News in Hindi
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*प्रेक्षाध्यान के रहस्य - आचार्य महाप्रज्ञ*
अनुक्रम - *भीतर की ओर*
*रक्तधातु प्रेक्षा*
रक्त की संचार प्रणाली पूरे शरीर में व्याप्त है।वह जितनी स्वच्छ और स्वस्थ होती है उतना ही व्यक्ति स्वस्थ रहता है।रक्त प्रणाली की स्वस्थता के लिए आनंदकेंद्र की प्रेक्षा बहुत महत्वपूर्ण है। इसे शक्तिशाली बनाने के लिए "क" और "ठ"---- इन दो वर्णों का जप भी किया जाता है।
01 जून 2000
प्रसारक - *प्रेक्षा फ़ाउंडेशन*
प्रस्तुति - 🌻 *तेरापंथ संघ संवाद* 🌻
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आचार्य श्री तुलसी की कृति आचार बोध, संस्कार बोध और व्यवहार बोध की बोधत्रयी
📕सम्बोध📕
📝श्रृंखला -- 70📝
*संस्कार-बोध*
*प्रेरक व्यक्तित्व*
*संस्कारी श्रावक*
(दोहा)
*62.*
संस्कारी श्रावक सुघड़, धर्मसंघ के अंग।
नामांकन के रूप में, कुछ जीवंत प्रसंग।।
(मुक्त छंद)
*63.*
टूटी बेड़ी सफल शोभजी श्रावक भक्ति,
टूटा खोड़ा रूपां की अनुपम अनुरक्ति।
कन्या कुंकुम बता बचाते अपनी बाजी,
दर्शन करते दस आनों में जोधा-सा जी।।
*35. टूटी बेड़ी सफल शोभजी...*
आचार्य भिक्षु के परमभक्त श्रावक शोभजी का जन्म केलवा (मेवाड़) के कोठारी परिवार में हुआ। धर्मक्रांति के बाद आचार्य भिक्षु ने अपना प्रथम चातुर्मास्य केलवा में किया। शोभजी के पिता ने नेतसीजी ने उनके पास सम्यक्त्व दीक्षा ग्रहण की। उस समय शोभजी गर्भ में थे। धार्मिक परिवार में जन्म लेने से शोभजी को बचपन से ही धार्मिक संस्कार प्राप्त हो गए। बड़े होने पर उन्होंने तेरापंथ तत्त्वदर्शन को समझा। आचार्य भिक्षु के सान्निध्य से वे उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हुए। उनके प्रति उनके मन में अटूट श्रद्धा थी।
शोभजी श्रद्धालु होने के साथ-साथ कवि भी थे। वे गीत लिखते थे। उनके गीतों में भक्तिरस की प्रधानता है। *'पूजगणी'* नाम से संकलित एक कृति में उनके तीस गीत हैं। उनकी समग्र रचनाएं अड़तीस सौ पद्यों में हैं। आचार्य भिक्षु ने 38 हजार पद्य परिमाण साहित्य की रचना की। शोभजी ने प्रत्येक सौ पद्य के पीछे दस-दस पद्य बनाकर अपनी रचनाओं का ग्रंथाग्र 38 सौ पद्य परिमाण कर लिया।
शोभजी केलवा के राजघराने में प्रमुख पद पर कार्यरत थे। एक बार वहां के ठाकुर साहब से उनका मतभेद हो गया। मतभेद ने मनोभेद की स्थिति पैदा कर दी। शोभजी प्रच्छन्न रूप से केलवा छोड़कर अपने परिवार के साथ नाथद्वारा चले गए। ठाकुर साहब को इस बात का पता लगा। वे उन पर अधिक नाराज हो गए। उन्होंने नाथद्वारा के बड़े जागीरदार गुसाईंजी से संपर्क किया। फिर शोभजी पर दोषारोपण कर उन्हें बंदी बनवाकर कारागार में भिजवा दिया।
उन दिनों आचार्य भिक्षु नाथद्वारा के आस-पास के गांवों में विहार कर रहे थे। शोभजी के बारे में उक्त संवाद प्राप्त होने के बाद वे उन्हें दर्शन देने के लिए नाथद्वारा गए। वहां वे कारागार के द्वार पर पहुंचे। उस समय शोभजी तन्मय होकर गा रहे थे—
*मोटो फंद इण जीव रै रे,*
*कनक कामणी दोय,*
*निकल सकूं नहीं उलझ रह्यो रे,*
*तिण सूं दरसण रो पड़्यो रे बिछोय।*
*पूजजी रा दरसण किणविध होय,*
*स्वामी सूं मिलणो किण दिन होय*
आचार्य भिक्षु ने उसी समय शोभजी को सम्बोधित कर कहा— *'दरसण इणविध होय। शोभजी! हम तुम्हें दर्शन देने आ गए हैं'।* शोभजी के कानों में ये शब्द पड़े तो उन्होंने आंखें खोलीं। आचार्य भिक्षु को अपने सामने देख वे भावविभोर हो गए। बेड़ी की बात भूल वे खड़े होकर चलने को उद्यत हुए तो उनके पैरों की बेड़ियां टूट गईं। जेलर इस घटना से स्तब्ध रह गया। गुसांईजी के पास यह सूचना पहुंची तो वे दुविधा में आ गए। आखिर उन्होंने शोभजी को जेल से मुक्त कर दिया। शोभजी जहां भी जाते, लोगों को धर्म का मर्म समझाते। उदयपुर के प्रसिद्ध श्रावक केशरजी भंडारी को शोभजी ने ही समझाया था।
*रूपांजी का खोड़ा कैसे टूटा...?* जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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जैनधर्म की श्वेतांबर और दिगंबर परंपरा के आचार्यों का जीवन वृत्त शासन श्री साध्वी श्री संघमित्रा जी की कृति।
📙 *जैन धर्म के प्रभावक आचार्य'* 📙
📝 *श्रंखला -- 70* 📝
*आगम युग के आचार्य*
*तेजोमय नक्षत्र आचार्य स्थूलभद्र*
*जीवन-वृत्त*
गतांक से आगे...
