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प्रस्तुति: 🌻 *तेरापंथ संघ संवाद*🌻
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*प्रेक्षाध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ*
अनुक्रम - *भीतर की ओर*
*भाव - विशुद्धि और गंध*
हर मनुष्य के शरीर में गंध होती है । उसके आधार पर व्यक्ति के चरित्र का ज्ञान किया जा सकता है ।योगी के शरीर में सुगंध होती है ।ध्यान - काल में भी कभी-कभी सुगंध का अनुभव होता है । जैसे-जैसे लेश्या की विशुद्धि होती है, गंध सुरभि-गंध में बदल जाती है ।
18 मई 2000
प्रसारक - *प्रेक्षा फ़ाउंडेशन*
प्रस्तुति - 🌻 *तेरापंथ संघ संवाद* 🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙
📝 *श्रंखला -- 58* 📝
*आगम युग के आचार्य*
*भवाब्धिपोत आचार्य भद्रबाहु*
*जीवन-वृत्त*
गतांक से आगे...
*अस्यास्तु दोषदण्डोऽयमन्यशिक्षाकृत्तेपि हि।।108।।*
*(परिशिष्ट पर्व सर्ग 9)*
"वाचना को स्थगित करने से आर्य स्थूलभद्र को अपने प्रमाद का दंड मिलेगा और भविष्य में श्रमणों के लिए उचित मार्गदर्शन होगा।"
*अह भणई थूलभद्दो,*
*अण्णं रूवं न किंचि काहामो।*
*इच्छामि जाणिउं जे,*
*अहमं चत्तारि पुव्वाइं।।800।।*
*(तित्थोगालिय पइन्ना)*
आर्य स्थूलभद्र ने पुनः अपनी भावना श्रुतधर आचार्य भद्रबाहु के सामने प्रस्तुत करते हुए कहा "मैं अब पररूप का निर्माण कभी नहीं करूंगा। आप कृपा करके अवशिष्ट चार पूर्वों का ज्ञान देकर मेरी भावना पूर्ण करें।"
आर्य स्थूलभद्र के अत्यंत आग्रह एवं संघ की प्रार्थना पर आचार्य भद्रबाहु ने उन्हें चार पूर्वों का ज्ञान अपवाद (अब दिया जाने वाला अंतिम चार पूर्वों का ज्ञान आगे किसी को नहीं दिया जा सकेगा) के साथ प्रदान किया।
आगम वाचना के इस प्रसंग का उल्लेख उपदेशमाला विशेषवृत्ति, आवश्यक चूर्णी, तित्थोगालीय पइन्ना, परिशिष्ट पर्व इन चार ग्रंथों में अत्यल्प भिन्नता के साथ विस्तार से मिलता है। परिशिष्ट पर्व के अनुसार दो श्रमण श्रुत वाचना के हेतु प्रार्थना करने के लिए नेपाल पहुंचे थे। तित्थोगालिय पइन्ना तथा आवश्यक चूर्णी में श्रमण संघाटक का निर्देश है। परिशिष्ट पर्व के अनुसार 500 शिक्षार्थी श्रमण नेपाल पहुंचे थे। तित्थोगालिय पइन्ना में यह संख्या 1500 की है। इसमें 500 श्रमण शिक्षार्थी एवं 1000 श्रमण शिक्षार्थी मुनियों की परिचर्या करने वाले थे।
आचार्य भद्रबाहु के जीवन की यह घटना विशेष संकेत करती है। नेपाल में आचार्य भद्रबाहु महाप्राण ध्यान की साधना कर रहे थे। उस समय इच्छा नहीं होते हुए भी संघ की प्रार्थना को प्रमुखता प्रदान कर आर्य स्थूलभद्र को दृष्टिवाद आगम की वाचना देना स्वीकार किया। स्थूलभद्र की भूल होने पर पाटलिपुत्र में आचार्य भद्रबाहु के द्वारा वाचना प्रदान का कार्य पूर्णतः स्थगित कर दिया गया। संघ की प्रार्थना को उन्होंने मान्य नहीं किया। स्थूलभद्र के अति आग्रह पर उन्होंने शब्दशः अंतिम चार पूर्वों की वाचना प्रदान की अर्थतः नहीं। इस प्रसंग से स्पष्ट है कि संघ की शक्ति सर्वोपरि होती है। संघ अपने संरक्षण के लिए आचार्य को नियुक्त करता है। आचार्य के लिए संघ नहीं बनता, परंतु संघ की शक्ति आचार्य में केंद्रित होती है। अंततः निर्णायक आचार्य ही होते हैं। यही कारण है समग्र संघ के द्वारा निवेदन करने पर भी आचार्य भद्रबाहु ने चार पूर्वों की अर्थवाचना देना भविष्य में लाभप्रद नहीं समझकर अस्वीकार कर दिया।
*दिगंबर और श्वेतांबर ग्रंथों में भद्रबाहु से संबंधित कई प्रसंग है* जिनके बारे में जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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आचार्य श्री तुलसी की कृति आचार बोध, संस्कार बोध और व्यवहार बोध की बोधत्रयी
📕सम्बोध📕
📝श्रृंखला -- 58📝
*संस्कार-बोध*
*प्रेरक व्यक्तित्व*
गतांक से आगे...
