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👉 *पूज्य प्रवर का प्रवास स्थल - "घुस्करा" (पश्चिम बंगाल) में*
👉 *गुरुदेव मंगल उद्बोधन प्रदान करते हुए..*
👉 *आज के "मुख्य प्रवचन" के कुछ विशेष दृश्य..*
दिनांक - 24/05/2017
📝 धर्म संघ की तटस्थ एवं सटीक जानकारी आप तक पहुंचाए
*प्रस्तुति - 🌻 तेरापंथ संघ संवाद* 🌻
Source: © Facebook
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙
📝 *श्रंखला -- 63* 📝
*आगम युग के आचार्य*
*भवाब्धिपोत आचार्य भद्रबाहु*
*जीवन-वृत्त*
गतांक से आगे...
पाश्चात्य विद्वान् डॉक्टर हर्मन जेकोबी ने सबसे पहले यह शोध की और बताया निर्युक्तिकार भद्रबाहु और छेदसूत्रकार श्रुतधर भद्रबाहु एक नहीं है।
इस संदर्भ में डॉक्टर हर्मन जेकोबी का परिशिष्ट एवं इंट्रोडक्शन विशेष रुप से दृष्टव्य है। डॉक्टर हर्मन जेकोबी की समीक्षा के मुख्य बिंदु हैं
श्रुतधर भद्रबाहु वी. नि. 170 में हुए हैं। आवश्यक निर्युक्ति में 7 निह्नवों का उल्लेख है। सातवां निह्नव गोष्ठामाहिल वी. नि. 584 में हुआ है। उसका उल्लेख आवश्यक निर्युक्ति में होने के कारण निर्युक्तिकार भद्रबाहु गोष्ठामाहिल के बाद हुए हैं। निर्युक्ति में वी. नि. 609 मैं होने वाले आठवें निह्नव का उल्लेख नहीं है, अतः निर्युक्ति ग्रंथों की रचना वी. नि. 584 (वि. 114) और वी. नि. 609 (वि. 139) के मध्यकाल में हुई संभव है।
As the Niryukti had been written between 584 and 609 A.V.
(Parishishta Prava introductory, page 17)
महावीर का निर्वाण परंपरा सम्मत ईपू 527 मान लेने पर नियुक्ति रचना का यह काल ईसन 57 और 82 का मध्यवर्ती काल प्रमाणित होता है नियुक्ति रचनाकार के विषय में वे लिखते हैं
These stories are scarcely ever alluded to in the Sutra, itself, but frequently in the Niryukti belonging to it. There are ten sutras to which Bhadrabahu, a late namesake of the sixth Patriarch, has written Niryukti I.e.
(Parishishta Prava introductory, page 6)
उक्त समीक्षा से स्पष्ट है निर्युक्तिकार भद्रबाहु श्रुतकेवली भद्रबाहु से भिन्न थे।
डॉक्टर हर्मन जेकोबी की इस शोध के बाद भारतीय जैन विद्वानों ने भी इस विषय पर अनुसंधान कर यह प्रमाणित किया है कि श्रुतधर भद्रबाहु और निर्युक्तिकार भद्रबाहु एक नहीं हैं। दशाश्रुतस्कंध में निर्युक्तिकार भद्रबाहु, छेद-सूत्रकार, श्रुतधर भद्रबाहु को वंदन करते हैं। इस उल्लेख से भी श्रुतधर और छेदसूत्रकार भद्रबाहु की निर्युक्तिकार भद्रबाहु से भिन्नता प्रमाणित होती है। पञ्चकल्प चूर्णीकार ने भी निशीथ, वृहतकल्प, व्यवहार और दशाश्रुतस्कंध इन छेदसूत्रों के रचनाकार श्रुतधर भद्रबाहु को माना है।
इन ग्रंथों के मननपूर्वक अध्ययन से स्पष्ट हो गया है कि इतिहास के लंबे अंतराल में दो भद्रबाहु हुए हैं। प्रथम भद्रबाहु वीर निर्वाण की द्वितीय शताब्दी में हुए। वे श्वेतांबर परंपरा के अनुसार श्रुतधर थे एवं छेदसूत्रों के रचनाकार थे। नेपाल की गिरिकंदराओं में उन्होंने महाप्राण ध्यान की साधना की। द्वितीय भद्रबाहु सुप्रसिद्ध ज्योतिर्विद वराहमिहिर के सहोदर थे। वे विक्रम की पांचवीं शताब्दी के विद्वान थे।
*स्थानाङ्ग सूत्र में नौ गणों का उल्लेख है। उनमें एक गोदासगण है।* इस गण के बारे में संक्षिप्त जानकारी प्राप्त करेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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आचार्य श्री तुलसी की कृति आचार बोध, संस्कार बोध और व्यवहार बोध की बोधत्रयी
📕सम्बोध📕
📝श्रृंखला -- 63📝
*संस्कार-बोध*
*प्रेरक व्यक्तित्व*
(दोहा)
*57.*
चातुर्मास चित्तौड़ में, कर सकता है कौन?
