्य ध्वनि नहीं खीर रही है?
तब सौधर्म इंद्र ने इसके लिए इंद्रभूति ब्राम्हण को योग्य जानकर उस अभिमानि बुलाने के लिए वृद्ध ब्राम्हण का रूप बनाया और वे गौतमशाला में पहुंचे।
वहां के प्रमुख गुरु इंद्रभूति से बोले
"मेरे गुरु इस वक्त ध्यान में लीन होने से मौन है इसलिए इस श्लोक का अर्थ आपसे समझने आया हूँ।
तब इंद्रभूति ब्राम्हण ने विद्या से गर्विष्ठ होकर वृद्ध से पूछा
"मैं अगर इसका अर्थ बता दूँ तो तू मुझे क्या दोगे?"
तब वृद्ध ने कहा आप अगर इसका अर्थ बताएगा तो मैं सबके समक्ष आपका शिष्य बन जाऊंगा, और अगर नहीं बता सके तो आप और आपके दो भाई और विद्यार्थी मेरे गुरु के शिष्य बन जाना।
महाभिमानी इंद्रभूति ने ये शर्त मंजूर कर ली क्यों की वह समझता मेरे जैसा विद्वान् इस दुनिया में और कोई नहीं है।
तब वृद्ध ने वह काव्य पढ़ा
" धर्मद्वयं त्रिविधकालसमग्रकर्म, षड्द्रव्यकायसहिताः समयैश्च लेश्याः।
तत्वनि संयमगति सहितं पदार्थे-रंगप्रवेदमनिशं वाद चास्तीकायम् ।।
अर्थात
धर्म भेद कौनसे है? कर्म किसे कहते है? द्रव्य कौन और कितने है? उसमेसे काय सहित द्रव्य कौनसे है?
लेश्या कौन कौन सी और कितनी है?तत्त्व कितने और कौन कौन से है? संयम कितने है?,
पदार्थ कितने और कौन से है?श्रुतज्ञान, अनुयोग, और आस्ति काय कौन और कितने है?
तब गौतम नामसे प्रसिद्ध इंद्रभूति ने कुछ देर सोचके कहा
" अरे ब्राम्हण तू अपने गुरु के पास चल, वही इसका अर्थ बताकर गुरु के साथ वाद-विवाद करूँगा। "
सौधर्म इंद्र तो यही चाहते थे तब वेशधारी इंद्र, गौतम को लेकर समवशरण की ओर चल पढ़े।
वहां मानस्तम्भ को देखकर ही गौतम ब्राम्हण का मान गलित हो गया और उन्हें सम्यकत्व की प्राप्ति हो गयी।
समवशरण के सारे वैभव को देखते हुए महान आश्चर्य को प्राप्त उन्होंने भगवान् महावीर स्वामी का दर्शन किया और भक्ति में गद्गद होकर महावीर प्रभु की स्तुति करने लगे।
स्तुति करके विरक्त मना होकर उन इंद्रभूति ने प्रभु के चरण सानिध्य में जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। तत्क्षण मति-श्रुति ज्ञान के साथ अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान प्रकट हो गया।
वे गणधर पद को प्राप्त हुए और भगवंत की दिव्यध्वनि खीरी थी।
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today pic @ kundalpur:)) #रविवारीय_प्रवचन #आचार्यश्री #Update
- मृत्यु से मनुष्य डरता है, मौत नहीं ||
मृत्यु से मनुष्य डरता है। मौत पर किसी का वश नहीं चलता है। परिजन भी कुछ भी हित नहीं कर पाते। आयु कर्म के पूर्ण होने पर कोई भी उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
महापुरूषों का अकाल मरण नहीं होता। मंत्रोचार से सर्प आदि के काटने पर मौत से बचा जा सकता है] लेकिन मंत्रों, दवाईयों, और भावों के प्रभाव से भी मौत के आने पर कोई भी निमित्त बचा नहीं सका, क्योंिक इस संसार में कोई अगर नहीं है तो मृत्यु को नहीं रोका जा सकता। यह विचार कुंडलपुर में आचार्य श्री विघासागर महाराज ने विद्याभवन में प्रवचनों में अभिव्यक्त िकए। उन्होने कहा िक जो अायु कर्म का बंध नहीं करता, जिनेन्द्र भगवान की स्थिति से सर्प भी कुछ नहीं बिगाड़ पाता, जिस तरह रोग भयानक होने पर दवा कार्य नहीं कर पाती। कर्म निर्जरा का कार्य भावों पर निर्भर करता है, पूजन की सामाग्री न होने पर भी भावों से पूजन हो जाती है।
उन्होंने कहा कि अायु कर्म जिसका जबरदस्त है, उस पर विष का भी असर नहीं होता। नारकियाें के नरक में उनके शरीर के टुकड़े- टुकड़े िकए जाते, फिर भी उनका अकाल मरण नहीं होता। मनुष्य के शरीर के टुकड़े- टुकड़े होने पर भी नहीं जुड़ते हैं। काेई अग्नि इतनी भयंकर होती है कि पानी डालने पर भी वह नहीं बुझती है।
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✿ मेरे महावीर जैन नहीं थे ….’जिन’ थे। ‘जिनस्य अनुयायी इति जैनः’ ✿⊰
महावीर मुसलमान थे।
क्योंकि उनके पास मुकम्मल ईमान थे।
महावीर सिख थे।
क्योंकि वे सितम करने से ख़बरदार करते थे।
महावीर हिन्दू थे।
क्योंकि वे हिंसा से दूर थे और सब जीवों से प्यार करते थे।
महावीर पारसी थे।
क्योंकि उनमें संसार के पार देखने की क्षमता थी।
महावीर आर्यसमाजी थे।
क्योंकि उनमें सत्य के प्रति ममता थी।
हाँ, महावीर बुद्ध थे।
क्योंकि उनके उसूल दुर्बुद्धि के विरुद्ध थे।
…और हाँ!
