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👉 पूज्य प्रवर का प्रेरणा पाथेय
👉 महासभा की ओर से आयोजित की गई मनोहरी देवी डागा समाज सेवा पुरस्कार व ज्ञानशाला एवं श्रेष्ठ-विशिष्ट सेवा पुरस्कार समारोह
👉 आचार्यश्री ने सभी को अपने आशीर्वचनों से किया अभिसिंचित
👉 अधार्मिक कार्य से स्वयं को तत्काल हटा लेने का हो प्रयास: आचार्यश्री महाश्रमण
👉 सिलीगुड़ी से पूज्यवर के आज के प्रवचन के अंश
दिनांक - 31 जनवरी 2017
📝 धर्म संघ की तटस्थ एवं सटीक जानकारी आप तक पहुंचाए
प्रस्तुति - 🌻 तेरापंथ संघ संवाद 🌻
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31 January 2017 Pravachan
https://youtu.be/xpBTP0IUeUk
👉 *तेरापंथ भवन, राधाबाड़ी में पूज्यप्रवर के आज के "मुख्य प्रवचन" का वीडियो लिंक*
👉 दिनांक 31 - 01- 2017
प्रस्तुति - अमृतवाणी
सम्प्रेषण -👇
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🌻 *तेरापंथ संघ संवाद* 🌻
👉 विजयनगर (बैंगलोर) - अनाथ आश्रम में सेवा कार्य
👉 अहमदाबाद - वस्त्र वितरण का कार्यक्रम आयोजित
👉 जयपुर - जीवन विज्ञान व प्रेक्षाध्यान कार्यशाला का आयोजन
👉 सिलीगुड़ी - अणुव्रत महासिमिति की छठी कार्यसमिति बैठक का आयोजन
👉 सिलीगुड़ी - अणुव्रत महासिमिति पदाधिकारी व कार्यसमिति सदस्य श्री चरणों में
👉कांदिवली, मुम्बई - जीवन विज्ञान अकादमी ने प्रगति स्कूल में मनाया गणतंत्र दिवस
प्रस्तुति: 🌻 *तेरापंथ संघ संवाद* 🌻
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Update
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आचार्य तुलसी की कृति...'श्रावक संबोध'
📕अपर भाग📕
📝श्रृंखला -- 205📝
*पर्युषण महापर्व*
गतांक से आगे...
*भाष्य--* जैनशासन का एक महत्त्वपूर्ण पर्व है *'पर्युषण'*। आठ दिनों के इस पर्व का आखिरी दिन *'पर्युषण'* का दिन है। यह शब्द प्राचीन है। उत्तरकाल में इसके लिए *'संवत्सरी'* शब्द प्रयोग में आने लगा। संवत्सर का अर्थ है वर्ष। वर्ष में एक बार होने से यह संवत्सरी कहलाता है। निशीथ भाष्य में *'पर्युषण'* शब्द के पर्यायवाचक शब्दों की व्याख्या दी गई है। उनमें एक शब्द है *'पर्यवसन'*। इसका संबंध साधुओं के प्रवास काल से है। काल की दो मर्यादाएं हैं-- *ऋतुबद्ध और वर्षावास*। दोनों में चर्या का अंतर है। वर्षावास के अनुरूप द्रव्य, क्षेत्र आदि का चुनाव होने से वर्षावास की चर्या निर्बाध रूप से चल सकती है।
जैन ज्योतिष के अनुसार श्रावणी प्रतिपदा से वर्ष का प्रारंभ होता है। जिस प्रकार आर्थिक वर्ष का प्रारंभ एक अप्रैल से होता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक वर्ष का प्रारंभ सावन महीने की प्रथम तिथि से होता है। उसी दिन से वर्षावास का प्रारंभ किया जाता है। उस समय वर्षावास के अनुरूप क्षेत्र उपलब्ध न हो तो पांचवें दिन वर्षावास शुरू करने की परम्परा रही है। उस दिन भी उपयुक्त स्थान न मिले तो पांच-पांच