प्रश्न आर्य जय ने किया, साधा सबने मौन।।
*58.*
साध्वी दीपांजी हुई, धर साहस तैयार।
चउमासी तप का सबल, खोज लिया उपचार।।
*30. चातुर्मास चित्तौड़ में...*
साध्वी दीपाजी (जोजावर) आचार्य भारीमालजी के युग में दीक्षित हुईं वे साध्वाचार में जितनी कुशल थीं, शास्त्रों के अध्ययन में भी उतनी ही निपुण थीं। उन्होंने 32 आगम पढ़कर उनके सूक्ष्म रहस्यों की अच्छी धारणा की। उनकी व्याख्यान कला प्रसिद्ध थी। उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व का धर्म संघ में प्रभाव था। उस समय संघ में साध्वीप्रमुखा की परंपरा चालू नहीं हुई थी। आचार्यों द्वारा सम्मानित और मान्यताप्राप्त साध्वी ही प्रमुख साध्वी के रुप में काम करती थी। साध्वी दीपांजी ने तृतीय आचार्य ऋषिराय के युग में प्रमुख साध्वी का दायित्व संभाला था। वे चर्चा में निष्णात एवं दाठीक साध्वी थीं। उनके साहस और दृढ़ता की अनेक घटनाएं हैं। जयाचार्य को साहित्य लेखन (जोड़) की प्रेरणा उन्होंने ही दी थी। उनके जीवन की एक घटना यहां प्रासंगिक है।
बात जयाचार्य के समय की है। तब चित्तौड़ में तेरापंथ की श्रद्धा के प्रमुख परिवार दो ही थे—ताराचंद जी ढीलीवाल का और कानमलजी पारख का। अन्य जैन संप्रदायों के घर थे। किंतु सांप्रदायिक कट्टरता के कारण वहां गोचरी करने में कठिनाई थी। इधर ढीलीवालजी की श्रद्धा-भक्ति देखकर जयाचार्य ने चित्तौड़ में चातुर्मास कराने का मानस बना लिया। पूज्य कालूगणी ने भी जसवंतमलजी सेठिया आदि एक-दो परिवारों पर कृपा कर 'बलूंदा' में संवत् 1990 में संतों का चातुर्मास्य कराया। वह बहुत उपयोगी रहा।
जयाचार्य चित्तौड़ को चातुर्मास्य देना चाहते थे और वे वहां की परिस्थितियों से भी परिचित थे। इसी कारण आपने साधु-साध्वियों से पूछा था कि वहां चौमासा कौन कर सकता है? इस प्रश्न पर सबका मौन स्पष्ट करता था कि किसी भी साधु-साध्वी की वहां जाने की तैयारी नहीं थी। जब जयाचार्य ने यही प्रश्न दूसरी बार दोहराया तो साध्वी दीपांजी खड़ी होकर बोलीं— 'आप मुझ पर अनुग्रह करें तो मैं वहां चातुर्मास्य कर सकती हूं।'
*क्या साध्वी दीपांजी चित्तौड़ में सफल चातुर्मास कर पाईं...?* जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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*प्रेक्षाध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ*
अनुक्रम - *भीतर की ओर*
*पीतवर्ण प्रधान आभामण्डल*
जो व्यक्ति पीतलेश्या प्रधान होता है उसके आभामंडल में पीतवर्ण की प्रधानता होती है ।
पद्मलेश्या वाले व्यक्ति की भावधारा को समझने के लिए कुछ भावों का उल्लेख आवश्यक है ------
1) चित्त की प्रशान्ति।
2) इन्द्रिय पर विशिष्ट विजय ।
3) क्रोध, मान, माया और लोभ प्रतनु हो जाते हैं, इसलिए उपशम विशिष्ट बन जाता है ।
4) वाणी का संयम
इन भावों के आधार पर निर्णय किया जा सकता है कि इस व्यक्ति के आभामंडल में पीत रंग की प्रधानता है ।
24 मई 2000
प्रसारक - *प्रेक्षा फ़ाउंडेशन*
प्रस्तुति - 🌻 *तेरापंथ संघ संवाद* 🌻
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News in Hindi
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दिनांक - 24/05/2017
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*प्रस्तुति - 🌻 तेरापंथ संघ संवाद* 🌻
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