महावीर इसाई भी थे
क्योंकि वे इंसानियत के साईं भी थे।
लेकिन, महावीर जैन नहीं थे।
…क्योंकि उनकी वाणी में हमारी जिव्हा की तरह कटु बैन नहीं थे;
उनके हृदय में श्वेताम्बर-दिगम्बर का झगड़ा न था;
उनके अन्तस् में बीस और तेरह का रगड़ा न था;
वे नियम थोपते नहीं थे;
वे हिंसा रोपते नहीं थे;
वे नित नए धर्म गढ़ते नहीं थे;
वे लकीर के फ़क़ीर बनकर लड़ते नहीं थे;
वे हमारी तरह ढोंगी नहीं थे;
वे दिन के जोगी रात के भोगी नहीं थे;
वे तो आडम्बरों के बिन थे
सचमुच……..
मेरे महावीर जैन नहीं थे ….’जिन’ थे।
‘जिनस्य अनुयायी इति जैनः’
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|| हमारे सरीखी भगवान महावीर की अनंत यात्रा ||
वैसे तो किसी भी जीव का जैन धर्म के अनुसार न तो आदि या जन्म होता है, और न ही अंत या मरण होता है।
फिर भी हमारे पुराणों के अनुसार भगवान महावीर के जीवन की यात्रा का प्रारंभ पुरूरवा भील के नाम से जाना जाता है.
इस भव में उन्होंने मुनिराज के उपदेश से कौए के मांस का त्याग कर अपूर्व पुण्य का संचय किया और फिर शांत परिणामों से देह त्याग कर स्वर्ग में देव बनें.
वहां से आयु पूर्ण कर भरत चक्रवर्ती के यहां रानी अनंतमती से मारीच नामक पुत्र बने। मारीच के भव में आपने पूज्य आदिनाथ तीर्थकर की वाणी का श्रद्धान न कर 700 राजाओं के साथ विपरीत स्वरूप को धारण किया और फिर तापस का वेश धारण कर सांख्यमत सरीखे कई विपरीत मत या परम्पराएँ और पेड़, पत्थर और अग्नि को पूजने वाले धर्म चलाये.
इस तरह हम देखते हैं कि किसी न किसी रूप में आज की बहुत सी मान्यता, मत या धर्म मारीच के जीव द्वारा ही पोषित और चलाये हुए हैं।
मारीच के भव में मन्द कषाय धारण करने से उन्हें देव भव मिला।
इस तरह कई बार देव भव और मनुष्य भव मिला और फिर देव मरे एकेन्द्रिय होय, इस सिद्धांत से वे इतरनिगोद में भी गयें। वहां पर वे अनंत काल तक रहे और फिर शास्त्रों के अनुसार निगोद से निकल कर महावीरस्वामी के जीव ने अनेक भव धारण किये, जो इस प्रकार के हैं -
1) 1000 बार आंक का वृक्ष बना
2) 80000 बार सीप बना
3) 20000 बार नीम का वृक्ष बना
4) 90000 बार केले का पेड़ बना
5) 3000 बार चंदन का वृक्ष बना,
6) 5 करोड़ बार कनेर वृक्ष बना,
7) 60000 बार वेश्या, गणिका या नगरवधू बना
8) 5 करोड़ बार शिकारी बना,
9) 20 करोड़ बार हाथी बना
10) 60 करोड़ बार गधा बना,
11) 30 करोड़ बार कुत्ते की पर्याय में रहा
12) 60 करोड़ बार नपुसंक बना,
13) 20 करोड़ बार स़्त्री बना,
14) 90 लाख बार धोबी बना,
15) 8 करोड़ बार घोड़ा बना
16) 20 करोड़ बार बिल्ली बना,
17) 60 लाख बार गर्भपात से मरण को प्राप्त हुआ
18) 80 लाख बार नीच जाति की देव पर्याय प्राप्त की।
ये सभी भव उन्होंने पिछले चौथे काल में धारण किये थे.