*3.* मंत्री मुनि की शिक्षाओं का एक सूत्र था-- आचार्य किसी बात पर उपालंभ दें, कडी डांट दें, उसे विनम्रता से स्वीकार करना। स्वीकृति में 'तहत' शब्द का प्रयोग करना। यह तेरापंथ संघ की पद्धति है। इस विषय में उनके जीवन का एक उदाहरण बहुत प्रेरक है।
घटना लाडनूं की है और उस समय की है जब छठे आचार्यश्री माणकगणी का आकस्मिक स्वर्गवास होने के बाद संघ ने आचार्य पद के लिए मुनी डालिम को मनोनीत किया। आचार्य पद पर आसीन होते ही डालगणी के पास अंतरिम काल की बातें आने लगीं। मंत्री मुनि के बारे में भी उनके पास शिकायतें पहुंचीं। उनमें एक शिकायत यह थी कि मुनि मगनलालजी ने मुनि जयचंदजी को बुलाया। क्योंकि वे आचार्य पद उन्हें देना चाहते थे। इस बात पर डालगणी ने मुनिश्री को कड़ा उपालंभ देते हुए कहा-- 'मगनजी! तुम अनर्थ कर देते। तुमने किस व्यक्ति पर ध्यान केंद्रित किया! उस महान अविवेकी के बारे में ऐसी बात कैसे सोची?
मुनीश्री ने डालगणी के उपालंभ को विनम्रता के साथ सहन किया। उस समय वे प्रायः मौन रहे और' तहत' 'तहत' कहते रहे। कुछ समय बाद डालगणी का मन शांत देखकर मुनिश्री सहजता से वंदना कर बोले-- 'आपने बड़ी कृपा की, मुझे मार्गदर्शन दिया। आपकी मर्जी हो तो मैं भी कुछ निवेदन करना चाहता हूं।' डालगणी की स्वीकृति पाकर उन्होंने आगे कहा-- 'मैं उन्हें जानता नहीं था क्या, जो उनके बारे में इतनी बड़ी बात सोचता।' डालगणी ने बीच में ही पूछा-- 'तुमने उनको बुलाया क्यों?' इस पर मुनिश्री बोले-- 'मुनि कालूजी अस्वस्थ हो गए। उन्हें कई दिनों तक बुखार आया। उस समय सेवा-सहयोग की जरूरत थी।' डालगणी ने इसका प्रमाण मांगा तो मुनिश्री बोले-- 'वह पत्र मेरे पास है। आप कहें तो हाजर करूं।' मुनिश्री ने पत्र लाकर निवेदित किया। उसे पढ़ने से लगा कि उस बात का इसके साथ कोई संबंध ही नहीं था। डालगणी ने इस संदर्भ में कुछ कहा तो नहीं, पर उस दिन से ही मुनि मगनलालजी के प्रति उनका विश्वास प्रगाढ़ हो गया।
*मंत्री मुनि मगनलालजी की शिक्षाओं के और भी सूत्रों* के बारे में पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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👉 सादुलपुर - बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान पर कार्यक्रम
👉 बेंगलुरु - दायित्वबोध कार्यशाला विजन 2019 का आयोजन
👉 भिवानी: "आध्यात्मिक मिलन"
प्रस्तुति: 🌻 *तेरापंथ संघ संवाद* 🌻
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*प्रेक्षाध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ*
अनुक्रम - *भीतर की ओर*
*प्रतिपक्ष भावना - [ 2 ]*