उर्वशी के समान रुप से संपन्न कोशा मगध की अनिंद्य सुंदरी थी। पाटलिपुत्र कि वह अनन्य शोभा थी। मगध का युवावर्ग, राजा, राजकुमार तक उसकी कृपा पाने के लिए लालायित रहते थे। कामकला से सर्वथा अनभिज्ञ 18 वर्षीय नवयुवक स्थूलभद्र कोशा के द्वार पर पहुंचकर पुनः घर नहीं लौटा। उसका भावुक मन कोशा गणिका के अनुपम रूप पर पूर्णतः मुग्ध हो गया।
मंत्री शकडाल को स्थूलभद्र के जीवन से अनुभव मिला। उसने अपने पुत्र श्रीयक को वहां भेजने की भूल नहीं की। राजतंत्र का बोध देने हेतु अमात्य शकडाल उसे अपने साथ रखता एवं राज्य संचालन का प्रशिक्षण देता।
कार्यकुशल श्रीयक राजा नंद का अंगरक्षक बना। विनय आदि गुणों के कारण राजा को श्रीयक प्रिय लगने लगा।
मगध का विद्वान्, कवीश्वर, वैयाकरण-शिरोमणि, द्विजोत्तम, वररुचि नंद राज्य में अपनी प्रतिष्ठा स्थापित करने का प्रयास कर रहा था। वह प्रतिदिन राजा की प्रशंसा में स्वरचित 108 श्लोक राजसभा में सुनाया करता, पर अमात्य शकडाल ने उसकी प्रशंसा में एक शब्द भी नहीं कहा। शकडाल मंत्री के द्वारा श्लोकों की प्रशंसा किए जाने पर ही नंद राजा के द्वारा उसे पुरस्कार प्राप्त हो सकता है इस बात को वररुचि ने अच्छी तरह जान लिया।
एक दिन वररुचि ने एक योजना सोची। वह शकडाल की पत्नी लक्ष्मी को अपनी कविताएं सुनाने लगा। लक्ष्मी विदुषी नारी थी। वह काव्य के मूल को पहचानती थी। विद्वान् वररुचि के श्लोकों को सुनकर लक्ष्मी प्रभावित हुई। एक दिन उसने वररुचि से कहा "ब्राह्मणपुत्र! मेरे योग्य कोई कार्य हो तो कहो।" विद्वान् वररुचि नम्र होकर मधुर स्वर में बोला "भगिनी! मंत्री शकडाल द्वारा मेरी श्लोकों की राजा के सामने प्रशंसा होनी चाहिए।" वररुचि इतना कहकर अपने घर पर चला गया।
मंत्री पत्नी ने एक दिन अवसर देखकर मंत्री से कहा "आप वररुचि के श्लोकों की राजा के सामने प्रशंसा अवश्य करें।" अमात्य की अपनी इच्छा नहीं थी, पर पत्नी के कथन पर उसने अपने विचारों को बदला। दूसरे ही दिन वररुचि जब नंद के सामने श्लोक बोल रहा था तभी शकडाल ने कहा "अहो सुभाषितम्"। शकडाल के द्वारा यह शब्द सुनकर नरेश नंद ने वररुचि की ओर कृपा दृष्टि से झांका। उसी दिन से विद्वान् वररुचि को 108 श्लोकों के बदले 108 स्वर्ण मुद्राओं का पुरस्कार प्रतिदिन सुलभता से मिलने लगा। अपनी योजना की सफलता पर वररुचि अत्यंत प्रसन्न था।
प्रतिदिन 108 दीनारों (स्वर्ण मुद्रा) का राजा नंद के द्वारा दिया जाने वाला यह पुरस्कार महामात्य शकडाल के लिए चिंता का विषय बन गया।
*वररुचि को दिया जाने वाला पुरस्कार महामात्य शकडाल के लिए चिंता का विषय क्यों बन गया और उन्होंने इस समस्या का हल कैसे निकाला...?* जानेंगे... हमारी अगली पोस्ट में... क्रमशः...
प्रस्तुति --🌻तेरापंथ संघ संवाद🌻
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