लेकिन आप जानते ही हैं कि अनादिकाल से आज तक के समय में अनंत बार चौथे काल हो चुके हैं.
इस तरह चौरासी लाख योनियों में से प्रत्येक योनी में उन्होंने और हम सभी ने अनंत बार इसी तरह के जन्म धारण किये हैं.
अतः यह सिर्फ भगवान महावीर के जन्मों का ही विवरण नहीं है.
वास्तव में तो देखा जाए, तो हम सभी लोगों ने अनादिकाल से आज तक अनंत बार सभी जन्म धारण किये हैं.
तथा इस अन्तरिक्ष या ब्रह्माण्ड का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है, जहाँ हमने अनंत बार जन्म-मरण न किया हो.
इस तरह से कई तरह के जन्मों में भ्रमण करते हुए भगवान महावीर एक बार विश्वनंदी नामक राजकुमार बनें.
फिर उन्होंने शुद्ध सम्यकत्व धारण कर मुनिराज की चारित्र दशा धारण की और प्रथम नारायण बनने की कर्म प्रकृति भी बांधी।
एक बार इन मुनिराज ने एक माह का निर्जला मासोपवास किया, जिससे वे अत्यंत कमजोर हो गये।
फिर वे पारणा या आहार हेतु मथुरा नगरी में गये. वहां एक बैल के धक्का देने से वे गिर पड़े।
तब किसी परिचित ने उनका खूब उपहास किया.
इस पर उन्होंने अत्यंत क्रोधित होकर उस व्यक्ति को मार डालने का निदान बंध कर लिया.
इस अत्यंत विकारी भाव से उनके सम्यक्त्व का छेदन हो गया और फिर मंद कषाय से मरकर वे स्वर्ग गये.
वहां से आकर प्रथम नारायण के रूप में त्रिप्रष्ठ चक्रवर्ती बने और अपना उपहास उड़ाने वाले को मार कर वहां की आयु पूर्ण कर सातवे नरक के नारकी बने।
भगवान महावीर स्वामी के दसवें पूर्व भव में वे सिंहगिरी पर्वत पर भयानक सिंह बने।
इसी पर्याय में उन्हें हिरण को मारते और खाते हुए देख कर चारण ऋद्धि धारी आकाशगामी अमितप्रभ और अमितकीर्ति मुनिराजों के अत्यंत करुणापूर्वक किये गये संबोधन से उनको पुनः सम्यकदर्शन प्राप्त हुआ।
देखो, कर्मों की विचित्रता कैसी होती है कि भगवान आदिनाथ स्वामी के पोते होने और भरत चक्रवर्ती के पुत्र होने पर भी, उन महापुरुषों के समझाने पर भी भगवान महावीर के जीव का कल्याण नहीं हुआ,
लेकिन जब होने का समय आया, तो शेर के भव में आकाश से उतर कर मुनिराज आये और उनका कल्याण हो गया.
वहां से आयु कर फिर आठवें भव में जम्वूद्वीप के छतरपुर नगर में राजा नंदीवर्धन-वीरमती के नंद नामक पुत्र हुए।
इसी भव में प्रोष्ठिल नामक श्रुतकेवली के सानिध्य में मुनिदीक्षा धारणकर सोलह कारण भावनायें भाकर तीर्थकर प्रकृति का बंध किया।
पुनः वहां आयु पूरी कर प्राणत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में इन्द्र हुए।
अंत में वहां से चयकर राजा सिद्धार्थ-त्रिशलादेवी के यहां वर्धमान नामक हमारे चैबीसवें अंतिम तीर्थकर का पद प्राप्त का निर्वाण की प्राप्ति की।
हे चैतन्य प्रभो, जिस तरह भगवान महावीर ने अपने अनंत भवों की यात्रा को समाप्त कर मोक्ष पद को प्राप्त किया,
इसी तरह हम सभी भी प्रतिज्ञा करें कि हम भी उनके बताये मार्ग पर चलें,
फिर सबको कल्याण का मार्ग दिखायें.
साथ ही खुद की भी अनंत भवों की यात्रा को समाप्त कर परम पद को पाकर अनंत काल तक अब उनके साथ रह
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भगवान् महावीर स्वामी के जनम उत्सव की आप सभी को बहुत बहुत बधाई ।
भगवन महावीर स्वामी की जय
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महावीर जिनका नाम है,
कुण्डलपुर जिनका धाम है,
ऐसे त्रिशला नन्दन को,
हमारा शत शत बार प्रणाम है,
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आपको और आपके परिवार को,
महावीर भगवान् के जन्म कल्याणक की हार्दिक शुभकामनाये!
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