प्रतिपक्ष भावना का प्रयोग आदत को बदलने का सफल प्रयोग है । इसकी सीमा को समझना जरुरी है । इसका प्रयोग मोह के परिवार को उपशांत करने में सफल होता है । हर किसी अवस्था को बदलने में वह कारगर नहीं होता । क्रोध, अहंकार आदि कषाय मोह परिवार के सदस्य हैं । इसलिए क्षमा की भावना से क्रोध को तथा मृदुता की भावना से अहंकार को समाप्त किया जा सकता है ।
17 मई 2000
प्रसारक - *प्रेक्षा फ़ाउंडेशन*
प्रस्तुति - 🌻 *तेरापंथ संघ संवाद* 🌻
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आचार्य श्री तुलसी की कृति आचार बोध, संस्कार बोध और व्यवहार बोध की बोधत्रयी
📕सम्बोध📕
📝श्रृंखला -- 57📝
*संस्कार-बोध*
*प्रेरक व्यक्तित्व*
(मुक्त छंद)
*52.*
अरे गेडिया हाथ, करे जो सुगुरु सही है,
कड़ी डांट पर 'तहत' यही गण रीत रही है।
सौंपे जो अधिकार, खोज लें अपना आपा,
करें ज्ञान कंठस्थ, विघ्न क्यों बने बुढ़ापा।।
*25. अरे! गेडिया हाथ...*
उक्त पद्य में मंत्री मुनि मगनलालजी से संबंधित पांच घटनाओं के संकेत हैं। यहां उनकी संक्षिप्त-सी जानकारी दी जा रही है--
*1.* कोई साधु या श्रावक मंत्री मुनि से कहते-- 'महाराज! आप तो धर्मशासन के स्तंभ हैं। आचार्यों की भुजा हैं। आप चाहें तो सब कुछ करा सकते हैं।' यह बात सुन मंत्री मुनि उन्हें इस भाषा में समझाते-- 'अरे! भोले भाई! यह बात तुझे किसने कही? मेरे हाथ में केवल मेरा गेडिया है और कुछ नहीं। तुम भविष्य में कभी ऐसी भूल मत कर लेना। यहां सारे अधिकार आचार्य के हाथ में हैं।'
*2.* मंत्री मुनि छोटे साधुओं को शिक्षा देते, उनमें एक बोधपाठ यह था-- 'आचार्य जो कुछ करते हैं, सोच-समझकर करते हैं। इसलिए वह सही होता है। उसमें किसी प्रकार का तर्क नहीं होना चाहिए।'
बिदासर की बात है। रात का समय था। पूज्य कालूगणी विराजमान थे। उनके पास मंत्री मुनि बैठे थे। मैं (ग्रंथकार आचार्य तुलसी) स्वाध्याय करने के लिए गुरुदेव के पास प्रायः प्रतिदिन जाता था। कालूगणी साधुओं की व्यवस्था कर रहे थे। उन्होंने एक साधु का नाम लेकर उसे एक अग्रगण्य को वंदना कराई। मेरे मुंह से अचानक निकल पड़ा-- 'इस साधु का निर्वाह यहां कैसे होगा?' मैं धीरे से बोला था फिर भी मंत्री मुनि के सजग कानों ने उन शब्दों को पकड़ लिया। उन्होंने तत्काल मुझे सजग करते हुए कहा-- 'खबरदार! तुमने ऐसी बात कैसे कही? गुरु जो करे वह ठीक होता है। इस विषय में कभी आशंका और ऊहापोह मत करना।' उनका यह बोधपाठ एक शास्वत सच्चाई है। आचार्य के किसी भी कथन या निर्णय पर टिप्पणी करना उचित नहीं है।
*मंत्री मुनि मगनलालजी की शिक्षाओं के और भी सूत्रों* के बारे में पढ़ेंगे और प्रेरणा पाएंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙
📝 *श्रंखला -- 57* 📝
*आगम युग के आचार्य*
*भवाब्धिपोत आचार्य भद्रबाहु*
*जीवन-वृत्त*
गतांक से आगे...