दिन के क्रम से पचासवें दिन तक यथास्थान पहुंचना आवश्यक है। यह अन्तिम दिन है। इसका अतिक्रमण विहित नहीं है। उस दिन की आचार संहिता के अनुसार साधु के लिए उपवास करने की अनिवार्यता है। साधुओं के लिए निर्धारित यह क्रम आगे चलकर श्रावक समाज में भी प्रतिष्ठित हो गया। प्रस्तुत पद्य में उसी का उल्लेख है। संवत्सरी की दृष्टि से श्रावक की आचार संहिता में उपवास, पौषध, प्रवचन-श्रवण, सामूहिक प्रतिक्रमण, खमत खामणा आदि का समावेश किया गया है।
भगवान महावीर के साधना काल में भाद्रपद शुक्ला पंचमी को वर्षावास की स्थापना का कोई नियम नहीं था। फिर भी भगवान ने एक बार ऐसा प्रयोग किया। कालांतर में उसे सामान्य मान लिया गया। कभी-कभी चतुर्थी को भी संवत्सरी मनाई जाती है, पर सामान्यतः उसके लिए पंचमी का ही दिन है। जैनशासन का इतना बड़ा पर्व होने पर भी इसमें एकरूपता नहीं है। दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा में तो स्पष्ट रूप में भेद है ही। दिगम्बर दस लक्षण पर्व मनाते हैं। उनके पर्व का प्रारंभ पंचमी से होता है और अनन्त चतुर्दशी को वे संवत्सरी का रूप देते हैं। श्वेताम्बर संप्रदायों में चतुर्थी और पंचमी तिथि को लेकर परम्परा भेद चलता है।
आचार्य श्री तुलसी जैन एकता के पृष्ठपोषक थे। जैन संप्रदायों में समन्वय के लिए उन्होंने जो प्रयास किए, वे जैन परम्परा के इतिहास की अमूल्य धरोहर बन गए। जैन एकता के प्रतीक के रूप में आचार्य श्री ने संवत्सरी को एक दिन मनाने का सुझाव दिया। सन् 1975 में आचार्य श्री का उदयपुर में प्रवास था। वहां प्रमुख जैन संप्रदायों के प्रतिनिधियों की एक संगोष्ठी हुई। सौहार्दपूर्ण वातावरण में सम्पन्न उस संगोष्ठी में *'भारत जैन महामंडल'* को यह दायित्व सौंपा गया कि वह सब आचार्यों को सहमत करके संवत्सरी के लिए चतुर्थी या पंचमी कोई एक दिन निर्णीत करा ले। महामंडल ने प्रयत्न किया। सबके साथ संपर्क साधा। बम्बई (वर्तमान नाम - मुम्बई) में आयोजित एक विराट् समारोह में उसके पदाधिकारियों ने सर्वमान्य दिन के रूप में भाद्रपद शुक्ला पंचमी की घोषणा भी कर दी। किंतु उसकी सम्यक् क्रियान्विति नहीं होने से जैन एकता के विशिष्ट अध्याय का वह पृष्ठ खाली रह गया। इसी कारण आचार्य श्री ने उस स्वर्णिम प्रभात की प्रतीक्षा की, जब सब जैन एक दिन एक साथ मिलकर संवत्सरी महापर्व को मनाएंगे।
*तीर्थंकर के लिए धर्मचक्र के प्रवर्तन की अनिवार्यता होती है, इसलिए भगवान महावीर ने धर्मचक का प्रवर्तन किया। जिसका परिणाम है 'जिनशासन'*। जिनशासन के बारे में विस्तार से जानने-समझने के लिए पढ़ें… हमारी अगली पोस्ट... क्रमशः कल।
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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👉 पूज्य गुरुदेव आचार्य श्री महाश्रमण की आज प्रातः की मनमोहक मुद्रा
दिनांक: 31/01/2017
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