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तपस्वी सम्राट #आचार्यसन्मतिसागर जी के शिष्य #आचार्यसुनीलसागर जी का चातुर्मास @ उदयपुर 😊😊 आओ जाने #AcharyaSanmatisagar जी की तपस्या के कुछ facts 😇 #plsShare
आचार्य सन्मतिसागर महाराज- वे 48 घंटो में एक बार मट्ठा और पानी लेते थे. आपने आचार्य महावीर कीर्ति जी महाराज से 18 साल की आयु में ब्रहमचर्य व्रत लेते ही नमक का त्याग कर दिया. सन 1961 में (मेंरठ) में आचार्य विमलसागर महाराज से छुलक दीक्षा लेते ही दही,तेल व घी का त्याग कर दिया था.सन 1962 में मुनि दीक्षा लेते ही आपने शकर का भी त्याग कर दिया सन 1963 में आप ने चटाई का भी त्याग कर दिया और 1975 में आपने अन्न का भी त्याग कर दिया. सन 1998 में उन्होंने दूध का भी त्याग कर दिया. सन 2003 में उदयपुर में मट्ठा और पानी का अलावा सबका त्याग कर दिया. उन्होंने रांची में 6 माह तक और इटावा में 2 माह तक पानी का भी त्याग किया. उन्होंने अपने एक चातुर्मास में 120 दिनों में केवल 17 दिन आहार लिया.दमोह चातुर्मास में उन्होंने एक आहार एक उपवास फिर दो उपवास एक आहार तीन उपवास एक आहार... इस तरह बढते हुए, 15 उपवास एक आहार, 14 उपवास एक आहार, 13 उपवास एक आहार.. से करते करते एक उपवास एक आहार, तक पहुच कर सिंहनिष्क्रिदित महा कठिन व्रत किया. उन्होंने अपने 49 साल के तपस्वी जीवन में लगभग 9986 उपवास किये. लगभग 27.5 सालो से भी अधिक उपवास किये.आपके बारे में आचार्य 108 पुष्पदंत सागर महाराज ने यहाँ तक कहा है
की महावीर भागवान के बाद आपने ने इतनी तपस्या की है. सन 1973 में उन्होंने शिखरजी की निरंतर 108 वंदना की थी.वे भरी सर्दियों में भी चटाई नहीं लेते थे. गुरुदेव 24 घंटो में केवल 3 चार घंटे ही विश्राम करते थे. वे पूरी रात तपस्या में लगे रहते थे.उन्होंने समाधी से 3 दिन पहले उपवास साधते हुए लोगो का कहने का बावजूद आपना आहार नहीं लिया. अपनी समाधी से पहले दिन यानि 23-12-10 को आपने अपने शिष्यों को पढ़ाया और शाम को अपना आखरी प्रवचन भी समाधी पर ही दिया. और सुबह 5.50 बजे आपने अपने आप पद्मासन लगाया भगवन का मुख अपनी तरफ करवाया और अपने प्राण 73 वर्ष की आयु में 24-12-10 को आँखों से छोड़ दिए. ऐसे तपस्वी सम्राट को मेरा कोटि कोटि नमन.
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Source: © Facebook
News in Hindi
दर्शनं देवदेवस्य, दर्शनं पापनाशनम् ।
दर्शनं स्वर्गसोपानं, दर्शनं मोक्षसाधनम् ।।
दर्शनेन जिनेन्द्राणां, साधूनां वन्दनेन च।
न चिरं विद्यते पापं, छिद्रहस्ते यथोदकम् ।
वीतरागमुखं दृष्ट्वा, पद्मरागसमप्रभं ।
नैक जन्मकृतं पापं, दर्शनेन विनश्यति ।।
दर्शनं जिनसूर्यस्य, संसारध्वान्तनाशनम् ।
बोधनं चित्तपद्मस्य, समस्तार्थ प्रकाशनम् ।
दर्शनं जिनचन्द्रस्य, सद्धर्मामृतवर्षणं।
जन्मदाहविनाशाय, वर्धनं सुखवारिधे: ।।
जीवादितत्त्वं प्रतिपादकाय, सम्यक्त्वमुख्याष्टगुणाणर्वाय ।
प्रशांतरूपाय दिगम्बराय, देवाधिदेवाय नमो जिनाय ।।
चिदानंदैकरूपाय, जिनाय परमात्मने ।
परमात्मप्रकाशाय, नित्यं सिद्धात्मने नम: ।।
अन्यथा शरणं नास्ति, त्वमेव शरणं मम ।
तस्मात् कारूण्यभावेन, रक्ष रक्ष जिनेश्वर ।
न हि त्राता न हि त्राता, न हि त्राता जगत्त्रये।
वीतरागात्परो देवो, न भूतो न भविष्यति ।।
जिने भक्तिर्जिने भक्तिर्जिने भक्तिर्दिने दिने ।
सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु, सदा मेऽस्तु भवे भवे ।।
जिनधर्मविनिर्मुक्तो, माभवं चक्रवर्त्र्यपि।
स्याच्चेटोऽपि दरिद्रोऽपि, जिनधर्मानुवासित:
जन्मजन्मकृतं पापं, जन्मकोटिमुपार्जितम् ।
जन्ममृत्युजरारोगं, हन्यते जिनदर्शनात् ।।
अद्याभवत्सफलता नयन-द्वयस्य, देव त्वदीय -चरणांबुजवीक्षणेन।
अद्य-त्रिलोकतिलक! प्रतिभासते मे, संसारवारिधिरयं चुलुकप्रमाणं
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