भद्रबाहु ने समग्र स्थिति को ज्ञानपयोग से जाना और कहा
*"वन्दध्वं तत्र वः सोऽस्ति जयेष्ठार्यो न तु केसरी"।।82।।*
*(परिशिष्ट पर्व, सर्ग 9)*
"वह केसरी नहीं है, तुम्हारा भाई है। पुनः वहीं जाओ। तुम्हें तुम्हारा भाई मिलेगा। उसे वंदन करो।"
आचार्य भद्रबाहु द्वारा निर्देश प्राप्त कर बहिनें पुनः उसी स्थान पर गईं। ज्येष्ठ बंधु आर्य स्थूलभद्र को देखकर प्रसन्नता हुई। सबने मुकुलित पाणि मस्तक झुकाकर वंदन किया और बोलीं "भ्रात! हम पहले भी यहां आईं थीं, परंतु आप नहीं थे। यहां पर केसरीसिंह बैठा था।" आर्य स्थूलभद्र ने उत्तर दिया "साध्वियों! मैंने ही उस समय सिंह का रूप धारण किया था।"
आर्य स्थूलभद्र एवं यक्षा, यक्षदत्ता आदि साध्वियों का कुछ समय तक वार्तालाप चला। उन्होंने मुनि श्रीयक के रोमांचक समाधि-मरण की घटना आर्य स्थूलभद्र को बतलाई। इस घटना-श्रवण से आर्य स्थूलभद्र को खिन्नता हुई। यक्षादि साध्वियां अपने स्थान पर लौट गईं। आर्य स्थूलभद्र वाचना ग्रहण करने के लिए आचार्य भद्रबाहु के चरणों में उपस्थित हुए। अपने सम्मुख आर्य स्थूलभद्र को देखकर आचार्य भद्रबाहु ने कहा "वत्स! ज्ञान का अहं विकास में बाधक है। तुमने शक्ति का प्रदर्शन कर स्वयं को ज्ञान के लिए अपात्र सिद्ध किया है। अग्रिम वाचना के लिए तुम योग्य नहीं हो।" आचार्य भद्रबाहु द्वारा आगम वाचना नहीं मिलने पर उन्हें अपनी भूल समझ में आई। अपने प्रमाद पर गहरा अनुपात हुआ। भद्रबाहु के चरणों में गिरकर उन्होंने क्षमायाचना की और कहा "यह मेरी पहली भूल है। इस प्रकार की भूल का पुनरावर्तन नहीं होगा। आप मेरी भूल को क्षमा कर मुझे वाचना प्रदान करें।"
आचार्य भद्रबाहु ने उनकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की। आर्य स्थूलभद्र ने पुनः विनम्र निवेदन किया "प्रभो पूर्वज्ञान का विच्छेद होने वाला है परंतु मैं सोचता हूं
*न मत्तः शेषपूर्वाणामुच्छेदो भाव्यतस्तु सः।।109।।*
*(परिशिष्ट पर्व, सर्ग 9)*
श्रुत-विच्छिन्नता का निमित्त मैं नहीं बनूं अतः पुनः प्रणति-पूर्वक आपसे वाचना प्रदानार्थ आग्रह भरी नम्र विनती कर रहा हूं।"
आर्य स्थूलभद्र को वाचना प्रदान की स्वीकृति प्राप्त करने हेतु सकल संघ ने आचार्य भद्रबाहु को पुनः-पुनः विनती की। सबकी भावना सुनने के बाद समाधान के स्वरों में दूरदर्शी आचार्य भद्रबाहु बोले
"गुणमंडित, अखंडित, आचारनिधिसंपन्न मुनिजनों! मैं आर्य स्थूलभद्र की भूल के कारण वाचना देना स्थगित नहीं कर रहा हूं। वाचना न देने का कारण और भी है, वह यह है 'मगध की रूपसी कोशा गणिका के बाहुपाश को तोड़ देने वाला एवं अमात्य पद के आमंत्रण को ठुकरा देने वाला आर्य स्थूलभद्र श्रमण समुदाय में अद्वितीय है। वह योग्य है। इसकी शीघ्रग्राही प्रतिभा के समान अभी कोई प्रतिभा नहीं है। इसके प्रमाद को देखकर मुझे अनुभूत हुआ कि समुद्र भी मर्यादा का अतिक्रमण करने लगा है।' उच्च कुलोत्पन्न, पुरुषों में अनन्य, श्रमण समाज का भूषण, धीर, गंभीर, दृढ़ मनोबली, परम विरक्त स्थूलभद्र जैसे व्यक्ति को ज्ञान-मद आक्रांत करने में सफल हो गया है। आगे इससे मंद सत्त्व साधक होंगे। अतः पात्रता के अभाव में ज्ञानदान ज्ञान की आशातना है। अवशिष्ट याचना प्रदान करने से किसी प्रकार के भावी लाभ की संभावना नहीं रही है।"
*क्या आचार्य भद्रबाहु ने आर्य स्थूलभद्र को अवशिष्ट चार पूर्वों का ज्ञान प्रदान किया...?* जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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