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आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के मुखारविंद से.. उन्होंने ने कहा कि जीवन में यदि आगे बढ़ना है तो व्यवस्थित क्रम से ही आगे बढ़ा जा सकता है।
पहले भोजन फिर स्नान ये क्रम नहीं चलता है बल्कि स्नान के उपरान्त ही भोजन ग्रहण करके हम स्वस्थ्य रह सकते हैं। एक दिन एक युवा को तेज भूख लग रही थी उसने स्नान के पूर्व ही एकदम गरम भोजन ग्रहण कर लिया फिर ठन्डे जल से स्नान कर लिया तो उसी दिन से उसको सिरदर्द की समस्या शुरू हो गई। व्यवस्थित क्रम से जीवन का निर्धारण करेंगे तो सही प्रबंधन हो सकेगा, व्यवस्था का मतलब ही है अवस्था के अनुसार प्रबंधन।
उन्होंने कहा कि जीवन के प्रबंधन की कला भी जानना बहुत जरूरी होता है क्योंकि प्रबंधन से ही बंधन से मुक्ति मिलती है, आज हरेक क्षेत्र में प्रबंधन का बहुत महत्व हो गया है क्योंकि अनेक संस्थाएं उचित प्रबंधन के अभाव में समय से पूर्व ही अव्यवस्थित हो जाती हैं जिसके कारण वो स्वतः ही समाप्ति की कगार पर पहुँच जाती हैं।
_गुरुवर ने कहा कि खानपान में सबसे अधिक प्रबंधन की आवश्यकता है क्योंकि आज दूषित बस्तुओं के चलन से युवा पीढ़ी समय से पहले प्रौढ़ हो रही है, रोगों के कालचक्र ने आपको घेर लिया है, यदि निरोगी रहना चाहते हो तो खानपान के क्रम को व्यवस्थित करो। अच्छे पेय पदार्थों को छोड़कर डब्बा बंद पेय को प्राथमिकता देने के कारण ही युवा मानसिक और शारीरिक रूप से अस्वस्थ्य हो रहे हैं। स्वच्छ और शुद्ध जल की जगह बोतल के जल का चलन भी हानिकारक सिद्ध हो रहा है क्योंकि उसमें जलीय तत्वों का आभाव रहता है।_ गुरुदेव ने कहा कि आपके बच्चों का पुण्य है जो उन्हें आप जैंसे माता पिता मिले हैं परंतु आपका पुण्य प्रबल तब कहलाएगा जब आप बच्चों को संस्कारित कर उन्हें जीवन प्रबंधन के गुण सिखाओगे।
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Source: © Facebook
All Jain scripture translations are right from a certain viewpoint, and each translation ultimately is an insight into the translator's own mind. For a translation is, in reality, a transcreation. A translator takes an original text and expresses it in another language, as per his own understanding. The translator's own perceptions are bound to colour his writings.
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