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कृतिदेव यहां अहिंसा यात्रा प्रेस विज्ञप्ति
असंयमित संसार से निकल संयमित जीवन जीने का आचार्यश्री ने दिया मंत्र
-प्रतिस्रोतगामी बनने के लिए आदमी को रहना होगा जागरूक
-आचार्यश्री ने अनुस्रोत-प्रतिस्रोत शब्द का किया विवेचन
-साध्वीवर्याजी ने श्रद्धालुओं को वैचारिक रूप से शुद्ध और दृढ़ संकल्पी बनने की दी प्रेरणा
13.09.2016 गड़ल (असम)ः अनुस्रोत और प्रतिस्रोत दो शब्द हैं। प्रवाह के अनुसार बहना अनुस्रोतगामिता और प्रवाह के विपरीत बहने या चलने का प्रयास करना प्रतिस्रोतगामिता है। हवा जिस दिशा की ओर चल रही होती है उस दिशा की ओर आदमी का चलना कितना आसान हो जाता है, जबकि हवा के विपरीत दिशा में चलना कितना मुश्किल कार्य होता है। असंयम का जीवन जीना अनुस्रोत और संयम का जीवन स्वीकार कर लेना प्रतिस्रोत का उदाहरण है। संसार में रहना, गृहस्थ जीवन जीना अनुस्रोतगामिता होती है। कोई-कोई व्यक्ति सांसारिक जीवन का त्याग कर संयम के पथ को स्वीकार कर प्रतिस्रोतगामी बन सकता है। काम-वासना में लिप्त रहने की अनुस्रोतगामिता का परित्याग कर ब्रह्मचर्य को धारण कर प्रतिस्रोतगामी बनने वाला कोई व्यक्ति महान पथिक भी हो सकता है। आचार्य भिक्षु प्रतिस्रोतगामिता पथ के महान पथिक थे। आम आदमी के जीवन में भी कितनी बार अनुस्रोतगामिता और
प्रतिस्रोतगामिता की स्थिति आती होगी। आदमी को प्रतिस्रोतगामी बन अपनी आत्मा का कल्याण करने का प्रयास करना चाहिए और उसे इसके प्रति जागरूक रहने का भी प्रयास करना चाहिए। उक्त आत्मकल्याणकारी बातें जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगलवार को चतुर्मास प्रवास स्थल परिसर में बने प्रवचन पंडाल में उपस्थित श्रद्धालुओं को बताईं और उन्हें अपनी आत्मा का कल्याण करने के लिए उत्प्रेरित किया।
आचार्यश्री ने श्रद्धालुओं के साथ साधुओं को प्रतिस्रोतगामिता के जागरूक रहने की प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि आम आदमी तो अनुस्रोतगामी होता ही है, कभी-कभी कोई साधु भी प्रमाद में चला जाता है। वह संयम और साधना के प्रतिस्रोतगामी पथ को छोड़ अनुस्रोत में बहने को तैयार हो जाता है, लेकिन साधु को प्रतिस्रोतगामी बने रहने के लिए जागरूक रहने का प्रयास करना चाहिए। साधु से यदि कोई गलती हो जाए तो प्रायश्चित्त लेकर वापस शुद्धता का मार्ग अपना सकता है। किसी गलती को सरलता से स्वीकार कर लेना शुद्धता का मार्ग बन सकता है। जैसे एक बच्चा अपनी गलती अपनी मां के समक्ष सरलता से व्यक्त कर देता है उसी प्रकार एक साधु को अपने आचार्य के समक्ष अपनी गलती को सरलता से स्वीकार कर लेना चाहिए। गलती को यदि छुपाया नहीं गया तो शुद्धि हो सकती है। दोषों को छुपाना अनुस्रोतगामिता और उसे बता देना और उसका का प्रायश्चित्त ले लेना प्रतिस्रोतगामिता होता है। इसलिए आदमी को नहीं साधु को प्रतिस्रोतगामी बने रहने के जागरूक रहने का प्रयास करना चाहिए।
आचार्य के मंगल प्रवचन के उपरान्त साध्वीवर्याजी ने श्रद्धालुओं को शुद्ध-और अशुद्ध के बारे में बताते हुए कहा कि लौकिक दृष्टि से जो व्यक्ति प्रतिदिन स्नान करता है, साफ-सुथरा रहता है उसे शुद्ध और स्नान नहीं करने वाला साफ-सुथरा नहीं रहने वाले अशुद्ध कहा जाता है, लेकिन यदि इन शब्दों को तार्किक दृष्टि से देखें तो विचारों की शुद्धि और अशुद्धि के आधार पर शुद्धता का ज्ञान होता है। इस दृष्टिकोण से यदि संसार में शुद्ध लोगों की खोज की जाए तो यह कार्य मुश्किल हो सकता है। आदमी को अपने विचारों को अच्छा करने के लिए अपनी बुराइयों का परित्याग कर अच्छाई के रास्ते पर चलने का संकल्प स्वीकार करना चाहिए। साध्वीवर्याजी ने आचार्यश्री के संकल्पों को गिनाते हुए कहा कि आदमी को आचार्यश्री से प्रेरणा लेकर अपने संकल्पों के प्रति दृढ़ निश्चयी बनने का प्रयास करना चाहिए।
चन्दन पाण्डेय